लौटे प्रवासी: एक विराम या एक सपने का अंत?

लॉकडाउन ने प्रवासी मजदूरों को घर लौटने के लिए मजबूर कर दिया है। नकद बचत के बिना और काफी समय से फंसी पगार के कारण, उनका भविष्य इतना अनिश्चित है, जितना पहले कभी नहीं था

हमने पहले भी कई बार चर्चा की है कि पूरे देश में, कृषि में काम करने वालों में महिलाओं और वृद्ध पुरुषों का वर्चस्व बढ़ रहा है। कुछ युवा पुरुष अपना स्थाई रूप से उन शहरों में बस जाते हैं, जहां उनका रोजगार होता है।

प्रत्येक सीजन में बड़ी संख्या में पलायन होता है। ये मौसमी प्रवासी अधिकतर युवा होते हैं, प्राय 35 वर्ष से कम उम्र के। युवा लोग सीजन की शुरुआत में, अपनी जमीन पर जरूरी न्यूनतम काम करने के बाद, अपने गांव से निकलते हैं। वे शहरों में या निर्माण स्थलों या ईंट भट्टों पर, या जहां भी उन्हें साल भर काम मिल जाए, वहां काम करते हैं।

त्योहारों के समय और अगली फसल के लिए गर्मियों के अंत में, वे बड़ी संख्या में घर लौटते हैं। पिछले साल तक, वे अपने मुश्किलों से भरी शहरी जिंदगी से कुछ बचत करके लाते थे, जिसमें से कुछ अपने स्थानीय शहर के परम्परागत उधार देने वाले ‘सेठ’ के कर्ज का कुछ न कुछ भाग चुकता करने में देते और बची हुई बाकि रकम अपने माता-पिता या पत्नी को दे देते थे।

कम उम्र वाले और अविवाहित युवा, आमतौर पर जींस की पतलून और फैंसी दिखने वाली टी-शर्ट, भड़कीले धूप के चश्मे पहनकर लौटते थे, और शायद उनके पास स्मार्ट फोन भी होता था, जो अक्सर उनके शहरीपन की शेखी बघारता जान पड़ता था।

जिन लोगों की हालत बेहद ख़राब होती थी, उन्हें आमतौर पर एक मजदूरों का ठेकेदार उन्हें गुजर-बसर के लायक कुछ पैसा एडवांस के रूप में देकर उनके श्रम को खरीद लेता है। इस श्रेणी में आमतौर पर दलित, भूमिहीन और कर्ज में डूबे लोग शामिल होते हैं। उनके पास कोई चारा नहीं है। सचमुच, वे अपने शरीर को अपना नहीं कह सकते। मैंने ऐसे अनेक घटनाओं के बारे में पढ़ा है, जब ठेकेदार के गुंडों द्वारा उसके हुक्म को मानने में आनाकानी करने वाले लोगों की पिटाई की गई।

हालाँकि पलायन के स्वरूप में बदलाव आया है, पर अधिकाधिक ग्रामीणों द्वारा बेहतर आजीविका के अवसरों के लिए, अन्य स्थानों पर जाने का सिलसिला जारी है। COVID-19 और लॉकडाउन के द्वारा प्रवासियों को उनके गांव में वापस धकेलने की परिस्थितियों में, हम यह पता लगाते हैं कि वे इससे कैसे निपट रहे हैं और उनके लिए भविष्य में क्या कुछ है।

पलायन का स्वरूप

समय के साथ, दूर के प्रवास में मजदूरी से अर्जित की गई आय का, ग्रामीण परिवारों की कुल आय में अनुपात लगातार बढ़ा है। पिछले सौ सालों से भी अधिक के दौरान, पूर्वी उत्तर प्रदेश और उत्तर बिहार की घनी आबादी वाले गंगा के मैदानों में हालात यही रहे हैं।

स्थायी प्रवास के अतिरिक्त, देश के अन्य हिस्सों में सिंचित कृषि की शुरुआत के साथ, छोटे-छोटे अंतराल और मौसमानुसार प्रवास भी शुरू हो जाता है। भाखड़ा बांध पूरा होने के बाद, पुराने समय के कोलकाता को होने वाले पलायन का स्थान पंजाब, और उसके आगे मुंबई और उन दूसरे पश्चिमी और दक्षिणी शहरों में बदल गया, जहां व्यावसायिक और औद्योगिक तेजी आई।

इस कड़ी में, दक्षिण राजस्थान, बुंदेलखंड, हैदराबाद-कर्नाटक और तेलंगाना के वर्षा-आधारित और सूखा-प्रभावित क्षेत्र शामिल हुए, जहाँ कम-उपजाऊ भूमि पर आबादी का दबाव बढ़ रहा था और निर्माण, कपड़ा, हॉस्पिटैलिटी (होटल, टूरिज्म, आदि) और अन्य औद्योगिक क्षेत्रों में मजदूरों की मांग बढ़ रही थी। इस सदी के दौरान, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और पूर्वोत्तर के ग्रामीण इलाके इस रुझान का हिस्सा बने।

स्वप्न: बेहतर भविष्य के लिए

बेहतर अवसर पाने के एक तरीके के रूप में, प्रवास पूरे देश में एक आकर्षण का मुद्दा रहा है। दशकों से, केरल, गुजरात और पंजाब के अधिक भाग्यशाली और बेहतर रसूख वाले ग्रामीण युवा अधिक आकर्षक अवसरों के लिए विदेशों में प्रवास करते रहे हैं।

अन्य लोगों में, उन परिवारों से आने वाले अधिक भाग्यशाली युवा हैं, जो जरूरत पूरा करने लायक खाद्यान्न पैदा कर लेते हैं, और परिवार की नकद आय में योगदान के लिए रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं। वे शायद ही कभी बिना किसी तयशुदा लक्ष्य के पलायन करते हों। वे किसी ऐसे व्यक्ति के साथ जाते हैं, जो पहले जा चुका होता है।

ज्यादातर युवा रोजगार की तलाश में पलायन करते हैं। उनमें से बहुत से आंखों में एक सपना लेकर जाते हैं। एक सपना, जिसमें वे अनिश्चित मौसम और कठोर कृषि जीवन से बच निकलते हैं और जिसमें उनके पास टिकाऊ, सम्मानजनक आय और एक ऐसा जीवन है, जिसमें वे उन शहरी सुविधाओं को भोग सकते हैं, जिन्हें उन्होंने विज्ञापनों और फिल्मों में देखा होता है।

उनके काम की वास्तविक प्रकृति बहुत हद तक अलग होती है। यह उनके कौशल के आधार पर अलग होती है। यह उन सामाजिक संपर्कों के अनुसार अलग होता है, जिनके माध्यम से उन्हें काम मिला। यह उनके पहल की क्षमता और चतुराई के अनुसार अलग होता है। और निश्चित रूप से, यह उनके उस भाग्य के अनुसार अलग होता है जो अटल है।

गंतव्य स्थलों की समस्याएं

आमतौर पर, काम के स्थानों पर प्रवासियों की रहने की स्थिति के बारे में लिखने के लिए कुछ भी सुकूनदायक नहीं है। तीन तरह के मुद्दों से उन्हें लगातार जूझना पड़ता है। पहला मुद्दा तो अपने लिए रहने और खाने की मूलभूत जरूरतें पूरी करने का है। दूसरा चिंता का मुद्दा, मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक सार्वजनिक सेवाओं तक उनकी पहुंच का है। तीसरा है सुरक्षा की भावना का मुद्दा।

जिन हालात में वे रहते हैं और अपने भोजन की व्यवस्था करते हैं, वे स्थान के अनुसार बहुत अलग होते हैं| लेकिन लगभग हर जगह उन्हें ऐसी परिस्थितियों में रहने के लिए मजबूर किया जाता है, जिन्हें मानवीय नहीं कहा जा सकता| ये या तो बहुत भीड़भाड़ वाले किराए के घर या सड़क अथवा सार्वजनिक जगह पर, ठीक आकाश के नीचे बेहद भद्दे आशियानों में। सभी शहरों में पीने के लिए सुरक्षित पानी और सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुंच एक बड़ा मुद्दा है, हालांकि हो सकता है, समृद्ध राज्यों के ग्रामीण क्षेत्रों में, खेत के काम के लिए जाने वाले प्रवासियों के लिए यह मुद्दा उतना बड़ा न हो।

अपने और परिवार के लिए स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुँच और बच्चों के लिए शिक्षा की सुविधा एक बड़ी समस्या है। ज्यादातर राज्य दूसरे राज्यों से आए प्रवासियों को, राज्य के सरकारी अस्पतालों में मुफ्त ईलाज के लिए पात्र नहीं मानते। प्रवासियों को उनके राशन कार्ड, इत्यादि के लिए बीपीएल का दर्जा नहीं मिलता है| उन शहरों में स्थायी पते का कोई स्वीकार्य दस्तावेज न होने के कारण, उनके लिए एलपीजी गैस कनेक्शन या यहां तक ​​कि मोबाइल फोन कनेक्शन तक प्राप्त करना मुश्किल होता है।

आमतौर पर प्रवासी लोग स्थानीय समुदायों और उन शहरों की पुलिस की ओर से किसी भी ज्यादती के विरुद्ध खुद को कमजोर महसूस करते हैं। उनके पास न केवल स्थानीय आश्वासन का अभाव है, बल्कि जिस इलाके में वे रहते हैं, वहां होने वाले किसी भी अपराध के लिए नियमित रूप से उनपर संदेह किया जाता है।

फिर भी प्रवासी लोग श्रम की लगातार बढ़ती ‘आरक्षित सेना’ है, जिसने भारत के शहरों की शहरी, और कुछ हद तक औद्योगिक/व्यावसायिक समृद्धि का निर्माण किया है।

अनिश्चित भविष्य

इसमें कोई शक नहीं, कि COVID-19 और लॉकडाउन ने प्रवासियों को बहुत गंभीर झटका दिया है। जैसा कि मार्च 2020 में दिल्ली के उदाहरण से पता चलता है, उन्हें उनके अस्थायी घरों से अचानक बाहर निकाल दिया गया और बिना भोजन की व्यवस्था के अधर में लटका छोड़ दिया गया।

जब लॉकडाउन लागू हुआ, तो बहुत से मालिकों ने प्रवासियों के साथ उनके वेतन को लेकर धोखा किया| कुछ ने अच्छी तरह यह जानते हुए भी, कि उनके पास बकाया पैसा लेने का कोई रास्ता नहीं होगा, उन्हें आधा-अधूरा बकाया वेतन दिया। ‘पात्रता’ के अभाव में वे सरकार द्वारा घोषित, मुफ्त भोजन योजनाओं से वंचित रहे और उन्हें लगभग पूरी तरह से समाज की उस दया पर छोड़ दिया गया, जो उन्हें मिल पाई।

पिछले तीन महीनों के दौरान, उनमें से ज्यादातर, थके हुए, निराश, बिना पैसे के और बिना इस बात की स्पष्ट धारणा के कि उनके भविष्य में क्या है, घर वापस आ गए हैं। क्या यह उनके उन अधूरे सपनों का अंत है? या दोबारा आर्थिक गतिविधियां तेज होने पर, वे फिर से अपने शहरी ठिकानों पर पहुँच पाएंगे? यदि ऐसा होता है, तो क्या उन्हें काम, निवास और सुरक्षा की बेहतर परिस्थितियां मिलेंगी?

लौट कर आए प्रवासी अब अपने जीवन के हालात से कैसे तालमेल बैठा रहे हैं? क्या वे अपने गाँवों में ही रहने के अपने विकल्प को व्यावहारिक पाते हैं? इस लेख-श्रृंखला में हम इन्हीं सवालों पर विचार करेंगे, जो हम हर सप्ताह लेकर आएंगे।

संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेषफाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।