तिरूपुर में फंसे ‘चकमा’ लोगों में, निराशाजनक संभावनाओं को लेकर चिंता

and तिरूपुर, तमिलनाडु

बुने हुए वस्त्रों के उद्योग के पूरी तरह बंद हो जाने के कारण, चकमा आदिवासी, जो गरीबी से बचने के लिए पूर्वोत्तर राज्यों से तमिलनाडु चले गए थे, स्वयं को पहले जैसी चुनौतीपूर्ण स्थिति में पा रहे हैं

‘डॉलर टाउन ऑफ़ इंडिया’ कहे जाने वाला तिरूपुर, तमिलनाडु का प्रमुख वस्त्र उत्पादन-केंद्र है, जो भारत के बुने हुए सूती वस्त्रों के निर्यात में 90% से अधिक का योगदान देता है। तिरूपुर का वस्त्र उद्योग, देश के विभिन्न क्षेत्रों के लगभग 4 लाख मजदूरों को रोजगार देता है।

COVID-19 महामारी और उसके कारण हुए लॉकडाउन ने तिरूपुर वस्त्र उद्योग को बड़ी चोट पहुंचाई। अधिकांश कच्चा सामान का आयात चीन से होने और निर्यात पूरी तरह बंद हो जाने के कारण, तिरूपुर का व्यापार सामान्य नहीं रह गया।

भारत में, चकमा लोगों की अधिकतर आबादी मिजोरम, त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश में है। इन सभी राज्यों में अल्पसंख्यक होने के कारण उन्हें बहुत आर्थिक और राजनीतिक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।

उत्तर पूर्वी राज्यों के चकमा आदिवासी युवा, बड़ी संख्या में तिरूपुर जाते हैं। वे अपने कस्बे से 3,500 किलोमिटर दूर, बेहतर आजीविका की आशा में, तिरूपुर के लिए पलायन करते हैं। अचानक हुए लॉकडाउन ने उन्हें बहुत बड़ी मुश्किल में डाल दिया है।

तिरूपुर में चकमा-लोग

लगभग एक हजार चकमा प्रवासी मजदूर तिरूपुर में काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर अरुणाचल प्रदेश के हैं और कुछ मिजोरम के हैं। उनके अपने गृह राज्यों में आजीविका के विकल्पों की कमी, उन्हें कमाई के लिए दक्षिण भारत ले जाती है।

अरुणाचल प्रदेश के रॉय चकमा चार लोगों के अपने परिवार के लिए अकेले कमाने वाले व्यक्ति हैं| उन्हें गुजारा करना बेहद मुश्किल हो रहा है, क्योंकि उन्हें लॉकडाउन राहत के रूप में भोजन राशन नहीं मिला है। और वे अभी तक अपने हिस्से का 2,000 रुपये किराया भी नहीं चुका पाए हैं।

प्रवासी मजदूर सांझे आवास में उन स्थानों में रहते हैं, जिन्हें ‘कम्पाउंड कॉलोनी’ कहा जाता है। एक कमरे का किराया 2,000 से 2,500 रुपये तक रहता है। कॉलोनी को उसके कमरों की संख्या के अनुसार 50-कम्पाउंड और 30-कम्पाउंड कॉलोनी कहा जाता है, जिसमें साँझा टॉयलेट होता है।

तिरूपुर के वस्त्र निर्माण इकाइयों में काम करने वाले चकमा प्रवासी सांझे आवासों में रहते हैं (फोटो – उस्मा चकमा के सौजन्य से)

अक्सर प्रवासी आपस में भाई-बहन, दोस्त और रिश्तेदार होते हैं, जो पांच सदस्य मिलकर एक कमरे में रहते हैं। दूसरे भी आसपास के कंपाउंड में रहते हैं। जिन कंपनियों प्रवासी मजदूर काम करते हैं, वे अक्सर हॉस्टल और कमरे का किराया दे देती हैं। लेकिन लॉकडाउन के बाद, कंपनियों ने मजदूरों को अपना यह सहयोग जारी नहीं रखा।

जरूरतें पूरी न हो पाना 

अधिकांश चकमा प्रवासी 15 से 25 साल के युवा हैं और उनमें से कुछ अपने परिवार को साथ लाते हैं। युवा प्रवासियों में से अधिकतर लॉकडाउन से कुछ महीने पहले ही तिरूपुर पहुंचे थे। उनमें से कुछ ने हाल ही में, तिरूपुर में काम करने के लिए स्कूल छोड़ा था।

एक निर्यात इकाई में काम करने वाले 12 चकमाओं का एक समूह, दूरदराज़ के एक इलाके में रहता है और उन्हें निकटतम बाजार तक पहुंचने के लिए लगभग 6 किमी पैदल चलना पड़ता है। प्रवासियो में से एक, विजय चकमा ने VillageSquare.in को बताया – “स्थानीय ग्रामीणों ने सोचा कि हम चीनी हैं और हमें दूर भगा दिया। हम अकेले बाहर निकलने से डरते हैं। किसी से मदद मांगने में भाषा का न समझ पाना एक बड़ी समस्या है।”

उनमें से ज्यादातर के पास काम के लिए कोई औपचारिक कॉन्ट्रैक्ट नहीं हैं। जरूरी सामान के लिए नकद पैसा नहीं है, लेकिन फिर भी वे अपने घरों तक ही सीमित हो गए हैं। गरीब पारिवारिक पृष्ठभूमि से होने के कारण, पीछे रह रहे उनके परिवार भी उनकी जरूरतें पूरी नहीं कर सकते। वास्तविकता तो यह है, कि उनमें से अधिकांश के परिवार उन्हीं के द्वारा भेजे गए पैसे के भरोसे रहते हैं।

चुनौतीपूर्ण हालात

यदि लॉकडाउन आगे जारी रहा, तो वे किराए या भोजन के लिए भुगतान नहीं कर पाएंगे। इनमें से बहुत से प्रवासी मजदूर घर लौटने के लिए बेताब हैं, क्योंकि लॉकडाउन के कारण वे बेरोजगार हो गए हैं और जो भी थोड़ी-बहुत बचत उन्होंने की थी, वह खत्म हो गई है।

अपने गृहनगर में गरीबी से बचने के लिए पलायन करने वाले चकमा युवाओं के लिए, लॉकडाउन के दौरान वैसे ही हालात बन गए हैं (फोटो – उस्मा चकमा के सौजन्य से)

अरुणाचल प्रदेश में, जहाँ से तिरूपुर के अधिकांश प्रवासी आते हैं, चकमा समुदाय को कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। उनकी अल्पसंख्यक होने के कारण, मौजूदा हालात में उनके गृह राज्यों में उनकी स्थिति और भी अधिक जटिल और कमजोर हो गई है।

महिलाओं के लिए कठिनाई

तीस वर्षीय एकल माता, माला चकमा अपने परिवार की अकेली कमाने वाली सदस्य हैं, जिसमें उनकी बुजुर्ग माँ और उनकी बहन शामिल हैं। अपने मूल स्थान पर कमाई का कोई साधन नहीं होने के कारण, उन्हें अपनी 5 वर्षीय बेटी को पीछे छोड़कर, तिरूपुर में काम करने आना पड़ा।

कई साल पहले जब उनके पिता का देहांत हो गया, तो अपने परिवार के भरण पोषण के लिए उन्होंने तिरूपुर में आकर काम किया। वह एक सहायक के रूप में काम करती रही हैं| साप्ताहिक मजदूरी के अलावा ओवरटाइम शिफ्ट में काम करके, वह अरुणाचल प्रदेश में अपने परिवार की देखभाल कर रही हैं।

अरुणाचल प्रदेश के दियुन सर्कल से आने वाली, रीता चकमा (20) तिरूपुर की वस्त्र बनाने वाली इकाइयों में एक ‘पैकर’ (पैकिंग सम्बन्धी) के रूप में काम करती हैं। अपने परिवार की आर्थिक कठिनाइयों के कारण, उसने स्कूल छोड़ कर काम करना शुरू कर दिया, ताकि अपने वृद्ध माता-पिता की देखभाल कर सके। लॉकडाउन का मतलब था कि उसके पास कोई नहीं था, जिससे वह आशा कर सके।

अपर्याप्त राहत

तमिलनाडु में राहत के प्रयास अच्छे रहे हैं। तिरूपुर शहर में भी एक राहत शिविर है। लेकिन यह काफी नहीं है, और सख्त लॉकडाउन हालात को देखते हुए, इन प्रवासियों के लिए अपने घरों से निकल कर शहर तक पहुंचना लगभग असंभव है।

‘इंडिया फेलो COVID-19 कैश रिलीफ’ के माध्यम से उन्हें धन भेजने के उद्देश्य से जब फोन से संपर्क किया गया, तो प्रवासी लोग नाराज हो गए। क्योंकि एक महीने पहले, निजी संस्थाओं ने इसी तरह की जानकारी ली थी, लेकिन उन्हें अभी तक कोई राहत राशि नहीं मिली थी।

इंडिया फेलो COVID-19 कैश रिलीफ पहल के अंतर्गत सबसे कमजोर 200 लोगों  की  नकद राशि ट्रांसफर से मदद की गई है। फिर भी, प्रशासनिक सहयोग की भी जरूरत है। बिना पर्याप्त मदद के, हफ्तों तक प्रतीक्षा कर चुके, चकमा युवाओं को निराशाजनक संभावनाएं प्रतीत हो रही हैं।

(निजता का ध्यान रखते हुए नाम बदल दिए गए हैं)

उस्मा चकमा पूर्वोत्तर की मूल जनजातियों के अधिकारों की पैरवी करती हैं। वह दिल्ली में रहती हैं और इंडिया फेलो की अलुम्नस हैं | अनुपमा पैन इंडिया फेलो कार्यक्रम के साथ काम करती हैं | विचार व्यक्तिगत हैं।