सामुदायिक कॉलेज, आदिवासी महिलाओं को व्यावसायिक शिक्षा पाने में मदद करता है

नीलगिरी, तमिलनाडु

दूरदराज के गांवों की युवा आदिवासी महिलाएं, एक नजदीकी कॉलेज से अपने समय-सुविधानुसार, अपनी आजीविका के लिए व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त कर रही हैं

कोटागिरी,  तमिलनाडु के नीलगिरी जिले में हरीभरी पहाड़ियों की गोद में बसा, एक प्राचीन स्थान है। ये पहाड़ियां, इरुला, कुरुम्बा और टोडा जैसे कई आदिवासी समुदायों की घर हैं, जो इन जंगलों में रहते हैं।

इन गाँवों की ज्यादातर आदिवासी महिलाएँ अपने घरों तक ही सीमित हैं। और जो घर से बाहर निकलती हैं, वे चाय बागानों में काम करती हैं या दिहाड़ी मजदूर हैं।

इन पहाड़ियों में एक सामुदायिक कॉलेज है, जो बिना किसी फीस के और बिना मैदानी इलाकों में जाने की बंदिश के, युवा महिलाओं को रोजगार के आश्वासन के साथ, व्यावसायिक शिक्षा पाने में मदद करता है।

सामुदायिक कॉलेज

कुछ साल पहले, कोयंबटूर स्थित भारतियार विश्वविद्यालय से संबद्ध, एक गैर-लाभकारी संगठन, नीलगिरी आदिवासी कल्याण संघ (NAWA) ने, कोटागिरी में एक सामुदायिक कॉलेज शुरू किया। कॉलेज का उद्देश्य, आदिवासी युवाओं के लिए शिक्षा और रोजगार के अवसर खोलना था।

नावा सामुदायिक कॉलेज के प्रिंसिपल, के. वडिवेलु ने बताया – “यदि आदिवासी युवा शिक्षा पाने के लिए अपने क्षेत्र से बाहर निकलना भी चाहें, तो भी भारी खर्च के कारण वे शिक्षा पाने में असमर्थ हैं। मैदानी इलाकों में जाकर शिक्षा पाने में प्रति वर्ष कम से कम 65000 रुपये का खर्च आता है। फिर, कक्षाएं भी सोमवार से शनिवार तक चलती हैं, जो उनके लिए बहुत सुविधाजनक नहीं है।”

डिस्टेंस एजुकेशन से डिग्री पाने का विकल्प है, लेकिन वहाँ भी एक अड़चन है। वडिवेलु के अनुसार -“आदिवासी छात्रों के लिए, व्यक्तिगत मार्गदर्शन के बिना उन सिद्धांतों को समझना मुश्किल है। वे डिस्टेंस एजुकेशन में दाखिल हो भी जाएं, तो भी वे पास नहीं हो सकते। एकमात्र विकल्प सामुदायिक कॉलेज है।”

छात्रों के अनुकूल कॉलेज

एक सामुदायिक कॉलेज शुरू करने में कई तरह की चुनौतियाँ थीं। यह एक आम कॉलेज की तरह काम नहीं करता। प्रशासन को छात्रों की सुविधा के अनुसार कॉलेज का समय निर्धारित करना था। यदि उन्हें शाम के समय कक्षाएं चाहियें थी, तो कॉलेज शाम को कक्षाएं आयोजित करने के लिए सहमत हो गया।

छात्र हर रोज कॉलेज नहीं आ सकते। वे अपनी आजीविका के लिए मजदूरी करने जाते हैं और कॉलेज प्रशासन उसमें बाधा नहीं डालना चाहता था। यदि वे रविवार को कॉलेज आ सकते थे, तो प्रशासन रविवार को कक्षाएं आयोजित करने के लिए तैयार था।

नावा सामुदायिक कॉलेज उन छात्रों को भी दाखिला देता है, जिन्होंने शिक्षा बीच में छोड़ रखी थी। वडिवेलु ने VillageSquare.in को बताया – “मैं उन छात्रों को एक मौका देना चाहता था, जो योग्यता प्राप्त करने के लिए उत्सुक हों, जो पढाई और काम करना चाहते हों।”

आदिवासी महिलाएं शर्मीली होती हैं और बोलती नहीं हैं| उन्हें खुलने और बात करने में बहुत समय लगता है।वडिवेलु के अनुसार – “उन्हें निश्चिन्त होने में मदद करने के लिए, प्राध्यापक को उन्हें कॉलेज के माहौल में लाना और उनके साथ समय बिताना होता है।

आज महिलाओं का एक समूह, हरे-भरे पहाड़ों की आगोश में लगी कक्षा में बैठता है। वे आपस में खुसर-पुसर बात करती हैं। कक्षा में इंसानों से ज्यादा पक्षियों की आवाजें सुनाई पड़ती हैं। सामुदायिक कॉलेज ने इन युवा महिलाओं को बिना किसी खर्च के और उसी माहौल में शिक्षा पाने में मदद की है, जिससे वे परिचित हैं।

चुनौतियों से जूझते हुए शिक्षा

आदिवासी समुदायों के लिए शुरू में तीन डिप्लोमा पाठ्यक्रम शुरू किए गए – स्वास्थ्य-सहायता में एक वर्षीय डिप्लोमा कोर्स, प्राकृतिक चिकित्सा में दूसरा, और पारंपरिक चिकित्सा में तीसरा डिप्लोमा कोर्स। भविष्य में सामुदायिक कॉलेज की, जनजातीय-अध्ययन में एक पाठ्यक्रम शुरू करने की योजना है। अभी तक, केवल महिलाओं ने ही दाखिला लिया है, हालांकि कोर्स पुरुषों के लिए भी खुले हैं।

शिक्षा से जुड़ाव ने आमतौर पर चुपचाप रहने वाली युवा आदिवासी महिलाओं में विश्वास और दृढ़ संकल्प पैदा किया है (छायाकार – शारदा बालासुब्रमण्यन)

इसके अतिरिक्त दूसरी चुनौतियां भी हैं। चिकित्सा विज्ञान के माइक्रोबायोलॉजी शब्द के अर्थ का कोई तमिल शब्द नहीं है। कई अंग्रेजी शब्दों का तमिल में अनुवाद किया गया है, ताकि छात्र आसानी से उनका अर्थ समझ सकें। अपनी मेडिकल-प्रैक्टिकल परीक्षा में, छात्रों को एक और चुनौती का सामना करना पड़ता है।

वडिवेलु बताते हैं – “जब छात्र कोझीकरई गांव के आदिवासी अस्पताल में अपनी प्रैक्टिकल की परीक्षा के लिए जाते हैं, तो उनके रास्ते में हाथी आ जाते हैं। ऐसी परिस्थितियों में उन्हें पढ़ाई करनी पड़ रही है।”

हालांकि अब तक उन्हें अपनी परीक्षा अंग्रेजी में देनी पड़ रही थी, लेकिन प्रिंसिपल के नेतृत्व में कॉलेज प्रशासन ने इस मुद्दे को विश्वविद्यालय के सामने उठाया है। इस साल, इन युवा महिलाओं ने तमिल में परीक्षा दी।

महिलाओं का दृढ़ निश्चय

कूवाकरई गाँव की 21 वर्षीय, इरुला आदिवासी लड़की, बालमणि के लिए कॉलेज आना एक चुनौती था। लेकिन अपने परिवार के सहयोग के चलते वह ऐसा करने को तैयार थी। उसे पहाड़ी से नीचे उतर कर मुख्य सड़क पर आना पड़ता है, जहां से बस लेकर उसे समय पर अपनी कक्षाओं के लिए कोटागिरी पहुँचना पड़ता है।

बालमणि ने बताया – “जब मेरी दादी बीमार हुई, तो मैं उसे अस्पताल ले गई थी। वहाँ मुझे कॉलेज के प्रिंसिपल मिले, जिन्होंने मुझे इस कोर्स के बारे में बताया। शुरू में मुझे लगा, कि इसमें जोखिम है, लेकिन मुझे विश्वास था कि मैं पढ़ाई कर सकती हूं।”

उन्होंने परीक्षा की तैयारी की और घर का काम भी किया। उसके चार भाई-बहन हैं। बालमणि ने VillageSquare.in को बताया – “मैं सबसे बड़ी हूँ, और मुझ पर जिम्मेदारियां हैं। मैं नौकरी करना चाहती हूं, और अपने परिवार को सहारा देना चाहती हूं।” उन्होंने स्वास्थ्य-सहायता में अपना कोर्स पूरा कर लिया है, और अब उनका प्राकृतिक-चिकित्सा में कोर्स करने का लक्ष्य है।

सामाजिक परिवर्तन

बालमणि की तरह, उनके स्कूल की सहपाठी आर. सुभाषिनी ने भी स्वास्थ्य-सहायता में कोर्स किया। वह बताती हैं – “हम बहुत समय से घर तक ही सीमित थे। हमें उसकी आदत हो गई थी। हम कभी ज्यादा बात नहीं करते थे, लेकिन अब बाहर आने के बाद, एक बदलाव आया है। हममें आत्म-विश्वास है और हम लोगों से खुलकर बात कर सकते हैं।”

सुंडापट्टी गांव की 21 वर्षीय नादिया, चाय की दुकान पर काम करने वाले एक मजदूर की बेटी है। नादिया ने VillageSquare.in को बताया – “जब मेरे आस-पास के लोगों ने मुझे इस कोर्स में दाखिला लेने के लिए कहा, तो मेरा पहला विचार स्वास्थ्य के बारे में समझने का हुआ। अब मैं समझती हूं, कि स्वास्थ्य-सहायता में कोर्स करने का मतलब है, कि मैं लोगों की भलाई के लिए काम कर सकती हूं।”

दोहरे लाभ की संभावना

वडिवेलु के अनुसार, पारंपरिक चिकित्सा कोर्स महत्वपूर्ण है। आदिवासियों के पास जानकारी का एक भंडार और खजाना है, जो उन्होंने सदियों से अपने मूल ज्ञान के माध्यम से जुटाया है। इनका दस्तावेजीकरण होना था।

आदिवासी महिलाओं के लिए शिक्षित होना आसान नहीं था। उस पर, चिकित्सा में शिक्षा प्राप्त करना और भी मुश्किल था, क्योंकि आदिवासी लोग दवा लेना पसंद नहीं करते। वे आमतौर पर स्वयं को बाहरी उपचार के द्वारा ही ठीक कर लेते हैं।

कई भीतरी गांवों में, आदिवासियों को उन जड़ी-बूटियों का ज्ञान है, जो बहुत असरदार हैं। इन दवाओं का कोई साइड इफेक्ट नहीं है। आदिवासी सिर्फ गंध से जड़ी-बूटियों को पहचान लेते हैं, और प्राकृतिक रूप से बीमारियों का इलाज देते हैं। इस प्रथा को नट्टू वैथियम (पारंपरिक चिकित्सा पद्धति) के रूप में जाना जाता है।

सिरदर्द जैसी साधारण बीमारी के लिए, आदिवासी समुदायों के पास कई उपाय हैं। वे पत्तियों के बारे में जानते हैं, हालांकि उन्हें उनका नाम नहीं पता। इन जड़ी-बूटियों कोई एक सामान्य नाम होना चाहिए। वडिवेलु के अनुसार – “हमें इनके अध्ययन, दस्तावेजीकरण और आवश्यक लाइसेंस लेकर दवाएं तैयार करने की आवश्यकता है। इसका लाभ समुदाय तक पहुंच सकता है।

महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर

स्वास्थ्य-सहायता कोर्स में छात्रों को एनाटॉमी (शारीरिक रचना विज्ञान), फिजियोलॉजी (शारीरिक क्रिया विज्ञान), माइक्रोबायोलॉजी (सूक्ष्म जीव विज्ञान) सिखाया जाता है। वडिवेलु कहते हैं – “छात्र न केवल एनाटॉमी, फिजियोलॉजी, माइक्रोबायोलॉजी सीख रहे हैं, बल्कि अस्पताल प्रबंधन, अस्पताल प्रशासन, स्वास्थ्य सेवाओं और विभिन्न हालात में रोगियों को संभालना भी सीख रहे हैं।

सामुदायिक कॉलेज आदिवासी युवाओं को ऐसे वातावरण में व्यावसायिक कोर्स प्रदान करता है, जिससे वे परिचित हैं (छायाकार – शारदा बालासुब्रमण्यन)

कॉलेज प्रशासन को छात्रों की आजीविका के लिए कुछ करने की जरूरत महसूस होती है। इस कोर्स के बाद वे करीब 5,000 रुपये महीना कमा सकते हैं। इस सामुदायिक कॉलेज का असली उद्देश्य उन्हें रोजगार के अवसर प्रदान करना है। यदि वे पास हो जाते हैं, तो उन्हें NAWA द्वारा चलाए जा रहे आदिवासी अस्पताल में नौकरी मिल जाएगी।

इस एक साल के डिप्लोमा प्रमाण पत्र को लेकर, छात्र सरकारी एम्प्लॉयमेंट-एक्सचेंज में नाम दाखिल करा सकते हैं और प्राइवेट और सरकारी क्षेत्र में प्रवेश कर सकते हैं। वडिवेलु के अनुसार – “स्वास्थ्य-सहायता में एक वर्षीय डिप्लोमा के साथ, वे नर्सों के सहायक बन सकते हैं। आदिवासी समुदाय के लिए 5,000 रुपये महिला एक ठीक ठाक आय है।”

प्राकृतिक चिकित्सा सिर्फ भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में लोकप्रिय है। योग, ध्यान, चिकित्सा, भाप-स्नान (स्टीम-बाथ), मिट्टी-स्नान, आदि प्राकृतिक चिकित्सा की तकनीक हैं, और ये यहाँ पढ़ाई जाती हैं। वडिवेलु कहते हैं – “भारत सरकार आने वाले समय में बहुत से थेरेपिस्ट (चिकित्सक) लेने जा रही है। ऐसे चिकित्सकों को औसतन 16,000 रुपये महीना मिलेंगे। हम इस मोर्चे पर और अधिक मानव संसाधन तैयार करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।”

तीन साल पहले, पहले बैच में नौ छात्र थे। दूसरे बैच में उनकी संख्या 25 हुई, और पिछले बैच में, यह संख्या बढ़कर 45 पर पहुँच गई, और यह अभी बढ़ ही रही है। कॉलेज प्रशासन का मानना ​​है कि अगले बैच में 100 छात्र होंगे, क्योंकि इन कोर्सों से न केवल स्वयं उन्हें, बल्कि उनके समुदाय को भी फायदा होता है।

शारदा बालासुब्रमण्यन, कोयंबटूर स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।