बंगाल की महिलाओं ने टर्की में पाई एक व्यवाहरिक आजीविका

दक्षिण 24 परगना, पश्चिम बंगाल

बाधाओं और स्व-रोजगार की परियोजनाओं की विफलता पर काबू पाते हुए, महिला स्व-सहायता समूहों के सदस्यों ने दृढ़ता से काम जारी रखा और टर्की पालन को अपनाकर एक सफल आजीविका के लिए रुझान हासिल किया

नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर एंड रूरल डेवलपमेंट (NABARD) द्वारा, भारत में माइक्रोफाइनेंस पर निकाली गई रिपोर्ट से पता चलता है, कि पश्चिम बंगाल में SHG-बैंक लिंकेज प्रोग्राम (SHG-BLP) के अंतर्गत स्वयं सहायता समूहों (SHG) का कवरेज 2015-16 में 3.44 लाख से बढ़कर, 2016-17 में 4.46 लाख तक पहुँच गया।

यह संख्या भले ही प्रभावशाली लगे, लेकिन यह कटु सत्य को स्पष्ट नहीं करते। स्व-सहायता समूहों के माध्यम से एक लाभकारी और निरंतर स्व-रोजगार मिलना और बनाए रखना कठिन है, खासकर ग्रामीण महिलाओं के लिए, जो बाजार से संपर्कों के मामले में काफी सक्षम नहीं हैं।

इन सभी बाधाओं के बावजूद, ममता नाडु और चार स्व-सहायता समूह – जननी, मा तारा, पुष्पा और मातंगिनी – की कहानी, जिन्होंने टर्कीपालन शुरू किया, उन ग्रामीण महिलाओं के लिए उम्मीद पेश करती हैं, जिनका इनसे बहुत कम वास्ता पड़ा है, लेकिन जो कड़ी मेहनत करने और अवसर को लाभ में बदलने के लिए तैयार हैं।

गरीबी उन्मूलन

देश में सबसे लंबे समय तक चलने वाली गरीबी उन्मूलन योजना (1978-1999), एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (IRDP) का नाम बदलकर स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना रखा गया। IRDP की परिवार-आधारित सहायता नीति को गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) के ग्रामीण गरीबों को, बैंक ऋण और सरकारी अनुदान के माध्यम से,आय-संवर्धन हेतु सूक्ष्म उद्यम स्थापित करने के लिए सहायता में बदल दिया।

पश्चिम बंगाल सरकार का पंचायत और ग्रामीण विकास विभाग, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के कार्यान्वयन के लिए नोडल एजेंसी है। जिला स्तर पर, स्थानीय स्व-शासन की तीन-स्तरीय व्यवस्था, जिला परिषद इसके इसके लिए कार्यान्वयन एजेंसी है।

2014 में, एक जिला परिषद की बैठक में, स्थानीय स्व-शासन के प्रतिनिधियों ने बोनहुगली 2 पंचायत में ग्रामीणों को कहा, कि ‘आजीविका – राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन’ (पहले स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना) के अंतर्गत सरकारी सहायता प्राप्त करने के लिए वे स्व-सहायता समूह बनाएं।

स्व-सहायता समूहों का गठन

गॉंव के स्तर पर स्व-सहायता समूह बनाना एक नियमित सी बात थी। लेकिन स्व-रोजगार पैदा करना और बनाए रखना, उन महिलाओं के लिए एक चुनौती था, जिनकी बाजारों तक पहुंच नहीं थी। जैसा कि जिला परिषद की बैठक में बताया गया, महिलाएं स्व-सहायता समूह बनाने में संकोच कर रही थीं।

लागत कम करने और आमदनी बढ़ाने के लिए, महिलाएं टीकाकरण समय का पालन करती हैं, और अज़ोला फ़ीड उगाती हैं (छायाकार – ध्रुब दास गुप्ता)

बोनहुगली 2 ग्राम पंचायत के दूसरे सभी गॉंवों की तरह, बलरामपुर में कृषि रोजगार का प्रमुख माध्यम थी। दूसरे कामों में लगी महिलाओं का प्रतिशत बहुत कम था। 25 साल से अधिक समय से शादीशुदा, ममता नाडु बलरामपुर में एक आम गृहिणी थी।

नाडु और बलरामपुर और नोना जॉयकृष्णापुर गाँवों की अन्य महिलाओं ने अपनी हिचक से मुक्त होकर कई महीनों तक चर्चा की और 2014 के अंत तक एक स्व-सहायता समूह का गठन किया। सात समूहों का गठन किया गया, जिसमें प्रत्येक सदस्य प्रति माह 50 रुपये बचाने के लिए तैयार था।

उन्होंने रोजगार के आम रास्ते चुने – सिलाई, ब्यूटीशियन का प्रशिक्षण, सब्जी उगाना और मछली पालन। उन्होने आमदनी के श्रोत के रूप में आँगन-आधारित पशुपालन के बारे में नहीं सोचा, जिसका मुख्य कारण था इसके लिए आवश्यक प्रशिक्षण और बाजारों तक उनकी पहुंच का अभाव।

बाधाओं पर काबू पाना

इसमें महिलाओं को बाधाओं का सामना करना पड़ा। स्थानीय स्तर पर राजनीतिक हस्तक्षेप था। समूहों में से तीन टूट गए। पुष्पा समूह की सुजाता मंडल ने VillageSquare.in को बताया – “हालांकि हम नियमित रूप से बैठक करते थे, लेकिन हमारे पास व्यक्तिगत आमदनी के स्रोत नहीं थे, और हम एक अर्थपूर्ण रोजगार के लिए बेचैन थे।”

उन्होंने प्रत्येक समूह के लिए एक सिलाई मशीन खरीदी थी, लेकिन उसके लिए जरूरी ऑर्डर नहीं मिल सके। नाडु ने बताया – “हम रोजगार दूसरे रास्तों की कोशिश में सफल नहीं हुए और हम निराश थे।” महिलाओं ने एक बैंक खाता खोला था, जिसमें वे दो साल से पैसा जमा कर रही थीं, इस बात से अनजान कि बैंक केवल 25 किमी के दायरे में ही समूहों को ऋण की सुविधा दे सकते हैं।

दक्षिण 24 परगना जिले में कल्याणकारी कार्य में लगी और समूहों को बैंक लिंकेज में मदद कर रही, एक गैर-सरकारी संस्था, ‘वेस्ट बंगाल ह्यूमन डेवलपमेंट सोसाइटी (WBHDS)’ के सचिव बिधान कार ने महिलाओं को निकट ही, कोलकाता के दक्षिणी इलाके के नरेंद्रपुर में, एक बैंक में खाता खोलने में मदद की। अच्छे बचत रिकॉर्ड को देखते हुए, समूह को तुरंत ऋण मिलना शुरू हो गया।

आंगन में मुर्गी पालन

नाडु ने VillageSquare.in को बताया – “लगभग एक वर्ष तक, हम समूह के सदस्यों में ही पैसा उधार दे रहे थे, लेकिन हमें कोई व्यावसायिक अवसर नहीं मिला। बैंक प्रबंधक से लगातार अनुरोध करने के बाद, उन्होंने आंगन आधारित वैज्ञानिक तरीके से मुर्गीपालन, विशेषकर टर्कीपालन सीखने के लिए, हमें ‘सश्य श्यामला कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) से जोड़ दिया।”

बाधाओं के बावजूद, समूह की महिलाओं द्वारा ढृढ़ता से टर्की पालन ने मुर्गी पालन अपनाने के लिए नए समूहों के गठन के लिए प्रेरित किया (छायाकार – ध्रुब दास गुप्ता)

दिसंबर 2017 में, कृषि विज्ञान केंद्र ने समूह की क्षमता का आंकलन किया और टर्की पर वायरस के हमलों की किसी भी संभावना को दूर करने के लिए, पूरे गांव की मुर्गियों का टीकाकरण किया। महिलाओं ने टीकाकरण की समय सारणी का पूरी लगन से पालन किया, जिससे मृत्यु दर कम से कम हो गई। माँ तारा समूह की, प्रतिमा कायल ने VillageSquare.in को बताया – “हमें एक तेज और असरदार आय सृजन का रास्ता सुझाने के  लिए, हम आईडीबीआई बैंक के प्रबंधक डॉ. सुभकीर्ति साहा के आभारी हैं।”

महिलाओं ने फीड के रूप में खिलाने के लिए, प्रोटीन, विटामिन और खनिजों से भरपूर, पानी का पौधा, अजोला उगाया, जिससे उसकी लागत कम हो गई। महिलाओं को सरकार के पशुपालन विभाग के अंतर्गत, कृषि विज्ञान केंद्र और पश्चिम बंगाल पशुधन विकास निगम (एलडीसी) के बीच बाजार लिंकेज भी प्राप्त हो गया।

एलडीसी ने टॉलीगंज के पोल्ट्री फार्म के अपने काउंटर के माध्यम से उत्पाद बेचकर महिलाओं की मदद की। दिसंबर 2017 से, महिलाओं ने टर्कीपालन के दो चक्र पूरे किये हैं। पूरी तरह से विकसित पक्षी का वजन 6.5 किलोग्राम और 8 किलोग्राम के बीच होता है, जिसके लिए 250 रुपये किलो या कभी कभी इससे भी अधिक मिल जाते हैं।

ग्रामीण उद्यमी

सश्य श्यामला कृषि विज्ञान केंद्र में पशुपालन विशेषज्ञ, सर्बस्वरुप घोष ने कहा कि महिलाओं ने न केवल प्रशिक्षण को अच्छी तरह ग्रहण किया, बल्कि दस्तावेज (रिकॉर्ड) रखने के महत्व को भी समझा, जिससे उन्हें लंबे समय में मदद मिलेगी।

घोष ने VillageSquare.in को बताया – “हम उनकी इकाइयों को अग्रिम प्रदर्शनी इकाई के रूप में मानते हैं। उन्होंने अपने उद्यमशीलता की कोशिश में कर्मठता दिखाई है। हम उनका लगातार सहयोग करना चाहते हैं।” कृषि विज्ञान केंद्र ने वास्तव में महिलाओं को देसी भूरे (ब्राउन) अंडे देने वाली मुर्गियां प्रदान की, जिन्होंने अंडे देना शुरू कर दिया है।

समूह की सदस्यों के लिए ऋण राशि, उनकी जरूरतों के आधार पर, 500 से 20,000 रुपये तक होती है। वे पूरी शिद्दत से अपने खतों का रख रखाव करती हैं। महिलाओं का औसत शिक्षा स्तर 7 वीं कक्षा है, इस तथ्य को देखते हुए उनका बहीखाता रखने का तरीका प्रभावशाली है। उनकी पारदर्शिता ऐसी है, कि लेनदेन की जानकारी उन लोगों तक को भी समझाई जाती है, जिनका संख्याओं से कम वास्ता पड़ता है।

आईडीबीआई बैंक को ऋण की वापिस अदायगी, जो स्व-सहायता समूहों को तीन साल तक करनी होती है, उसपर 7% का ब्याज लगता है। फिर भी इन समूहों ने अपने ऋण का भुगतान हमेशा एक वर्ष से कम समय में किया है, और जिसपर ब्याज दर 0.9% तक रही है।

सकारात्मक प्रभाव

महिलाओं की सफलता के द्योतकों में से एक यह है कि जो पुरुष अपनी महिलाओं को शुरू में हतोत्साहित करते थे, अब उन्हें घरेलू आय में योगदान के लिए प्रोत्साहित करने के लिए, जहां तक संभव होता है मदद करने की कोशिश करते हैं।

इन समूहों की सफलता कई समूहों के गठन का आधार बनी है, जो नाडु से सहयोग प्राप्त करते हैं। एक नया समूह, चंद्रमल्लिका, पहले ही एक हिस्सा बन चुका है, जो अगले चक्र के काम की शुरुआत की प्रतीक्षा कर रहा है। महिलाओं की योजना पूरे रेंज के मुर्गीपालन करने और पशुपालन के उत्पादों की बिक्री करने की है।

कार ने VillageSquare.in को बताया – “जीवित रहने के लिए, समूहों को सही तरह की मानसिकता की आवश्यकता है। मेरे अनुभव के,अनुसार, किसी भी समूह में सामंजस्य होना आसान नहीं है, लेकिन जब यह हो जाता है, तो उद्यमशीलता की सफलता आमतौर पर दूर नहीं होती है, और नाडु और समूह इस का एक ज्वलंत उदाहरण हैं।”

ध्रुब दास गुप्ता कोलकाता स्थित एक लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।