गरीबी के विरुद्ध सबसे मजबूत उपाय है, जल नियंत्रण

जब एक बार हम यह समझ लेते हैं कि एक ही उपाय हर स्थिति में कारगर नहीं होता, तो सरकार और नागरिक समाज संगठनों के लिए, देश के विभिन्न कृषि-जलवायु क्षेत्रों में जल प्रबंधन की स्थिति-अनुसार वैसी रणनीति बनाना आसान होगा, जो सही मायनों में ग्रामीण गरीबों को लाभान्वित कर सके

भारत में तार्किक रूप से तीन बुनियादी प्रकार की ग्रामीण गरीबी हैं। पहला और शायद सबसे बुरी गरीबी देश के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में मौजूद है। इन क्षेत्रों में जनसंख्या का दबाव बहुत अधिक है – आमतौर पर प्रति वर्ग किमी 1,000 व्यक्ति से ऊपर – और जमीन थोड़ी-थोड़ी होती है। हर साल बाढ़ से होने वाला कहर, नियमित रूप से खरीफ या मानसून की फसल को बर्बाद करता है और नदी के साथ-साथ निचली भूमि को भी नुकसान पहुँचाने के अलावा, खेती के चक्र को छोटा कर देता है। यहां का मुद्दा बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने का है।

दूसरी प्रकार की गरीबी जो देश के विशाल सूखाग्रस्त क्षेत्रों में होती है, चाहे वे सौराष्ट्र और राजस्थान के रेगिस्तान-जैसे क्षेत्र हों, या तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के लगभग 50 जिले हों, जहां बेहद ज्यादा वर्षा का खतरा बना रहता है। जमीन काफी अधिक होने के बावजूद गरीबी हो जाती है, क्योंकि वर्षा कम मात्रा में होती है (सालाना 600 मिमी से कम), वर्षा की मात्रा में भारी उतार-चढाव होता है और जलश्रोत सूख जाते हैं। यहां मुद्दा यह है कि जितना भी पानी उपलब्ध है, उसका संग्रह, संरक्षण या नियंत्रण किया जाए और इसका सर्वोत्तम तरीके से उपयोग किया जाए।

आदिवासी प्रमुख केंद्र

तीसरी तरह की गरीबी मध्य भारत के आदिवासी क्षेत्र में व्याप्त है, जिसमें गुजरात के साबरकांठा से पूर्व की ओर जाकर पश्चिम बंगाल के पुरुलिया तक के लगभग 100 जिले शामिल हैं, जो भूमध्य रेखा के उत्तर में 18 से 25 डिग्री के बीच स्थित हैं। यहां का इलाका ऊँचा-नीचा और पहाड़ी है, यहां पहाड़ियों पर अलग-अलग तरह की हरियाली का आवरण है और वर्षा बहुत अच्छी (900-2,000 मिमी के बीच) होती है। यहां कई जल धाराएँ हैं, जो मानसून में बहती हैं और इनमें फरवरी या मार्च तक पानी रहता है।

इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी लोगों के पास किसी भी गांव में आमतौर पर, ढलानदार या ऊपरी हिस्सों की ख़राब किस्म की जमीन होती है और इनकी सिंचाई के स्रोतों तक बहुत कम पहुंच रहती है। इन क्षेत्रों में पर्याप्त मात्रा में होने वाली वर्षा का सारा पानी, आदिवासियों को मुंह ताकता छोड़, तेजी से निचले मैदानी इलाकों में बह जाता है। यहां मुद्दा, प्रकृति से मिलने वाले पानी को, जल-संग्रहण (वाटर-हार्वेस्टिंग) तकनीक के विभिन्न तरीके अपनाकर, इन किसानों को जल का अधिक से अधिक उपयोग करने में मदद करने का है।

व्यवहारिक नियंत्रण

इन तीनों ही मामलों में, यदि हम गरीब लोगों को मिलने वाले पानी की मात्रा पर उचित नियंत्रण हासिल कर लें, तो इसका स्पष्ट रूप से उन्हें लाभ होगा। स्वाभाविक रूप से, बाढ़-संभावित क्षेत्रों में बाढ़ से निपटने और सूखा-संभावित क्षेत्रों में सूखे से निपटने के लिए और उपयुक्त फसलों के उचित कुदरती फसलों की उपलब्धता में सुधार करने जैसे अन्य उपायों की भी आवश्यकता है, ताकि लोगों को जीवन के संकटों का सामना करने में मदद हो| लेकिन गरीबी-विरोधी उपायों में पानी का नियंत्रण निश्चित रूप से सबसे ऊपर है।

हालाँकि हालात ऐसे हैं, लेकिन सरकारी तंत्र का ध्यान इस तरह के जल नियंत्रण को प्राप्त करने की ओर नहीं है। यदि निवेश और सरकारी खर्च के संदर्भ में देखें, तो बहुत मात्रा में पैसा बाढ़-प्रभावित मैदानी इलाकों में, तटबंधों के रखरखाव और बाढ़ राहत पर खर्च होता है। हमें जरूरत शायद इस बात की है, कि जल-भराव वाली भूमि और जल निकासी एवं सिंचाई व्यवस्था को दुरुस्त करते हुए, बाढ़ रोकने के उपायों पर लंबी अवधि का निवेश हो|

मराठवाड़ा में तालाब

सूखाग्रस्त क्षेत्रों में, यहां से होकर जितनी भी नदियां बहती हैं, उन पर अधिक बांध और नहरों के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इनमें विस्थापन और पुनर्वास, गाद जमा होने, नहरों का ख़राब रखरखाव, नहर के श्रोत और समाप्ति से संबधित लोगों के हित को लेकर टकराव, आदि के मुद्दे हैं| हालांकि कुछ प्रयास भागीदारी-आधारित नहर प्रबंधन के माध्यम से किए गए हैं, लेकिन उनकी सफलता एक नियम न होकर, अपवाद के रूप में देखने को मिलती है।

यह वह स्थिति है, जहां बाँध और नहरों के निर्माण की बजाए, मराठवाड़ा के प्रसिद्ध ‘दोहा’ मॉडल के अनुसार सभी चैनलों को खोदने और गहरा करने में अधिक समझदारी नजर आती है। और इस की सफलता महाराष्ट्र के जलयुक्त शिवर में दिखाई गई है, जिसमेंअतिरिक्त मात्रा में जल संचयन और संरक्षण करने के कारण, मराठवाड़ा में पानी के टैंकरों का उपयोग कम देखा गया।

विविध रणनीति

आदिवासी क्षेत्रों में, सफलता का राज, सिंचाई के लिए हर संभव जलधारा के दोहन के लिए डैम बनाकर पानी रोकने की बजाए उसके बहाव को मोड़कर, हर संभव जलधारा में खुदाई द्वारा तालाब बनाकर और बड़े पैमाने पर, लेकिन समझदारी के साथ, भूमिगत जल स्रोतों के अधिक से अधिक दोहन में छुपा है।

आखिरी को, सोलर पंप सहित कम क्षमता वाले पंपों के उपयोग, पंप-ओवरहेड टैंक और ड्रिप सिस्टम के समन्वय को प्रोत्साहित करके और पंपों के, बाजारों में पानी या पंप किराये के माध्यम से विभाजन को बढ़ावा देकर किया जाता है।

लेकिन यहाँ समस्या केवल पानी के नियंत्रण की नहीं है, बल्कि आदिवासी किसान को, कृषि विस्तार व्यवस्था को मजबूत करके और उन्हें जरूरत से ज्यादा पानी की खपत वाली अनाज की फसलों से हटाकर, ऊँची कीमत वाले फल और फूल की फसलों की ओर लाकर, के बेहतर कृषक बनने के लिए प्रशिक्षित करने की भी है।

हर समस्या का एक ही समाधान नहीं होता

कठिनाई इस तथ्य में निहित है, कि हर कोई एक स्थापित, शब्दों की पूर्व-निर्धारित व्याख्या और सोच एवं कार्य की एक बेहद सीमित प्रणाली का गुलाम बन जाता है। सिंचाई और जल संसाधन विकास की व्याख्या, कृषि-जलवायु और सामाजिक संदर्भों को ध्यान में रखे बिना एक ही तरह से की जाती है।

बाढ़-संभावित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त खास रणनीतियाँ, उन अधिक वर्षा वाले ऊँची-नीची, चट्टानी, पहाड़ी (UHM) इलाकों के लिए उपयुक्त रणनीतियों से अलग हैं। फिर भी अधिकतर सोचने और संचालन की प्रक्रिया, इकाइयों के उपयुक्त स्तर के साथ-साथ लागत-मानदंड शायद एक ही जैसे रहते हैं। इस तरह, जब तक भारत के ‘हर खेत में पानी’ के सपने को साकार करने के लिए पर्याप्त वर्षा जल मिलता है, समस्या खेत में या तकनीक में नहीं, बल्कि मुख्य रूप से मानसिकता और नजरिए में है।

संजीव फंसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।