सालभर बीहू के इंतज़ार में सामूहिक बुनाई करने वाली मिशिंग महिलाएं अब अकेले कर रहीं बुनाई

आमतौर पर सामुदायिक केंद्र में, समूहों में पारम्परिक कपड़े बुनने वाली मीशिंग जनजाति की महिलाएं, अब घर पर ही अकेले बुनाई करती हैं, ताकि सोशल डिस्टैन्सिंग के माध्यम से कोरोना वायरस के प्रसार को रोका जा सके

शिवसागर, असम

हर साल की तरह, प्रणीता टाये और नमोली मिली, बिहू त्योहार से पहले तैयार कर लेने के लिए, महिलाओं की पारंपरिक असमिया पोशाक ‘मेखला चादर’ के नए पैटर्न और नमूनों पर काम कर रही हैं। लेकिन हर साल के विपरीत, इस बार उन्हें अपने पारिवारिक करघे पर ही बुनाई पूरी करनी पड़ रही है।

लीगिरीबाड़ी गांव के ज्ञानदीप बुनाई केंद्र की सचिव प्रणीता टाये ने VillageSquare.in को बताया – “पहले हम अपने गाँव के बुनाई केंद्र में इकट्ठा होते थे और समूहों में करते थे, लेकिन अब आपस में दूरी बनाए रखते हैं, क्योंकि कहा जा रहा है कि यदि हम किसी संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आए, तो कोई वायरस (विषाणु) हमारे लिए जानलेवा हो सकता है।”

सोशल डिस्टैन्सिंग (सामाजिक दूरी) के आदेश के लागू होने के कारण, समूह में करघे पर पारंपरिक कपड़े बुनने वाली मीशिंग महिलाओं ने घर पर ही अपने व्यक्तिगत करघे पर बुनाई शुरू कर दी है।

मीशिंग जनजाति 

मीशिंग, असम के मैदानी इलाके के जिलों की दूसरी सबसे बड़ी अनुसूचित जनजाति है। मीशिंग समुदाय की कुल आबादी (2011 की जनगणना के अनुसार) 5,56,296 दर्ज की गई है। आदिवासी आबादी असम के लखीमपुर, डिब्रूगढ़, शिवसागर, जोरहाट, माजुली और सोनितपुर जिलों में केंद्रित है।

नमोली मिली द्वारा बिहू त्यौहार के लिए मिले आर्डर के लिए बनाया पारंपरिक मेखला (छायाकार-जिज्ञासा मिश्रा)

प्रणीता टाये और नमोली मिली मीशिंग समुदाय से हैं और लिगिरीबाड़ी की निवासी हैं। शिवसागर जिले का लिगिरीबाड़ी गाँव मीशिंग जनजाति के लगभग 40 परिवारों का घर है। समुदाय के पुरुष सदस्य घर के गुजारे के लिए खेती करते हैं। वे धान, सरसों, शकरकंदी, दालें और मौसमी सब्जियाँ उगाते हैं।

पारंपरिक वस्त्र

मेखला चादर (असम में शादोर के रूप में उच्चारित), असम में महिलाओं की पारंपरिक वेशभूषा है, जो करीब-करीब दो पीस वाली साड़ी जैसी ही है। हालाँकि विभिन्न जनजातियों में इसके डिजाइन, रंग और बुनाई पैटर्न भिन्न होते हैं। मिशिंग समुदाय की महिलाएं मेखला चादर पर, सुम्पा (कमर में पहना जाने वाला एक कपड़ा), गुलुक (सीने के चारों ओर पहना जाने वाला) और हुरा (सिर पर बांधने वाला कपड़ा) भी पहनती हैं।

तीन घंटे की लगातार बुनाई के बाद, एक करघे में गहरे लाल और गेरुआ सूती धागे सुलझाते हुए,नमोली ने अपने हाथों को आराम दिया। इसके बाद उन्होंने अपने करघे से, नई बुनी हुई पारंपरिक काली मेखला निकाली, जिस पर हरे, गेरुआ, गहरे लाल, पीले और सफेद रंग के नमूने बने हैं।

ज्ञानदीप बुनाई केंद्र, लिगिरीबाड़ी की उपाध्यक्ष, नमोली मिली ने देशव्यापी बंद (लॉक डाउन) का हवाला देते हुए VillageSquare.in को बताया – “यह बिहू के लिए है। यह हमारा पारंपरिक डिजाइन है। मैं इसे पहले से मिले ऑर्डर के लिए पूरा कर रही हूं। मैं अब और अधिक पीस नहीं बनाऊंगी, क्योंकि अब और बिक्री नहीं होने वाली|”

लॉकडाउन (बंद) प्रभाव

बुनाई केवल गृहणियों द्वारा की जाती है। अपने स्वयं के उपयोग के कपड़े बुनने के अलावा, वे इसे व्यावसायिक रूप से ऑर्डर, प्रदर्शनियों और बाजार में बेचने के लिए भी करते हैं। क्योंकि वे गाँवों में रहते हैं, इसलिए उनकी बाजार की बिक्री सीमित है।

मीशिंग घर आमतौर पर एक हॉल होता है, जिसमें विभाजन के लिए दीवारें नहीं होती। मीशिंग लोग 5 फीट ऊंचे उठे चिरे हुए बाँस के फर्श और फूस की छत के घर बनाने के लिए जाने जाते हैं। मीशिंग घरों के नीचे परिवार का करघा रहता है। मीशिंग घर के करघे में एक पारंपरिक बुनाई-मशीन और बैठने के लिए एक स्टूल होता है।

असम के अन्य बुनकरों की तरह, मीशिंग समुदाय के लिए, अधिकांश बिजनेस बोहाग बिहू (जो इस साल 14 -20 अप्रैल को है) से पहले मार्च और अप्रैल के महीनों में होता है। लेकिन इस बार हालात अलग हैं। राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और व्यापार में नुकसान के स्पष्ट डर के कारण, महिला बुनकरों ने बुनाई सीमित करने के लिए अपने पर प्रतिबंध लगा लिया है।

शिवसागर के सहायक पर्यटन सूचना अधिकारी, माधब दास ने VillageSquare.in को बताया – “यह महामारी आदिवासियों सहित, गांवों में रहने वाले उन सभी लोगों के लिए एक चुनौती है और निराश करने वाली बात है, जो महीनों बिहू की तैयारी करते हैं और इंतज़ार करते हैं। यह पूरे राज्य में प्रत्येक जाति और जनजाति द्वारा मनाया जाने वाला हमारा मुख्य त्योहार है, और शिल्पकारों और महिलाओं के लिए एक अच्छा अवसर होता है।”

सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टैन्सिंग)

गाँव की एक और बुनकर, ज्योति, सामुदायिक बुनाई केंद्र अपने आसपास के सात खाली पड़े करघों के बीच में अकेली बैठी थी। हॉल में कुल करघा मशीनें हैं। कोरोना (COVID-19) के प्रकोप के बाद से सभी करघे शान्त हो गए हैं, क्योंकि महिलाओं ने घर पर बुनाई शुरू कर दी थी। वह अपने हरे रंग के धागे लेने आई थी, जो उसके घर पर ख़त्म हो गए थे।

सामुदायिक बुनाई केंद्र में खाली पड़े करघों के बीच में अकेली बैठी, ज्योति (छायाकार-जिज्ञासा मिश्रा)

ज्योति ने VillageSquare.in को बताया – “हम अब केवल स्वयं के लिए और अपने परिवार के सदस्यों के लिए बुनाई कर रहे हैं। हम घर पर ही अपने व्यक्तिगत करघे पर बुन रहे हैं। हमें नहीं पता कि हम कब अपने सामुदायिक बुनाई केंद्र पर जा पाएंगे और वहाँ बुनाई शुरू करेंगे।”

परिणीता ने कहा – ”हमें डिज़ाइन वाले मेखला चादर के एक सेट के 1,500 से 2,000 रुपये मिलते हैं, जबकि रेशम के मेखला के 3,000 रुपये में मिलते हैं। हमारे यहाँ मुगा रेशम की बुनाई नहीं होती, क्योंकि यह काफी महंगा है। मार्च और अप्रैल ऐसे महीने हैं, जिनका हमें इंतजार रहता है, लेकिन शायद इस बार भगवान ने कुछ और ही योजना बनाई है।”

प्रणीता ने VillageSquare.in को बताया – “हमने प्रधानमंत्री के निर्देशानुसार, बुनाई केंद्र बंद कर दिया है। हमारे लोगों का स्वास्थ्य पैसे से ज्यादा महत्वपूर्ण है।”

दुनिया भर में कोरोनो वायरस के कारण हालात बिगड़ने के साथ, लिगिरीबाड़ी के बुनाई केंद्र की मशीनों को अपनी महिला बुनकरों का इंतजार है, जो पहले समूहों में बुनाई के लिए इन्हें उपयोग करती थी, लेकिन अब खुद ही बुनाई करने के लिए मजबूर हो गई हैं।

जिज्ञासा मिश्रा राजस्थान और उत्तर प्रदेश में स्थित लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।