सिंचाई के सम्बन्ध में वर्षा-जल संग्रहण भविष्य का सबसे अच्छा विकल्प है

भारत में जैसे जैसे गहन खेती का विस्तार हो रहा है, उसके लिए बहु-फसलीय खेती में भूजल के अव्यवहारिक लगातार मौजूदा उपयोग की बजाय, वर्षा-जल संग्रहण को तत्काल रूप से बढ़ावा देने की जरूरत है।

भूजल के बढ़ रहे अनुचित और अव्यवहारिक उपयोग और सिंचाई बढ़ती मांग को लेकर चिंता गहरी हो रही है। मेरे लिए पिछले तीन दशकों से मानसिक व्यस्तता का यह मुख्य कारण रही है। यह 1990 की बात है, जब मैंने पश्चिम बंगाल के पुरुलिया और बांकुरा जिलों और साथ लगते झारखंड के क्षेत्रों में खेती की समस्याओं को समझना शुरू किया, तो मुझे एहसास हुआ कि जब तक किसानों को अपने खुद के खेत में वर्षा-जल के संरक्षण के लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाएगा, तब तक सूखे की अवधि में बचाते हुए उनकी फसलों के लिए पानी की जरूरत को पूरा करना मुश्किल होगा।

सिंचाई के बुनियादी ढाँचे बनाने के मुद्दे पर किसानों के साथ मेरा जुड़ाव, इस समझ पर आधारित था कि, जब तक हम अपनी जमीन में पड़ने वाले वर्षा-जल का सर्वोत्तम प्रयोग नहीं कर लेते, हमें दूसरे जल संसाधनों के दोहन के बारे में नहीं सोचना चाहिए। उस समय मैंने यह प्रस्ताव किया था, कि प्रत्येक खेत या प्रत्येक किसान की जमीन के कम से कम 5% हिस्से को छोटे जल संग्रहण ढांचे के रूप में विकसित किया जाना चाहिए।

यह बात इस सन्दर्भ में थी, कि जब किसान खासतौर से अपनी खरीफ (गर्मी की) फसल, धान को पकने के दौरान पानी की कमी से बचाने के लिए चिंतित थे। यह विचार पुरुलिया के कई ग्रामीण समुदायों के साथ बातचीत से सामने आया था। यदि 100 हेक्टेयर जमीन में वर्षा-जल संग्रहण का काम करना है, तो इसके 5 हेक्टेयर में जल-श्रोत होंगे और प्रत्येक किसान का मुफ्त और जरूरी पानी के लिए इन श्रोतों पर पूरा नियंत्रण होगा।

बड़े बांध और नहर से सिंचाई के विपरीत, समता के मुद्दे का समाधान भूमि उपचार के डिजाइन के भीतर ही निहित था। इसमें विभिन्न स्तर की सफलता देखने को मिली। कुछ गाँवों में, जहाँ मिट्टी उतनी रेतीली या दोमट नहीं थी, वहाँ 24 दिनों (जैसा सितंबर 1992 में देखा गया) तक बिना बारिश के भी, सिंचाई की कोई जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि 5% मॉडल के अंतर्गत उपचार के कारण खेत में स्थानीय नमी बढ़ गई थी।

अधिक सुनियोजित दृष्टिकोण की जरूरत 

हालांकि, पिछले तीन दशकों में सिंचाई की मांग बढ़ी है। किसान दो से तीन फसलें ऊगा रहे हैं। इसलिए, एक उपयुक्त डिज़ाइन तैयार करने के लिए वर्षा-जल के संग्रहण के अधिक सुनियोजित और वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है।

हाल ही में, पश्चिम बंगाल और छत्तीसगढ़ के ग्रामीण क्षेत्रों की यात्रा के दौरान, मैंने देखा कि सिंचाई की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसानों को भूजल के दोहन के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

सबमर्सिबल पम्पों से 100 फीट से 300 फीट तक से पानी खींचने का चलन अब आम बात है। कुछ स्थानों पर (जैसे कि पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर के कुलिक नदी बेसिन में), किसानों ने बताया कि उथले पानी का स्तर (50 फीट तक), जिससे रबी (सर्दियों) की फसल के लिए पानी मिलता था, अब सर्दियों में इतना नीचे चला जाता है, कि शुष्क मौसम में इसका असर स्थानीय नदी के बहाव तक को प्रभावित करता है। दूसरे नदी-बेसीनों में भी ऐसे ही अनुभव आम होने चाहिए।

अब किसान गहरे नलकूप लगा रहे हैं और उसका पानी बेच रहे हैं, जिससे वे हर सीजन में 2000 से 3000 रुपये प्रति बीघा (स्थानीय इकाई के अनुसार 0.3 से 0.5 एकड़) कमा रहे हैं। इस प्रकार, 25 बीघा में पानी की आपूर्ति करके एक नलकूप मालिक, 1,00,000 से 150,000 रुपये का निवेश के साथ, एक फसल के सीजन में 50,000 से 75,000 रुपये कमा रहा है। इस तरह, एक सांझी संपत्ति का उपयोग, जल-श्रोत के ह्रास के लिए बिना किसी जवाबदेही के, व्यक्तिगत लाभ के लिए किया जा रहा है।

खेत सिंचाई का 5% मॉडल, गर्मियों की धान की फसल को शुष्क अंतरालों से बचाने में सहायक है।

आम हिसाब लगाने से पता चलता है, कि सर्दियों की एक एकड़ फसल को, किस्म के अनुसार लगभग 3,000 से 5,000 क्यूबिक मीटर पानी की जरूरत होती है। यदि प्रत्येक सिंचाई में 5 से.मी. पानी चाहिए, तो एक फसल की छह सिंचाई में 30 से.मी., और 10 सिंचाई में 50 से.मी. पानी की जरूरत होगी। इस गहराई को भूमि के क्षेत्रफल से गुणा करके, क्यूबिक मीटर में पानी की मात्रा प्राप्त की जा सकती है। यह संभव है कि एक नलकूप मालिक 50,000 रुपये कमाने के लिए हर सीजन में, 100,000 क्यूबिक मीटर पानी खींच रहा हो। यह मोटा हिसाब है।

इस प्रकार हम मान सकते हैं, कि 1 क्यूबिक मीटर पानी के लिए, जल-श्रोत के घनत्व के रूप में स्तर को 4 से 5 क्यूबिक मीटर कम कर दिया जाता है। अर्थात, 100,000 क्यूबिक मीटर पानी के लिए, 400,000 से 500,000 क्यूबिक मीटर जल-श्रोत मात्रा की जरूरत होती है। जितना गहरा जल-श्रोत का स्तर होगा, उतनी ही मॉनसून वर्षा से कुदरती पुनर्भरण की सम्भावना कम होगी। यह किसी क्षेत्र में भविष्य की जल उपलब्धता को बुरी तरह प्रभावित करेगा।

भूजल दोहन नियंत्रित हो

इसलिए, भूजल दोहन के नियमन के लिए नीतियां बनाने की आवश्यकता है। साथ ही, हम गहन खेती के विकास को रोक नहीं सकते हैं। अतिरिक्त पानी आएगा कहां से? मेरी समझ से, वर्षा-जल संग्रहण एकमात्र टिकाऊ समाधान है। भविष्य की परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए, सभी राज्य सरकारों को, सिंचाई की मांग के वैज्ञानिक आंकलन के आधार पर, वर्षा-जल संग्रहण को बढ़ावा देने के लिए नीतियां  बनानी चाहिए।

मांग का कम से कम 70% वर्षा-जल संग्रहण द्वारा पूरा होना चाहिए। खेती के लिए ज़मीन की उपलब्धता कम होने के खतरे से, खेती में तेजी और विविधता लाकर निपटा जा सकता है। फिर, इसमें गहरे तकनीकी मामले शामिल हैं और यह लेख उनके लिए उपयुक्त जगह नहीं है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के अंतर्गत विभिन्न राज्य सरकारों ने इस दिशा में बहुत सी पहल की हैं, लेकिन नाजायज फायदा उठाने से रोकने के लिए, उन्हें सही नीतियों के द्वारा मजबूत करने की आवश्यकता है।

कुछ विकास विशेषज्ञों का कहना है, कि क्योंकि भूजल में गिरावट एक राष्ट्रीय समस्या है, तो वर्षा-जल संग्रहण का जिम्मा केवल किसानों पर ही क्यों होना चाहिए? हमें समझना चाहिए कि सभी क्षेत्रों में कुल राष्ट्रीय जल उपयोग का लगभग 80% या उससे भी अधिक पानी का उपयोग खेती के लिए किया जाता है। उस पर, 70% या अधिक वर्षा का पानी भी ग्रामीण क्षेत्रों में गिरता है, क्योंकि खेत भारत के भौगोलिक क्षेत्र का 60% हिस्सा हैं, और वन 23% हैं। मैं यह भी मानकर चलूँगा, कि लगभग 60% पानी सीधे खेतों में गिरता है।

यह माना जा सकता है कि बह जाने वाला पानी भी भूमि के क्षेत्रवार वितरण के अनुपात में ही है। इसलिए, वर्षा-जल संग्रहण की संभावना संबंधित क्षेत्रों से बहने वाले पानी की मात्रा के अनुपात में है। इससे पता चलता है कि वर्षा-जल संग्रहण की संभावनाओं के मामले में खेत महत्वपूर्ण हैं।

इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए किसानों को जिम्मेदार क्यों बनाया जाना चाहिए? एक राष्ट्र के रूप में हम सभी जिम्मेदार हैं, लेकिन क्योंकि भूमि का स्वामित्व निजी है, ऐसे में यदि किसान तैयार न हों, तो हम कोई आंदोलन कैसे शुरू कर सकते हैं? अगर मेरी जमीन में बारिश का पानी उपलब्ध होता है, तो मेरे अलावा कोई और कैसे और क्यों इसका संग्रहण कर सकता है? ऐसे बहुत से उदाहरण हैं, कि किसान खेती की भूमि को जल संग्रहण के ढांचों के रूप में विकसित करके, खेत में जल उपलब्धता बढ़ा सकते हैं।

किसानों का काम 

वर्तमान संदर्भ में, यह किसान की जिम्मेदारी होनी चाहिए, कि उस जल का संग्रहण करें, जिसका इस्तेमाल वे अपनी आजीविका कमाने के लिए करते हैं। यदि कोई एक एकड़ गेंहू या सब्जियां उगाने के लिए, 2,000 क्यूबिक मीटर पानी का उपयोग कर रहा है (नदी, भूजल या टैंक से पम्प करके), तो उसके वातावरण में उतनी ही मात्रा में पानी वापिस डालने की जिम्मेदारी और किसकी होगी, जिसकी जरूरत अगले साल की फसल के लिए खुद उसे ही पड़ेगी?

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि जल विभाजन में राजनीति होती है। और स्थानीय से अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक और अधिक आक्रामक राजनीतिक तनाव होने जा रहा है। लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि पानी की कमी की समस्या से राजनीति और सत्ता के खेल के माध्यम से नहीं निपटा जा सकता। सबसे पहली बात, जल संसाधन प्रबंधन में बड़ी तकनीकी सफलता हासिल करना जरूरी है। दूसरे, प्रौद्योगिकियों के अधिक प्रभावी विस्तार की आवश्यकता है। तीसरा, इस्तेमाल किए जाने वाले पानी की मात्रा के हिसाब से, पानी उपयोगकर्ता को जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने के लिए नीति के समर्थन की आवश्यकता है।

सभी हितधारकों को, विशेष रूप से किसानों और सरकार की करीबी संस्थाओं को, खासतौर पर पंचायती राज संस्थाओं को, अपने स्वयं के जल संसाधन विकसित करने के लिए सहायता में और आवश्यक नीतियों के साथ जिम्मेदार और जवाबदेह बनाने में सहायता मिलनी चाहिए। जो लोग अपने वातावरण में जल संसाधन के पुनर्भरण में योगदान नहीं देते, उन्हें खेती के लिए अन्य स्रोतों से पानी लेने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। हम तभी यह सुनिश्चित कर पाएंगे कि वर्षा-जल संग्रहण से भारत की कृषि आगे बढ़ती है, न कि भूजल दोहन से।

दीनबंधु कर्माकर एक ग्रामीण विकास प्रोफेशनल हैं। उन्होंने 25 साल से अधिक समय तक ‘प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (प्रदान) के लिए जमीनी स्तर पर काम किया है। विचार व्यक्तिगत हैं।