आर्थिक लोकतंत्र के बारे में महात्मा गांधी की अवधारणा से सबक

ग्राम स्वराज पर महात्मा गांधी की सोच और रचनात्मक स्थानीयकरण के माध्यम से आर्थिक लोकतंत्र पर उनके विचार, ग्रामीण समाज और अर्थव्यवस्था के सतत विकास का अधिक जीवंत मॉडल तैयार के लिए, नया लॉन्च पैड साबित हो सकते हैं।

2 अक्टूबर को विलेज स्क्वायर नाम के एक सूचना और संचार मंच की शुरुआत का आसानी से यह गलत मतलब निकाला जा सकता है, कि अभी भी महात्मा गांधी के विचार, इस विषय में अंतिम शब्द हैं कि ग्रामीण खुशहाली कैसे लाई जा सकती है। इसके विपरीत, विलेज स्क्वायर के जन्म के लिए गांधी जयंती एकदम सही दिन है, क्योंकि उन्होंने अपने पीछे एक अधिक व्यापक लक्ष्य, यानि आर्थिक लोकतंत्र, की प्रमुख अवधारणा छोड़ी है।

गांधी के रचनात्मक कार्यों में चरखा, खादी और ग्रामोद्योग की प्रमुखता ने इस तथ्य को धुँधला कर दिया है, कि ये एक महत्वाकांक्षी संरचनात्मक बदलाव के तत्व मात्र थे। शहरों के मुकाबले गाँवों को प्राथमिकता देना, एक महत्वपूर्ण तत्व जरूर था, लेकिन गांधी की मौलिक सोच का सार नहीं था।

उस परिकल्पना का निचोड़ यह था कि समाज और अर्थव्यवस्था के सभी स्तरों पर, लोगों को प्रतिनिधित्व की बेहतर भावना का उपयोग करने में सक्षम होना चाहिए, विशेषकर अपने खुद के उत्साह और इच्छाओं पर नियंत्रण के ‘स्वराज’ के रूप में। यह वह स्थान है, जहां अधिकारों के मुकाबले कर्तव्यों पर अधिक जोर देना महत्वपूर्ण है। दूसरे, प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं की सहायता करने और दूसरों के साथ सहयोग करते हुए सामूहिक हित की संरचनाएं तैयार करने के लिए सशक्तिकरण की अनुभूति हो।

आज इसका अर्थ क्या है?

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में, जब गांधी इस बात का उत्तर तलाश रहे थे, कि भारत की औपनिवेशिक लूट और उद्योंगो को ध्वस्त करने की प्रक्रिया से हुए नुकसान को कैसे सुधारा जाए, तो गाँव के शिल्प को पुनर्स्थापित करना सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य था। यह अब पर्याप्त नहीं है| यह सिर्फ इसलिए अपर्याप्त नहीं, कि सरकार समर्थित खादी और ग्रामोद्योग उद्यम एक दलदल में डूब चुके हैं।

इसके बजाय, मायने यह हैं कि स्थानीय अर्थव्यवस्था में व्यापक वृद्धि हो, जिसमें पर्यावरण संतुलन, विशेषकर जल एवं मिट्टी प्रबंधन बहाल हो| यह वृद्धि निजी उद्यम और सामुदायिक दोनों को बढ़ावा दे; और यह सुनिश्चित करे कि अतिरिक्त संसाधन बाहर राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने की बजाय, अधिक से अधिक स्थानीय स्तर पर बना रहे।

अपनी गहन राजनीतिक सक्रियता और लेखन के समय में, गांधी ने इस बात पर जोर दिया कि उनके सपनों का गाँव कहीं अस्तित्व में नहीं है। इसी प्रकार आज भी वैसे स्थानों की केवल आंशिक झलकियाँ ही मिलती हैं, जहाँ उन उद्देश्यों की पूर्ती हो रही हो। उदाहरण के लिए, आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले में, टिम्बकटू कलेक्टिव की ‘धरनी’ पहल एक साथ इन सभी उद्देश्यों की पूर्ती करती है। http://timbaktu-organic.org/

लेकिन पिछली आधी शताब्दी के अनुभव से पता चलता है, कि इस तरह के सूक्ष्म सफल प्रयास अनेक जगह कार्यान्वित करना ही काफी नहीं है। यह कहीं अधिक महत्वपूर्ण है, कि अवधारणा के स्तर पर और व्यापक, राष्ट्रीय नीति में, बदलाव के लिए काम किया जाए।

इस जटिल कार्य से जुड़े आयाम इतने अधिक हैं, कि उनका ब्यौरा यहाँ नहीं रखा जा सकता। लेकिन इसके कुछ महत्वपूर्ण बिंदु इस प्रकार हैं।

बड़े उद्योंगो और दूसरी परियोजनाओं के कारण विस्थापन के विरुद्ध, दुनिया भर के लोगों द्वारा किए जाने वाले संघर्ष को, तथाकथित विकास के विरोध के रूप में न देख कर, स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं की रक्षा के अंतिम कदम के रूप में देखा जाना चाहिए। जिसका मतलब यह है, कि जरूरत के अनुसार आवश्यकता पूर्ती की धारणाओं के आधार पर गुजर-बसर की अर्थव्यवस्थाओं या जीवनशैली को पिछड़ी सोच मानने की जगह, उनका सम्मान किया जाना चाहिए।

रचनात्मक स्थानीयकरण

इस समय रचनात्मक स्थानीयकरण का रुझान दुनिया भर में है, जिसका बारीकी से विश्लेषण करने और उसे समझने की जरूरत है, जिसका लक्ष्य ऊपर उल्लेखित शर्तों को पूरा करना है| यह उस तरह के राष्ट्रवाद और अलगाववादी ऊर्जा से अलग है, जैसे यूनाइटेड किंगडम में ब्रेक्सिट बहस के दौरान सामने आए। बल्कि इसका मतलब यह है कि मौजूदा और भविष्य के वैश्विक व्यापार समझौतों के मामले में, यह पुनर्विचार करने की जरूरत है, कि इससे आर्थिक लोकतंत्र और रचनात्मक स्थानीयकरण को बढ़ावा मिलेगा या वे खतरे में पड़ेंगे। उदाहरण के रूप में, इसके लिए एक लिटमस टेस्ट यह हो सकता है दूसरे देशों को केक भेजे जा रहे हैं या केक बनाने की विधि।

ऊपर उल्लेखित तीन लक्ष्यों के संदर्भ में, टेक्नोलॉजी में तेजी से हो रहे बदलावों का विश्लेषण करने की आवश्यकता है। आर्थिक लोकतंत्र की तलाश में, यह चुनौती सबसे अधिक विरोधाभासी हो सकती है। उदाहरण के लिए, मोबाइल फोन, संचार के लोकतांत्रिकरण के लिए और सूचनाओं तक पहुँच सुनिश्चित करने में सहायक हैं। लेकिन अभी तक, अर्थव्यवस्था के सभी स्तरों से, हार्डवेयर और कनेक्टिविटी, दोनों का लाभ नियमित रूप से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में जा रहा है।

इस समय, चरखे के बजाय बीज आत्मनिर्भरता और आर्थिक लोकतंत्र का एक प्रतीक है। अगले दशक में भूमि सम्बन्धी नीतियां और टेक्नोलॉजी कृषि को किस तरह का आकार देती हैं, शायद उससे तय होगा कि आर्थिक लोकतंत्र में जान फूंकी जाएगी या यह एक विडंबना साबित होगी। इसका उत्तर औद्योगिक और जैविक कृषि के मिश्रण में मिल सकता है।

हम इसकी शुरुआत, महात्मा गांधी ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा), जिसके अंतर्गत गांवों के गरीब परिवारों को हर साल 100 दिन का काम सुनिश्चित होता है, और भोजन के अधिकार को किसी एम्बुलेंस सेवा की तरह, आपातकालीन उपायों के रूप में मानकर कर सकते हैं। हमें उन सभी तरीके के उपायों को आजमाना होगा, जिनसे स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को इतना समृद्ध किया जा सके, कि ये योजनाएं बेकार हो जाएं और इनकी मांग करने वाला न मिले।

रजनी बख्शी मुंबई स्थित एक थिंक टैंक, गेटवे हाउस: इंडियन काउंसिल ऑन ग्लोबल रिलेशंस, में गाँधी पीस फेलो हैं। वह “बापू कुटी: जर्नीज़ इन रिडिस्कवरी ऑफ़ गांधी, एन इकोनॉमिक्स फ़ॉर वेल-बीइंग, एंड बाज़ार्स, कन्वर्सेशन्स एंड फ़्रीडम” की लेखिका हैं।