मचान बनाकर मिश्रित फसल के द्वारा बढ़ी किसानों की आय

सूरजपुर, छत्तीसगढ़

मचान पर बेल-दार पौधे और उसके नीचे छाया में उगने वाले पौधे उगाकर, छोटे किसान उपलब्ध भूभाग का कुशलतापूर्वक उपयोग करते हैं। अलग अलग समय अवधि में तैयार होने वाली फसलों के मिश्रण से जोखिम कम होता है और कृषि आय में वृद्धि होती है

हालाँकि छोटे किसान भारत के किसानों का 80% हैं, फिर भी संसाधनों की कमी झेलते हैं और अक्सर कमजोर होते हैं। छत्तीसगढ़ के सूरजपुर जिले के प्रतापपुर प्रशासनिक ब्लॉक के किसानों ने, कृषि से होने वाली आय बढ़ाने के लिए, एकाधिक फसल उगाने के लिए, मचान (ट्रेली) का निर्माण कर रहे हैं।

चंदोरा गाँव के एक छोटे किसान, रोपन पैकरा, जो वर्षों से पारंपरिक रूप से सब्जियों की खेती कर रहे हैं, एक मचान का निर्माण कर रहे हैं। रोपन पैकरा की तरह, प्रतापपुर में कुछ दूसरे किसान भी मचान का निर्माण कर रहे हैं।

पैकरा ने VillageSquare.in को बताया – “मैं 30 डेसीमल (13,068 वर्ग फुट) भूमि में मचान बना रहा हूं। इससे यह सुनिश्चित हो पाएगा कि मैं एक के बाद एक चार या पांच अलग-अलग प्रकार की सब्जियां उगा सकूं। पहले मैं मुख्य रूप से आलू और बैंगन उगाता था।”

सूरजपुर की मायापुर पंचायत के मायापुर-1 गाँव की महिला किसान, सोनमती पैकरा ने कहा कि उनके गाँव में छह लोगों ने यह काम शुरू किया है। क्योंकि ट्रेली पद्धति के द्वारा किसान, छोटे भूखंडों में भी बेल और जमीन पर उगने वाली कई तरह की सब्जियां साथ-साथ उगा पाते हैं, इसलिए उन्होंने अपनी आय बढ़ाने के लिए इस प्रणाली को अपनाया है।

पुरानी पद्धतियों को पुनर्जीवित करना

टमाटर और पांच अन्य प्रकार की फसलें उगाने के लिए, सोनमती पैकरा ने 12 डेसीमल (5,227 वर्ग फुट) भूमि में ट्रेली का ढांचा बनाया है। उन्होंने बताया कि उनके पिता, सुखलाल पैकरा, मानसून के दौरान मचान में तुरई उगाते थे।

छत्तीसगढ़ स्थित, गैर-लाभकारी संस्था, संगता सहभागी ग्रामीण विकास संस्थान समिति (SSGVSS) के सदस्य, जिन्होंने सुखलाल पैकरा की मचान प्रणाली और इसके फायदों को देखा था, अब किसानों के बीच इसे बढ़ावा दे रहे हैं।

ट्रेली ढांचा आसानी से उपलब्ध बेल, स्थानीय लकड़ी और बांस के द्वारा बनाया जाता है। आम तौर पर पांच फीट लंबे बांस का उपयोग किया जाता है, हालांकि किसान तारों के साथ भी मचान बना सकते हैं। ट्रेली ढांचे का माप, भूखंड के आकार पर निर्भर है, लेकिन आमतौर पर लगभग 15 फीट x 15 फीट का रहता है।

SSGVSS के क्लस्टर समन्वयक, रमेश कुमार सिंह ने प्रदर्शन के उद्देश्य से, अपने घर के पिछवाड़े में, एक ट्रेली ढांचा बनाया है। हालांकि शुरू में हिचकिचाए, लेकिन बाद में इसके लाभ और मुनाफे को देखते हुए किसानों ने ट्रेली ढांचे बनाने शुरू कर दिए।

एक ही फसल के जोखिम से बचने और अधिक लाभ लेने के लिए, किसान विभिन्न फसलों की कटाई अलग-अलग समय पर करते हैं (फोटो – SSGVSS के सौजन्य से)

ट्रेली पद्धति, प्रतापपुर प्रशासनिक ब्लॉक के 12 गांवों में लागू की जा रही है। धीरे-धीरे इसका विस्तार करने की योजना है। एक एकड़ भूमि में ट्रेली ढांचा निर्माण के लिए किसानों को लगभग 1 लाख रुपये के निवेश की जरूरत है। इसमें जस्ती लोहे के तार, मजदूरी का खर्च और जरूरी हो तो ड्रिप सिंचाई की लागत शामिल है।

लाभदायक ट्रेली पद्धति

ट्रेली पद्धति उपलब्ध स्थान को ठीक से उपयोग करने में मदद करता है, जैसे कि अदरक और हल्दी जैसे पौधे जमीन पर लगते हैं, और बेल ट्रेली ढांचे के ऊपर उगाई जाती हैं। बीच में जहां भी जगह हो, टमाटर और बैंगन उगाए जा सकते हैं।

ट्रेली से सुनिश्चित होता है, कि लौकी जैसी बेल वाली सब्जियां जमीन को न छूएं और फल लगने के दौरान स्वस्थ रहें। इससे फफूंद (फंगस) और बैक्टीरियल बीमारियों से बचाव होता है और इसलिए उससे बेहतर कीमत प्राप्त होती है।

प्रदान (PRADAN) के सुजीत कुमार दास ने VillageSquare.in को बताया – “छाया में बेहतर उगने वाली, हल्दी जैसी फसलों और ऊपर बेल-दार सब्जियां उगाने के लिए, यह एक आदर्श प्रणाली है।”

सोनमती पैकरा बताती हैं – “ढांचे के ऊपर उगने वाली बेल, अदरक और हल्दी जैसी जमीनी फसलों को कठोर धूप और गर्म हवाओं के असर से सूखने से बचाती हैं। इससे पानी की भी काफी बचत होती है, क्योंकि जमीन पर बहने वाले सिंचाई के संकरे चैनल नमी को बरकरार रखते हैं।”

मिलीजुली फसल

SSGVSS के कृषि क्लस्टर समन्वयक, आकाश कुमार ने बताया कि किसान करेले जैसी बेल ऊपर उगाते हैं, और नीचे जमीन पर मेथी, लाल पालक और चौलाई उगाते हैं। जब एक फसल कटती है तो दूसरी की खेती की जाती है। ट्रेली पद्धति से अलग-अलग समय लेने वाली फसलें उगाना आसान हो जाता है।

रमेश कुमार सिंह बताते हैं – “हम मिश्रित फसल को बढ़ावा देते हैं, ताकि अगर किसान की एक फसल का नुकसान हो जाए, तो वे दूसरी फसलों से गुजारा कर सकें। पहले एक ही फसल की खेती में किसानों को नुकसान होता था। इसलिए, जोखिम बहुत अधिक था। अब वे कुछ न कुछ लाभ होने के प्रति आश्वस्त हैं।”

पारंपरिक मचान प्रणाली को वापिस उपयोग में लाकर, किसान कई फसलें उगा पा रहे हैं (फोटो – SSGVSS के सौजन्य से)

आकाश कुमार ने VillageSquare.in को बताया – “मचान प्रणाली में, सभी फसलों को पर्याप्त पानी और उपयुक्त मात्रा में धूप मिलती है। यह सीमित जगह में अधिक भोजन का उत्पादन करने का एक आदर्श तरीका है। इसमें पानी का भी उपयोग कम होता है और गर्मी के महीनों में हम बहुत सारा पानी बचा सकते हैं|”

वाटरशेड परियोजना

पानी के संरक्षण के लिए खेत में तालाब भी खोदे गए हैं। बारिश का पानी तालाबों में इकट्ठा हो जाता है, जिससे किसानों को फसलों की सिंचाई करने में मदद मिलती है। सुजीत कुमार दास ने कहा कि कई जगहों पर किसान इन खेत तालाबों में मछली पालते हैं, क्योंकि सब्जियों को खेत भरने वाली सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है।

दास ने बताया कि मचान खेती एक वाटरशेड परियोजना का हिस्सा है, जो छत्तीसगढ़ मनरेगा सेल, प्रदान, एक्सिस बैंक फाउंडेशन और भारत ग्रामीण आजीविका फाउंडेशन के तालमेल से लागू हो रहा है। यह अक्टूबर 2018 में 12 जिलों में शुरू हुआ और सितंबर 2022 तक जारी रहेगा।

इस परियोजना का उद्देश्य एक लाख छोटे किसानों की स्थिति में सुधार करना है। दास ने कहा – “परियोजना का उद्देश्य 5 एकड़ से कम भूमि वाले किसानों की, एकल फसल के मुद्दों का हल ढूंढने, दोहरी फसल और मिट्टी एवं जल संरक्षण के माध्यम से आजीविका और टिकाऊपन को बढ़ावा देना है।”

टिकाऊ कार्यप्रणाली

SSGVSS के प्रमुख, भूपेंद्र सिंह ने बताया, कि छत्तीसगढ़ में हमेशा से ही ट्रेली पद्धति से बेल-दार सब्जियां उगाना एक परंपरा रही है, लेकिन किसानों ने व्यवस्थित रूप से इसपर अमल नहीं किया। सिंह कहते हैं – “किसान ट्रेली ढांचा बनाने के लिए उपकरण, तार और धागे खरीदते थे। हमने उन्हें स्थानीय रूप से उपलब्ध संसाधनों का उपयोग करने के लिए कहा।”

भूपेंद्र सिंह ने VillageSquare.in को बताया – “हमने यह सुनिश्चित किया है कि ढांचे टिकाऊ और सस्ते हों। हम कुछ मॉडल तैयार कर रहे हैं, जो जुलाई तक तैयार हो जाने चाहिए। हम चाहते हैं कि यह ढांचे कम से कम पांच साल तक चलें।”

SSGVSS के समन्वयक सौरभ देवरत ने इंगित किया, कि मचान की खेती छोटे किसानों के लिए उपयुक्त है, जिनके पास जमीन बहुत कम है और वे बेहद गरीब हैं। यह एक प्राकृतिक प्रणाली है, जो पानी और किसानों का कीमती समय बचाती है।

देवरत ने VillageSquare.in को बताया – “ट्रेली पद्धति प्रचलित हो रही है, जिससे किसान आत्मनिर्भर हो रहे हैं। यह छोटे भूखंड वाले किसानों के लिए आदर्श है, क्योंकि कई फसलें, जैसे कि बेल-दार और जमीन पर उगने वाली सब्जियां एक ही समय में साथ साथ उगाई जा सकती हैं।”

दीपांविता गीता नियोगी दिल्ली – स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।