क्या एक नुकीला कुदाल एक मोती में छेद कर सकता है?

ग्रामीण भारत में समाज के बिखरे और अलग-थलग किए वंचित समूहों तक कल्याणकारी सेवाएं पहुंचाने में गंभीर चुनौतियां हैं, और इनसे निपटने के लिए सरकारी-तंत्र सक्षम नहीं है।

ग्रामीण भारत के बेज़ुबान और कमज़ोर लोगों के मामले में, भारतीय राजनीति और शासन का दोगलापन (दोहरे मापदंड) उसकी एक खास पहचान बन गया प्रतीत होता है। एक ओर, अनेक मुद्दों पर सरकारों द्वारा घोषित नीतियाँ और कार्यक्रम भव्य और दरियादिलीपूर्ण होती हैं। दूसरी ओर, इन नीतियों के कार्यान्वयन में अनेक खामियाँ रह जाती हैं। और कार्यान्वयन में रहने वाला यह अंतर दशकों तक जारी रहता है।

संभवतः, इसका सबसे ज्वलंत और तकलीफदेह उदाहरण ग्रामीण भारत के अलग- थलग, बिखरे, वंचित लोग (Scattered & Disenfranchised Groups/S&DG) हैं।  बड़ों की सुरक्षा से वंचित बच्चे, किसी सहारे के बिना रह रहे विधवा या बुजुर्ग, ट्रांसजेंडर लोग, शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग व्यक्ति, खानाबदोश समूह, आदि, इस श्रेणी से सम्बन्ध रखते हैं।

ये सब किसी न किसी शारीरिक, सांस्कृतिक या सामाजिक दुर्बलता से ग्रसित हैं और उन्हें शासन की सहायता की आवश्यकता है, क्योंकि वे कमजोर या अप्रशिक्षित हैं, या फिर अर्थव्यवस्था और राजनीति की मुख्यधारा में आगे बढ़ने में असमर्थ हैं। ऐसे लोग किसी भी राज्य की बस्तियों में बड़े स्तर पर फैले हुए होते हैं।

अनुपात में बहुत कम

ऐसे समूह से सम्बन्धित लोगों की संख्या उस बस्ती की कुल आबादी की तुलना में बहुत कम होती है। इनकी यही कम संख्या और बिखराव ही इन्हें किसी बस्ती में ‘दबाव-समूह’ के रूप में उभरने नहीं देते।  इनकी यह छोटी संख्या उन्हें उम्मीदवारों और निर्वाचित प्रतिनिधियों की नज़रों में महत्वहीन बना देती है, और इस तरह, सक्रिय राजनीति से जुड़ा कोई भी व्यक्ति इनके मुद्दों पर काम करने के लिए प्रेरित नहीं होता।

इस बारे में यह तर्क दिया जाता है कि इसके लिए इरादे, ईमानदारी, या यहां तक ​​कि बजट की कमी जिम्मेदार नहीं है। बल्कि मात्र प्रशासनिक ढाँचे और प्रक्रियाओं में जटिलता और पेचीदगी के कारण शासन इन वंचित S&DG समूहों के अधिकारों की प्रभावी रूप से रक्षा करने और उन तक कल्याणकारी सेवाओं को पहुंचाने में पूरी तरह विफल रहता है। नौकरशाही के सामने आने वाली चुनौतियों और बाधाओं पर नीचे चर्चा की गई है।

गैर-स्त्यापित गणना

वैसे S&DG वंचित लोगों की संख्या सरकारी सहायता कार्यक्रमों के लिए उपयुक्त है, लेकिन इनकी संख्या की सही जानकारी ज्ञात नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि ज्यादातर मामलों में, विकास-सहायता संबंधी योजनाएँ बनाने के लिए प्रयोग होने वाली इनकी संख्या केवल अंदाजों पर आधारित होती है। किसी श्रेणी में ऐसे लोगों की सटीक गणना उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिए, मानसिक विकार से पीड़ित व्यक्तियों की संख्या, कुछ सर्वेक्षण-आधारित तरीकों से, जनसंख्या का 13% या भारत भर में लगभग 15 करोड़ (150 मिलियन) आंकी गई है। लेकिन उनकी पहचान और उनके रहने के स्थानों की जानकारी का ठीक-ठीक पता नहीं है।

हमारा एक बड़ी आबादी वाला देश है। लोगों की संख्या बहुत बड़ी है, जिन्हें सहायता की आवश्यकता है। इस श्रेणी में आने वाले लोगों की संभावित संख्या तक सहायता पंहुचाने के लिए सरकारी नीतियां बनाते समय, शासन की क्षमता को लगभग पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया जाता है।

उदाहरण के लिए, यह मानते हुए भी कि अनुमानित संख्या ही वास्तविक हैं, मानसिक-रोग से पीड़ित व्यक्तियों की उचित देखभाल सुनिश्चित करने की क्षमता में कमी इतनी बड़ी है, कि उनकी जरूरत पूरी करने में दशकों लग जायेंगे, भले ही बजट कई गुणा तक बढ़ा दिया जाए। स्वाभाविक है कि बिना क्षमता सुनिश्चित किए ऐसे कार्यों की स्वीकार्यता अपने उद्देश्यों की पूर्ति में अत्यंत नाकाम रहती है।

बंदोबस्त में कठिनाइयाँ

S&DG वर्ग के किसी व्यक्ति तक पहली बार पंहुचने तक में, इनके दूर-दूर होने और इनकी सुदूरता के कारण, दिक्कत होती है। इन वर्गों के लोगों की शर्मीली और टालने (बचने) की प्रवृति इनके स्वाभाविक सामाजिक गुण हैं, जो शोषण के लंबे अनुभवों का परिणाम हैं। साथ ही, विशेष रूप से उन व्यक्तियों द्वारा बोली जाने वाली भाषा उन तक पहुंचने में बड़ी बाधा बन जाती है।

उदाहरण के लिए, बोंडा, असुर या सबेर जनजातियों के व्यक्तियों तक पहुँचना मुश्किल है, क्योंकि उनकी बस्तियाँ दूरदराज स्थित हैं, और क्योंकि वे बाहरी लोगों के साथ सामाजिक संपर्क से बचते हैं, और क्योंकि उनकी भाषा/बोली दूसरों को समझ में नहीं आती है। जिला या यहाँ तक कि उप-जिला स्तर के प्रशासकों के लिए, लगभग बिना या नाकाफी परिवहन व्यवस्था के चलते, कार्य करना लगभग असंभव है।

जानकारी के प्रचार-प्रसार का अभाव

कल्याणकारी योजनाओं के बारे में और उनका लाभ लेने के लिए आवेदन-प्रक्रिया के बारे में जानकारी का उस तरीके से प्रचार-प्रसार नहीं किया जाता, जो उन हालात के उपयुक्त हों, जिनमें S&DG वर्गों के लोग रहते हैं। एक उम्मीदवार के लिए सहायता की पात्रता साबित करने के आवश्यक दस्तावेज और औपचारिकताएं अक्सर जटिल होते हैं। शासन गलत चयन और सीमित संसाधनों के गलत उपयोग से बचने के लिए ऐसा करता है और कई जाँच और पुनर्जांच की व्यवस्था लागू कर देता है। इसका खामियाजा S&DG वर्गों के लोगों को भरना पड़ता है।

क्योंकि कई प्रकार की सेवाओं और सुविधाओं की आवश्यकता होती है, और क्योंकि नौकरशाही एक कार्यात्मक और भौगोलिक जिम्मेदारी-संरचना के चक्रव्यूह में काम करती है, इसलिए कई प्रशासनिक इकाइयां सेवा प्रदान करने की प्रक्रिया में शामिल होती हैं। प्रत्येक व्यक्ति की रुचि और प्राथमिकता अलग है, जो जरूरी नहीं कि सेवा की मांग करने वाले दूसरे व्यक्ति से मेल खाए।

इसके अलावा, समाज कल्याण विभाग में उन कर्मचारियों की भारी कमी रहती है, जिनसे एक बड़ी आबादी को सेवाएँ प्रदान करने की अपेक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र के एक जिले में, जिला स्तर के दो कर्मचारियों से 40,000 लोगों पर केंद्रित 15 योजनाओं को देखना होता है। वरिष्ठ स्तर के अधिकारियों के लिए एक आकर्षक नियुक्ति नहीं है, इसलिए जितना जल्दी हो सके तबादला करवा लेते हैं, जिस कारण निरंतरता नहीं रह पाती।

अभिमुखीकरण और संवेदनशीलता का अभाव

S&DG के लोगों के साथ कर्मचारियों और अधिकारियों के द्वारा काम करने में सबसे गम्भीर बाधा उनके मुद्दों के प्रति अभिमुखीकरण और संवेदनशीलता की कमी है। उदाहरण के लिए, विकलांग व्यक्तियों (PwD) के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था है। एक बार जब विकलांग (PwD) व्यक्ति ज्वाईन कर लेता है, तो उसके कार्यस्थल को उसके कार्य के लिए अनुकूल होना चाहिए। लेकिन ऐसा शायद ही कभी होता है। स्वाभाविक रूप से, ऐसे व्यक्तियों की भर्ती को लेकर वरिष्ठ कर्मचारियों में प्रतिरोध होता है। यह प्रतिरोध मौन रूप में रहता है, क्योंकि इसकी अभिव्यक्ति राजनीतिक रूप से गलत कही जाएगी।

प्रभुत्व में व्यापक असंतुलन

पहले एक लेख में, हमने देखा कि हालाँकि पीवीटीजी (PVTG) वर्गों के कल्याण की जिम्मेदारी आदिवासी कल्याण विभाग के कार्यालय की है, किंतु उस विभाग का राजनीतिक प्रमुख संख्यात्मक रूप से प्रभावी और शक्तिशाली जनजाति से आता है। एक समूह के रूप में, यह तथाकथित प्रमुख जनजाति भी गैर-आदिवासी लोगों के हाथों शोषण से पीड़ित है।

इसी तरह का पावर-प्ले  आदिवासी वर्गों के भीतर भी चलता है, जहां प्रमुख जनजाति के राजनीतिक प्रमुख पूरि ताकत से कोशिश करते हैं कि आदिवासी समुदाय के लिए तय सभी लाभ अपनी जनजाति के लिए प्राप्त कर लें। इस तरह, हालाँकि पीवीटीजी (PVTG) से लोगों की भर्ती का प्रावधान है, लेकिन किसी चयन परीक्षण के अस्तित्व में न होने के कारण किसी को भी भर्ती नहीं किया जाएगा। इन भर्तियों से जनजातीय लोगों के लिए उपलब्ध सीटों की संख्या कम हो जाएगी, एक ऐसा नुकसान जो प्रमुख जनजाति को मंजूर नहीं।

PwD वर्ग के भीतर, संभवतः दृष्टि और चलने-फिरने में शरिरिक रूप से बाधित व्यक्ति बजट और लाभों का अधिकांश जुटा लेते हैं, और विकलांगता की 19 अन्य श्रेणियों के लोगों के लिए बचे-खुचे टुकड़ों के अलावा कुछ विशेष नहीं बचता। यह व्यापक प्रभुत्व और ताकत भूमिका अपरिहार्य जान पड़ता है और S&DG को सेवाओं के वितरण की संभावना को प्रभावित करता है।

प्रशासनिक तंत्र

राज्य का प्रशासनिक तंत्र विभिन्न प्रक्रियाओं के एक सुव्यवस्थित पैटर्न संचालित होता है। लाभार्थियों की श्रेणियों को परिभाषित किया गया है, यह तय करने के लिए तय मानदंड हैं कि क्या कोई मामला किसी श्रेणी के अंतर्गत आ सकता है, विषय-वस्तु विशेषज्ञ आने वाले मामलों का निर्धारित मानदंडों पर आकलन करते हैं, चयनित मामलों को पूर्व-निर्धारित लाभ प्रदान किए जाते हैं, निर्धारित मानक संचालन प्रक्रिया (Standard Operating Procedure) के अनुसार कार्रवाई की जाती है, कार्रवाई के स्तर पर विवेक के प्रयोग की गुंजाईश न्यूनतम है, फैसले लेने के अधिकार केंद्रित हैं, जो निर्धारित ढाँचे से होकर गुजरते हैं, पूरी व्यवस्था राज्यभर पर लागू होने वाले मानदंडों और प्रशासनिक प्रक्रियाओं के बीच दौड़ती है।

वास्तव में, शासन-तंत्र एक ऐसी मजबूत कुदाली की तरह है, जो एक सख़्त और विशाल पर्वत को तोड़ सकती है। एक ऐसे समूह के व्यक्तियों को सेवा प्रदान करने के कार्य में संवेदनशीलता, और हमदर्दी पर आधारित विवेक के प्रयोग की जरूरत है, जो न केवल दूर दूर बिखरे हुए हैं, बल्कि बेज़ुबान हैं और अपने तरीके से अपनी जरूरतों को पूरा करने में असमर्थ हैं।  संवेदनशीलता और हमदर्दी पर आधारित विवेक के प्रयोग  के साथ विवेक का उपयोग करने के लिए पतले सम्मान की आवश्यकता है। इसलिए हमारा सवाल है: क्या एक नुकीला कुदाल एक मोती को भी छेद सकता है?

नोट: हेडलाइन विवेकसिन्धु, “पथरावतची ताकी, जेल पान तिखी निकी; थथापी करो ना ये मौलक्तिकी रंध्रशलाका”, मुकुंदराज द्वारा एक मराठी रचना (प्रस्तावना, 3: 3) से रूपांतरित किया गया है।

संजीव फनसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फनसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।