रायगढ़ के किसानों ने कम पानी से की, चावल की खेती

रायगढ़, महाराष्ट्र

महाराष्ट्र के कई हिस्सों में किसान, अधिक पानी से उगने वाले धान की खेती की जगह नई पद्यति के सगुणा चावल तकनीक अपना रहे हैं, जो मिट्टी और पानी के बेहतर इस्तेमाल के साथ फसल की अधिक पैदावार देता है।

श्रीनिवास पांडे ने बताया – “एक साल पहले करजत के एक खेत में ये देखने के बाद, मैंने 2017 में तीन एकड़ जमीन में सगुणा चावल तकनीक (एसआरटी) से धान लगाए। इस पद्यति से 15 क्विंटल प्रति एकड़ फसल पैदा हुई, जो परम्परागत तरीके से ज्यादा से ज्यादा 12 क्विंटल होती थी। इसके अलावा, मुझे बीज, मजदूरी, खादऔर दवाइयों में भारी बचत हुई|

एक पूर्व पत्रकार और अब नागपुर से 40 किमी दूर रामटेक के खूमारी गाँव के एक प्रगतिशील किसान, पांडे, शोलापुर, कोल्हापुर, जलगाँव, भंडारा और चंद्रपुर से आने वाले किसानों के लिए एसआरटी पर निःशुल्क कार्यशालाएँ आयोजित करते हैं।

महाराष्ट्र के चावल उगाने वाले केंद्रों में, बढ़ती संख्या में किसान, एक नई धान-बुवाई तकनीक अपना रहे हैं, जिससे उन्हें न केवल भरपूर मात्रा में उपज मिलना निश्चित हो, बल्कि मजदूरी का खर्च भी कम हो और मिट्टी की ऊपरी सतह के संरक्षण में मदद भी मिले।

चावल की फसल

चावल महाराष्ट्र की दूसरी महत्वपूर्ण फसल है और 14.99 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में लगभग 32.37 लाख टन चावल सालाना उगाया जाता है। राज्य की औसत उत्पादकता 2.01 टन प्रति हेक्टेयर है, जो देश में चावल उत्पादन में 13 वें स्थान पर आता है।

हालांकि विदर्भ क्षेत्र में अधिक जमीन में धान लगाया जाता है, लेकिन रत्नागिरी, सिंधुदुर्ग, ठाणे और रायगढ़ जिले कोंकण क्षेत्र में आते हैं, जहां राज्य की 42.91%  पैदावार होती है।

अधिक पानी से उगने वाले धान को उगाने के लिए, गहरी जुताई करनी पड़ती है और मिट्टी को पानी से तर करने के बाद धान की रोपाई करनी पड़ती है। जुताई करने से 10 से 12 इंच तक गहरी मिट्टी ढीली हो जाती है। पीढ़ी दर पीढ़ी किसान मानते आए हैं, कि फसल केवल तब अच्छी होगी, जब उसकी जुताई अच्छी तरह से की जाए। लेकिन देश में जल संकट को देखते हुए, पारंपरिक विधि से उगाए धान के लिए पानी की भारी खपत पूरे भारत में एक चिंता का विषय है|

सगुणा चावल तकनीक (एसआरटी)

कोंकण के सभी वर्गों के किसान परंपरागत पानी से तराई और रोपाई विधि को छोड़ रहे हैं। पड़ोसी के खेत से प्रभावित होकर या वीडियो-बातचीत के मंच के माध्यम से जान कर, वे धान की खेती के लिए संरक्षण कृषि तकनीक अपना रहे हैं| 

नागपुर के रामटेक से रायगढ़ के कर्जत तक, पुणे के मावल से सतारा के जावली तक, अहमदनगर के भंडारधारा से ठाणे के शाहपुर तक, गढ़चिरौली के अरमोरी से लेकर चंद्रपुर के मूल तक, महाराष्ट्र के अनेक जिलों के किसान शून्य-जुताई वाली एसआरटी को अपना रहे हैं, जिसे महाराष्ट्र सरकार द्वारा कृषि भूषण पुरस्कार से सम्मानित, एक प्रगतिशील किसान, चंद्रशेखर भडसावले द्वारा विकसित किया गया है।

सगुणा चावल तकनीक के बारे में जानने के लिए गुन्थरा में भोयार (दाईं ओर अंत में) के खेत पर किसानों के समूह आते हैं (छायाकार – हिरेन कुमार बोस)

भडसावले ने VillageSquare.in को बताया – “बिना जुताई, पानी की तराई, रोपाई और गुड़ाई के, बारी-बारी से उगाई जाने वाली फसलों के लिए एसआरटी की उठी-हुई क्यारी तकनीक का इस्तेमाल भारत जैसे चावल उगाने वाले देशों के लिए एक पूर्ण समाधान है, जहां भोजन की कमी और अनुकूल वातावरण का विकास एक समस्या है।”

शुरुआत

रत्नागिरी स्थित कोंकण कृषि विद्यापीठ के स्नातक, 60 के दशक के अंत की आयु के, भडसावले ने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से खाद्य प्रौद्योगिकी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की और वहां विभिन्न खाद्य-संबंधित कंपनियों में काम किया।

वह अपने स्वतंत्रता सेनानी  पिता के आदेश पर, 1976 में भारत लौट आए, ताकि मुंबई से 79 किमी दूर, रायगढ़ जिले के नेरल में, 52 एकड़ में फैला, राज्य का पहला कृषि-पर्यटन उपक्रम, ‘सगुणा बाग’ स्थापित कर सकें।

एसआरटी, जिसका विकास उन्होंने 2011 में किया और दो साल बाद प्रचार शुरू किया, की बारीकियों को समझाते हुए भडसावले ने बताया – “मेरे पिता, जो आदिवासियों के बीच काम करते थे, ने जोर दिया कि मैं कृषि के क्षेत्र में काम करुँ और तब से मैं इस पर काम कर रहा हूं|”

विधि

एसआरटी में, उठी हुई क्यारी तैयार करने के बाद, एक पहले से तैयार, लोहे के फ्रेम से छेद बनाए जाते हैं, दानेदार खाद के साथ मिलाकर बीज को मिट्टी में डाला जाता है और बारिश या सिंचाई से गीली मिट्टी खरपतवारनाशक (दवाई) का छिड़काव किया जाता है।

एसआरटी विधि में, उठाया हुई क्यारी को अगली फसलों के लिए तोड़ा नहीं जाता। धान की कटाई के बाद, उसकी पुराली को हटाया नहीं जाता, बल्कि खरपतवार के एक और छिड़काव के साथ अगली फसल के लिए तैयार करने तक रहने दिया जाता है।

मूंगफली, गेहूं, सोयाबीन, मक्का, सब्जियाँ, सूरजमुखी, आदि की अगली फसल उसी क्यारी पर पुराली के बीच में लगाई जाती है। उठी हुई क्यारी का उपयोग एक फसल के बाद एक, लगातार पांच से छह वर्षों के लिए किया जा सकता है, जिसके परिणामस्वरूप मिट्टी में कार्बन की मात्रा बढ़ती है।

फ़ायदे

एसआरटी के फायदे हैं – कम लागत, कटाव नियंत्रण, मिट्टी के सघनीकरण में कमी और शायद, समय के साथ मिट्टी का बेहतर होना है, जिससे मौजूदा समय की पद्यतियों में देखी जा रही, संसाधनों के ह्रास और प्रदूषण जैसी बाधाओं को दूर करने में मदद मिलती है।

नई प्रणाली फसल का ढांचा और जमीन का प्रारूप बदल देती है| इसका सिंचाई और जल निकासी पर अधिक प्रभावी नियंत्रण होता है, उनके पोषक तत्वों की पहुँच और कायापलट और वर्षा-जल प्रबंधन पर प्रभाव पड़ता है। भडसावले कहते हैं – “अपनी उठी हुई क्यारी में बीज डालने की तकनीक के माध्यम से, मिट्टी के जैविक कार्बन को वर्तमान 0.5% के मुकाबले 2.5% तक प्राप्त करने की हमारी योजना है।”

नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) के साथ काम कर चुके और वर्तमान में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS) में मानद टाटा चेयर प्रोफेसर, एम. वी. अशोक ने बताया – “इस तकनीक से कृषि को पूरी तरह टिकाऊ बनाने का प्रयास है, ताकि पूरा वातावरण तंत्र, सभी डाली जाने वाली वस्तुओं, जैसे पानी, खाद, बीज, खरपतवारनाशक आदि का सही उपयोग सुनिश्चित करने के लिए समृद्ध हो जाए। संक्षेप में, कम सामग्री डाल कर अधिक उत्पादन प्राप्त करना।”

तुकाराम हाबले, करजत गाँव के अपने खेत में सगुणा चावल तकनीक का इस्तेमाल करते हैं (छायाकार – हिरेन कुमार बोस)

अशोक ने जनवरी में ऊटी में आयोजित, जलवायु परिवर्तन प्रभाव को कम करने के लिए, किसान-अनुकूल जल संरक्षण तकनीकों पर राष्ट्रीय सम्मेलन में एसआरटी पर एक पेपर प्रस्तुत किया था|

VillageSquare.in से बात करते हुए उन्होंने बताया – “फसल उगाने की यह पद्धतियां पर्यावरण को प्रदूषित नहीं करती, बल्कि मिट्टी के कटाव को रोकने, मिट्टी का उपजाऊपन बढ़ाने और ख़राब हो गए वातावरण तंत्र की मरम्मत जैसे कई मापदंडों पर इसे बेहतर बनाता है।”

बढ़ता उपयोग

हमेशा नई फसलों और खेती के तरीकों की तलाश में रहने वाले, गुन्थरा गाँव के एक स्नातकोत्तर, महेश भोयार (30) ने आधा एकड़ जमीन में एसआरटी पद्धति का इस्तेमाल किया और वे उसकी पैदावार से प्रभावित हुए। भोयार ने VillageSquare.in को बताया – “मेरी डेढ़ एकड़ के अपने पूरे खेत में इसे आजमाने की योजना है।”

इसी तरह, पुणे के मावल तालुक के गामनोली गांव के अनंत काले (44), जिन्होंने एक गुंठा (1100 वर्ग फुट) जमीन पर इस तकनीक को आजमाया, को 80 किलोग्राम चावल की उपज प्राप्त हुई। उन्होंने रबी के मौसम में सलाद-पत्ता उगाया और इस बार उन्हें 20 टन सब्जी मिली।

चंद्रपुर में सावली तालुक के बोथली गाँव के, अरविंद मुप्पवार (45), जिन्होंने 2016 में चार एकड़ जमीन में एसआरटी तकनीक से खेती की, को प्रति एकड़ 24 क्विंटल चावल प्राप्त हुआ। 2013 में करजत के लगभग 30 किसानों से शुरू की गई एसआरटी, इस समय राज्य भर में 3,000 से अधिक किसानों द्वारा इस्तेमाल की जा रही है।

मान्य तकनीक

हालांकि इस तकनीक को अभी राज्य के चावल अनुसंधान संस्थान में काम करने वाले कृषिविदों द्वारा स्वीकार किया जाना बाकि है, लेकिन इसे महाराष्ट्र के कृषि विभाग द्वारा उनके पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप-एकीकृत कृषि विकास कार्यक्रम के लिए स्वीकार किया गया है, जिसका उद्देश्य पैदावार को बनाए रखकर लागत कम करना है।

कृषि विभाग ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन 2015-16 के अंतर्गत, जौली तालुक के मेधा और कुडाल में एक प्रकार के प्रदर्शन प्रयास के रूप में एसआरटी तकनीक आजमाई, और निष्कर्ष निकाला कि पारंपरिक तरीके की तुलना में, खरपतवारनाशक का कम उपयोग, पौधे की बेहतर ऊंचाई और अधिक पैदावार देने के कारण एसआरटी तकनीक सफल रही।

क्षेत्रीय कृषि अनुसंधान केंद्र, रायगढ़ के करजत में, कृषि वैज्ञानिक अनंत सदाशिव दलवी ने एसआरटी की खूबियों, जैसे – कम लागत, मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और बेहतर पैदावार को मानते हुए कहा कि उनका मानना ​​है कि इसमें पारंपरिक पद्धति वाली एक खामी है। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “यह समस्या है खरपतवार की|” 

इस बीच, भडसावले और उनकी टीम को विश्व बैंक द्वारा समर्थित, महाराष्ट्र के प्रोजेक्ट ऑन क्लाइमेट रेसिलिएंट एग्रीकल्चर (POCRA), यानि वातावरण-अनुकूल खेती पर परियोजना) द्वारा मराठवाड़ा और विदर्भ के सूखाग्रस्त क्षेत्रों के किसानों को प्रशिक्षित करने का काम सौंपा गया है। अब तक औरंगाबाद, परभणी, बीड़, नांदेड़, उस्मानाबाद, लातूर और जालना के लगभग 50 किसानों ने सगुणा बाग़ में एसआरटी प्रशिक्षण में भाग लिया है और आने वाले मानसून में धान बोने के लिए इस तकनीक का इस्तेमाल करेंगे।

हिरेन कुमार बोस महाराष्ट्र के ठाणे में स्थित एक पत्रकार हैं। वह सप्ताहांत में किसान के रूप में  काम करते हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।