कृषि के टिकाऊ न रहने के कारण, ग्रामीण काम के लिए आसपास के शहरों में चले गए। मंजूरशुदा मनरेगा कार्यों के लिए सामुदायिक योजना के माध्यम से स्थानीय आजीविका सुनिश्चित हुई है और प्रवास रुका है
मसूलपानी पंचायत के दोदरापहाड़ गांव की
लता कोर्राम ने बताया – “हम आए दिन देश के अलग-अलग हिस्सों से, प्रवासियों के संघर्ष के बारे में सुनते हैं, और यह
बहुत ही निराशाजनक बात है। मेरे परिवार को और मुझे इस बात से राहत मिली है,
कि आज हमें पलायन करने की जरूरत नहीं है, क्योंकि
हमारे गाँव में ही काम मिल रहा है। अब कोई भी काम के लिए पलायन नहीं कर रहा है।”
मसूलपानी, छत्तीसगढ़
के कांकेर जिले के नरहरपुर ब्लॉक में एक छोटी पंचायत है, जिसमें
लगभग 300 रहते हैं। गांव के 99%
परिवारों के पास खुद की ज़मीन होने के बावजूद, वे काम के लिए
दूसरे शहरों में जाते थे। उनके खेत से उन्हें इतनी भी पैदावार नहीं मिलती थी,
कि अगली बुवाई के लिए सामग्री खरीदने तक की आर्थिक जरूरतें पूरी
हो सकें, इसलिए उन्हें और रोजगार की जरूरत होती थी।
नरहरपुर ब्लॉक, विशेष
रूप से मूसलपानी पंचायत में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना
(मनरेगा) लागू होने से किसानों का पलायन कम हुआ है। पिछले सात सालों में, मनरेगा के कारण मसूलपानी गांव और ग्रामवासियों का कायापलट हुआ है।
ग्रामवासियों राहत महसूस कर रहे हैं, कि उनके पास स्थानीय
आजीविका है, विशेषतौर पर इस महामारी के समय।
गैर-फायदेमंद खेती
नरहरपुर ब्लॉक में, कृषि आजीविका का मुख्य स्रोत है।
कृषक समुदाय के लिए बारिश की अनिश्चितता चिंता का मूख्य कारण है, जिसकी वजह से खरीफ की फसल को नुकसान पहुंचता है और किसानों के सामने
परेशानी खड़ी हो जाती है। भूजल के स्तर के गिरने के साथ, सामर्थ्य
और सामाजिक एवं पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दों के कारण, बोरिंग-वैल
और बड़े बांधों के माध्यम से ‘हर खेत को पानी’ या ‘प्रति बूंद-ज्यादा फसल’ प्राप्त
करना संभव नहीं रह जाता।
ऐसी परिस्थितियों में, भोजन को
लेकर असुरक्षा और स्थानीय रोजगार की कमी के कारण, एक दशक
पहले लोगों को पलायन करना पड़ा था। मसूलपानी जैसी पंचायत में, जहाँ अधिकांश आबादी आदिवासियों की है, जमीन होने के
बावजूद, 30% से अधिक परिवार कुरूद, भटगांव,
धमतरी जैसे स्थानों पर, बड़े किसानों के लिए
खेत मजदूर के रूप में काम करने के लिए, छह महीने तक प्रवास
करते थे।
ये स्थान, जहां
वे प्रवास करते थे, मसूलपानी से 50 से 80
किमी दूर हैं। सड़क संपर्क के अभाव और यात्रा खर्च ज्यादा होने के
कारण, वे रोज आ जा नहीं सकते थे। पुरुष और महिलाएं चार से छह
महीने तक प्रवास के स्थान पर जाकर रहते थे। जो लोग गाँव में ही रुक जाते थे,
वे खेतीबाड़ी का ध्यान रखते थे।
रोजगार योजना
लागू होने के समय से ही मनरेगा, देश के सबसे बड़े रोजगार सृजन
कार्यक्रमों में से एक है। कार्यक्रम को ग्रामीण लोगों के पलायन को रोकने और ग्रामीण
क्षेत्रों में संपत्ति के सृजन करने के उद्देश्य से बनाया गया है।
मनरेगा कार्यक्रम, COVID-19 महामारी के कारण वर्तमान लॉकडाउन के समय में, रोजगार
प्रदान करने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के लिए, देश भर में सबसे बड़ी आशा का श्रोत है। केंद्र और राज्य सरकारें मनरेगा पर
जोर दे रही हैं और जल्दी भुगतान, काम की मांग बढ़ाने, आदि के लिए कदम उठा रही हैं।
संकट के इस समय में, वित्त मंत्री द्वारा 40,000
करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि का आवंटन बहुत ही आश्वस्त करने वाला
है। पूरे देश में मनरेगा का काम जोरों से चल रहा है। महामारी के हालात में मनरेगा
के माध्यम से रोजगार प्रदान करना, एक तात्कालिक और अल्पकालिक
राहत है।
विकेंद्रीकृत योजना
मनरेगा के अंतर्गत रोजगार ग्रामीण आय के
लिए बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह एक अल्पकालिक
उपाय है और टिकाऊ नहीं है। पिछले तीन वर्षों में, प्रोफेशनल
असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (प्रदान-PRADAN) ने मनरेगा के
बारे में स्थानीय प्रशासन, समुदाय और अन्य हितधारकों के
दृष्टिकोण को बदलने के लिए बहुत प्रयास किए हैं।
मनरेगा को केवल एक रोजगार योजना के
रूप में देखने की बजाय, लोगों को इसे टिकाऊ ग्रामीण आजीविका-सृजन और आगे
बढ़ाने वाले अवसर के रूप में देखना होगा। छत्तीसगढ़ में, समुदाय-आधारित
संगठनों, पंचायती राज संस्थाओं और प्रशासकों के साथ तालमेल
करते हुए, मनरेगा के माध्यम से, दीर्घकालिक
लक्ष्यों को ध्यान में रखकर विकेंद्रीकृत योजना और आजीविका सृजन किया गया है।
आमतौर पर, लोग
व्यक्तिगत स्तर पर पंचायत से संपर्क करके अपनी योजना मंजूर करा लेते हैं। इस
प्रक्रिया में कमजोर लोग अक्सर छूट जाते हैं। लेकिन नरहरपुर ब्लॉक में, उपलब्ध संसाधनों का मूल्यांकन करके, सभी
ग्रामवासियों को योजना में शामिल किया गया।
इस प्रकार की विकेंद्रीकृत
समुदाय-आधारित योजना, COVID-19 जैसे अप्रत्याशित संकट के समय और बाद में,
स्वयं के संसाधनों का उपयोग करते हुए, ग्रामीण
अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने और किसानों को आत्म-निर्भर बनाने की दिशा में एक कदम
है। समुदाय आधारित योजना, लोगों की जागरूकता एवं स्वामित्व,
और प्रशासन की इच्छा के कारण पलायन में महत्वपूर्ण कमी आई है।
पलायन पर अंकुश
मसूलपानी वह क्षेत्र है, जहां मनरेगा के लिए बहुत सम्भावना
थी। किसानों को विश्वास नहीं था, कि जल संग्रहण और
पुनर्भरण-संरचना से कृषि एक टिकाऊ आजीविका बन सकती है। लोग अपनी जमीन पर ऐसे ढांचे
बनाने से हिचकिचा रहे थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह भूमि
के एक भाग का नुकसानमात्र है।
लेकिन स्थानीय लोगों के साथ निरंतर
बातचीत,
अन्य ब्लॉकों की प्रदर्शन यात्राओं और सफलता की कहानियों के माध्यम
से उनकी धारणा बदल गई। स्थानीय प्रशासन ने सामुदायिक स्तर के कार्यों, जैसे सामुदायिक तालाब, सड़क, आदि
के प्रति प्रोत्साहित किया। मसूलपानी में, मनरेगा के अंतर्गत,
पिछले तीन वर्षों में, लगभग 60 खेत-तालाब और कुओं का निर्माण किया गया।
इन वर्षों में माहौल बदल गया है और
स्थानीय अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है। मनरेगा के अंतर्गत मजदूरी से होने वाली
अतिरिक्त आमदनी के कारण, लोग अपने खेतों में फसल उगाने में सक्षम हुए हैं।
इससे प्राप्त धन से उन्हें खेती सम्बन्धी सामग्री खरीदने में सहायता मिलती है,
जिसके परिणामस्वरूप उत्पादन में वृद्धि होती है।
नरहरपुर ब्लॉक, जहां
22,000 से अधिक परिवार रहते हैं, से
पलायन करने वाले युवाओं की संख्या अब 1000 से भी कम है।
मसूलपानी पंचायत के 1% से भी कम निवासी पलायन करते हैं। वे
अपनी दूसरी आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए पलायन करते हैं, न
कि आजीविका की कमी के कारण।
प्राकृतिक संसाधन
मसूलपानी गांव के ग्राम-संगठन की अध्यक्ष, कुंती कल्लो ने बताया – “मनरेगा और प्रदान स्टाफ ने योजना बनाने के लिए, हमारे
गाँव के प्रत्येक खेत का दौरा किया। हम कई प्रकार के संरचनाओं की योजना बना सकते
हैं और उन्हें मंजूर करा सकते हैं।” साथ चल रहे कर्मचारियों
ने समुदाय को उनके भूमि, पानी, मजदूरी,
पशुधन और जंगलों के संसाधनों और प्रत्येक की क्षमता को एक अलग स्तर
पर समझने में मदद की।
एक व्यापक योजना तैयार करने के लिए, जल-बजट
और भूमि-उपयोग को ध्यान में रखते हुए, प्रत्येक गाँव में
भागीदारीपूर्ण योजना पर विचार-विमर्श किया गया। जल भंडारण, भंडारण
क्षेत्र और इस तरह की जानकारी के लिए भौगोलिक सूचना प्रणाली (जीआईएस) आधारित
उपकरणों का उपयोग किया गया।
आज के हालात में, मनरेगा के अंतर्गत
निजी भूमि पर, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन कार्य, सबसे उपयुक्त और जलवायु-अनुकूल विकल्प साबित हो रहे हैं। खेत-तालाब सूखे
समय में, सुरक्षात्मक सिंचाई के रूप में पानी का उपयोग करने
में किसानों की मदद करते हैं। धान का औसत उत्पादन 2 टन से
बढ़कर 3 टन प्रति हेक्टेयर हो गया है।
लॉकडाउन के इस समय में, किसान
हालांकि कृषि सम्बन्धी सामग्री की उपलब्धता के बारे में आशंकित हैं, किन्तु वे जानते हैं कि अब पानी उपलब्ध होगा, और वे
बचाए हुए बीज और जैविक पद्यति से काम चला लेंगे।
मसूलपानी में ही नहीं, बल्कि
पूरे नरहरपुर ब्लॉक में, पिछले तीन वर्षों में 2,200 खेत-तालाब बनाए गए हैं। ब्लॉक भर में जमीन समतल करने और खेत की मेंढ़बंदी
सम्बन्धी कार्यों के माध्यम से, 1,000 से अधिक परिवारों को
लाभ पहुंचा है। खेत की मेंढ़बंदी से नमी को रोके रखने और पानी के बह जाने से रोकने
में मदद मिली है|
खेत-तालाबों में मछली पालन
मछली पालन ग्रामीणों के लिए एक नई और
अतिरिक्त आजीविका है। पिछले साल मसुलपानी में, 30 परिवारों ने अपने उन निजी खेत-तालाबों में मछली पालन
किया, जहां आठ महीने से अधिक समय तक पानी रहता है। इससे
प्रत्येक परिवार को सालाना औसतन 15,000 रूपए की अतिरिक्त
आमदनी हुई।
मसूलपानी के ध्रुव सरोज ने बताया – “लॉकडाउन के दौरान, जब बाजार बंद होते हैं, और हमारे पास सब्जियां नहीं होती हैं, तो हम मछली
खाते हैं। जो मछली पालन करते हैं, वे अन्य परिवारों को भी
आपूर्ति कर रहे हैं। लॉकडाउन के दौरान मछली की खपत बढ़ गई है, क्योंकि यह आसानी से उपलब्ध है।”
स्थानीय रोजगार
पिछले वित्तीय वर्ष में, 43% परिवारों को 100 दिनों से अधिक काम मिला। कुल किए गए कार्यों का, लगभग
96% प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के अंतर्गत हुआ। मसूलपानी
पंचायत में पिछले तीन वर्षों में औसतन 86.84 दिन मजदूरी मिली,
जबकि नरहरपुर ब्लॉक में यह 76.86 दिन और राज्य
भर में 54.21 दिन रही। इससे पंचायत में 50 लाख रुपये की संपत्ति का सृजन हुआ।
संकट के इस कठिन समय में, पंचायत
के पास काफ़ी कामों के लिए मंजूरी है, जिससे पंचायत में हर एक
मजदूर को रोजगार प्रदान किया जा सकता है। कुंती कल्लो के अनुसार – “लॉकडाउन के पिछले दो महीनों में, हमारे गाँव में
हमारे पास काफी काम था। मैं अभी तक 42 दिनों का काम कर चुकी
हूँ।”
नरहरपुर ब्लॉक का मजदूरी-बजट पिछले
तीन वर्षों में बढ़कर 88% हो गया है; यह 2016-17
में 15.9 करोड़ रुपये की तुलना में 2019-20
में 30 करोड़ रुपये है। यह उन सभी लोगों को
काम प्रदान करने के लिए काफी है, जिन्हें रोजगार की जरूरत
है। पिछले साल, 6,376 परिवारों, यानी 32%
परिवारों, को 100 से
अधिक दिनों का काम मिला।
भविष्य की योजना
एक विशाल वाटरशेड परियोजना के अंतर्गत, अगले तीन से चार वर्षों के लिए,
मसूलपानी पंचायत में, मिट्टी और जल संरक्षण की
318 मूल-स्थान पर ढांचे बनाने सम्बन्धी योजनाएं बनाई गई हैं|
ये एकल महिला, बुजुर्ग और भूमिहीन लोगों के
लिए मुर्गी पालन और पशु पालन जैसी आय सृजन योजनाओं के अतिरिक्त हैं। इस वाटरशेड
परियोजना के अंतर्गत, नरहरपुर ब्लॉक की 45 पंचायतों में, मिट्टी और जल संरक्षण की 6,172
मूल-स्थान पर ढांचे बनाने की योजना बनाई गई है।
मसूलपानी पंचायत से होकर बहने वाले ‘जुर्रा
नाला’ का कायापलट करने की दिशा में हितधारक काम कर रहे हैं।
इसके अलावा, जल निकासी को दुरुस्त करने के उपायों पर योजना
बनाई गई है, ताकि मिट्टी के कटाव और गाद के जमाव को रोका जा
सके और भूजल पुनर्भरण में मदद मिले।
मसूलपानी पंचायत के पूर्व ग्राम प्रधान, गंगाराम
कोडोपी के अनुसार – “मनरेगा से लोग अपने गांव का
कायापलट कर सकते हैं। यह आज के लिए मजदूरी और कल के लिए सहारा देता है। यह लोगों
की आजीविका को मजबूत कर सकता है और आगामी पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित कर सकता है।”
COVID-19 महामारी का ग्रामीण आजीविकाओं पर कुछ हद तक
प्रभाव पड़ेगा, लेकिन ग्रामवासियों को भरोसा है, कि उन्हें भूखा नहीं रहना पड़ेगा। यह अनुभव दर्शाता है कि हमें मनरेगा को
मजदूरी से आगे भी देखना होगा और इसे विभिन्न कृषि सम्बन्धी
गतिविधियों के माध्यम से ग्रामीण अर्थव्यवस्था की वृद्धि से जोड़ना होगा।
मनरेगा सम्बन्धी सामूहिक
योजना-निर्माण और जागरूकता के परिणामस्वरूप, आज सभी 45 पंचायतों में
पर्याप्त मंजूरशुदा कार्य हैं। प्रशासनिक इच्छाशक्ति और सामुदायिक स्वामित्व के
माध्यम से मनरेगा की क्षमता का ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका प्रदान करने के लिए,
खासतौर पर वर्तमान महामारी जैसे संकट के समय, दोहन
किया जा सकता है।
आशुतोष नंदा
‘प्रदान’ की नरहरपुर टीम के समन्वयक हैं।
उन्होंने ग्रामीण प्रबंधन में एमबीए किया है। मोहिनी साहा एक डेवलपमेंट प्रोफेशनल
हैं और प्रदान की नरहरपुर टीम के साथ काम करती हैं। वह विकास कार्य प्रबंधन में
विशेषज्ञता-प्राप्त हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए, तमिलनाडु के शिक्षित युवाओं ने अपनी पैतृक भूमि का आधुनिकीकरण करके और इज़राइली कृषि तकनीक का उपयोग करके कृषि उत्पादन को कई गुना बढ़ा दिया है।
पोषण सखी या पोषण मित्र के रूप में प्रशिक्षित महिलाएं ग्रामीण महिलाओं, विशेषकर गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पौष्टिक भोजन खाने और एनीमिया और कम वजन वाले प्रसव पर काबू पाने के लिए सलाह और मदद करती हैं।
ओडिशा में, जहां बड़ी संख्या में ग्रामीण घरों में नहाने के लिए बंद जगह की कमी है, बाथरूम के निर्माण और पाइप से पानी की आपूर्ति से महिलाओं को खुले में नहाने से बचने में मदद मिलती है।