केवल उपेक्षित भारत गाँवों में रहता है!

महात्मा गांधी के जन्मदिवस के अवसर पर, ग्रामीण भारत पर एक नज़र डालने पर पता चलता है कि हम उनके ‘आत्मनिर्भर गाँव’ के आदर्शों से बहुत पीछे रह गए हैं। इसका एक कारण आधुनिक समय में बदली हुई आकांक्षाएँ हैं।

महात्मा गांधी ने दृढ़ता से कहा था कि भारत गांवों में बसता है और हम तब तक भारत का उत्थान नहीं कर सकते, जब तक हम गांवों का उत्थान करने में असमर्थ हैं। उन्होंने ग्रामीण भारत के बारे में दो स्पष्ट संदेश दिए। पहला संदेश यह कि गाँव आर्थिक रूप से लगभग स्वतंत्र हों, और दूसरा ग्राम-स्वराज का सन्देश। यह दोनों संदेश उनके द्वारा सुझाए सिद्धांतों का आधार थे – मितव्ययी जीवन और आडंबर से बचना; चरखे का महत्व; लोगो के बीच सहयोग और सामंजस्य, और अहिंसा।

उन्होंने इस वास्तविकता की ओर ध्यान दिलाया, कि प्रत्येक वर्ष, ग्रामीण नागरिक चार महीने तक बिना किसी विशेष काम के रहते हैं, जब खेतों में कोई फसल नहीं होती। उन्होंने ग्रामीण खपत की जरूरतों को पूरा करने के लिए गांवों में ही उपयुक्त उद्योगों को स्थापित करने की आवश्यकता को समझा। साथ ही साथ उन्होंने गाँवों की दो कमियों के बारे में भी इंगित किया: निरक्षरता और आलस।

हालांकि गांधी जी दूरदृष्टी वाले व्यक्ति थे, लेकिन उनसे यह उम्मीद करना अनुचित होगा कि वे उन चार रुझानों को देख पाते, जिन्होंने देश के विकास की दिशा को बिगाड़ कर रख दिया। पहला जनसंख्या में बेतहाशा वृद्धि, जिसने कृषि-भूमि पर दबाव बढ़ा दिया। दूसरा, ग्रामीण क्षेत्रों में टेक्नोलॉजी की श्रम के स्थान पर लगातार बढ़ती घुसपैठ। तीसरा मीडिया और संचार का दखल, जिसने ग्रामीण लोगों में एक अनियंत्रित उपभोक्तावाद और शहरी आकांक्षाओं को बढ़ावा दिया। चौथा भारतीय समाज में उप-सांस्कृतिक वर्गों का प्रसार, जो विघटन और विभाजन का कारण बन गया। वे मुस्लिम लीग के गठन और बी आर अंबेडकर के दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व के लिए आंदोलन से प्रभावित, केवल चौथे रुझान को भाम्प सके।

गांधीवादी दर्शन

तो, गांधी की सोच से संबन्ध रखने वाला ग्रामीण भारत कहां है? हम शहरी लोगों ने इसे हासिल करने के लिए क्या किया है? इससे निश्चित रूप से ग्रामीण भारत की एक निराशाजनक और कष्टदायक तस्वीर चित्रित होती लगती है। यह बहुत ही सतही बात होगी, कि इस समस्या के लिए साहूकारों और कृषि-सामग्री विक्रेताओं के लालच, या फिर कृषि उत्पादों के खरीददारों को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहरा दिया जाए।

मेरे विचार से, ऐसी तस्वीर आंशिक और सरलीकृत होंगी। कई उतार-चढ़ाव इस ग्रामीण गिरावट का कारण हैं – जैसे कि उन गाँवों में रहने वाले संतोषी लोगों की गांधीवादी छवि में भारी उतार-चढ़ाव हुआ है, जो समृद्ध और खुश नजर आते हैं। इस संबन्ध में मैं एक तर्क प्रस्तुत करने की कोशिश करता हूँ।

भारतीय संविधान की अनुसूची VI के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त करने वाले देश के दूरदराज के आदिवासी क्षेत्रों के गाँवों का जीवन, महात्मा के सपनों के आत्म-निर्भर और स्व-शासित ग्रामीण-स्वराज की खुशहालीपूर्ण छवी के काफी नजदीक है। इनमें से अधिकांश पूर्वोत्तर भारत में हैं। शायद मेरा नज़रिया बचकाना और साधारण सुविधापूर्ण हो, लेकिन मुझे लगता है कि इन जगहों पर भी अब कुछ हद तक ठहराव आ गया है।

अन्यायपूर्ण एवम्‌ निरर्थक

मुझे यह अन्यायपूर्ण और निरर्थक प्रतीत होता है कि वहाँ पर रहने वाले परिवारों के बच्चे, अभी भी जंगल से जड़ों और फलों को इकट्ठा करने, बकरियों के पीछे दौड़ने और काफी निम्न-स्तर के कृषि कार्य में अपना भविष्य देखने के लिए मजबूर हैं। अन्यायपूर्ण और अनुचित मानने के दो कारण हैं। पहला कारण यह, कि ठीक इस समय, उनके विपरीत, मेरे बच्चे और निश्चित रूप से शहरी भारत में उनके हम-उम्र बच्चे, टेक्नोलॉजी-आधारित आधुनिक जीवनशैली में अपना भविष्य देखते हैं।

दूसरा कारण यह, कि भले ही उनके क्षेत्र के अधिकांश इलाकों में तोपें-बंदूकें खामोश हो गईं हों, लेकिन निकट भविष्य में, मिट्‍टी और खानें खोदने वाली मशीनें, या किसी बांध का बढ़ता हुआ बैकवाटर, उनके रमणीय वातावरण को नष्ट कर देंगे। यह उन्हें निर्दयी श्रम-बाज़ार में बिकाऊ वस्तु बना देंगे, जिससे निपटने के लिए वे कतई तैयार नहीं हैं।

मध्य-भारत के आदिवासी क्षेत्रों के अधिकांश गांव, पहले ही अपनी शांति और सुखद जीवनशैली खो चुके हैं। इसका कारण यह है कि वे औद्योगिकीकृत अर्थव्यवस्था के बढ़ते हुए क्षितिज में अधिकाधिक तेजी से खिंचे चले जा रहे हैं। वे प्रवासी मजदूरों की एक ऐसी रिज़र्व सेना के मौसमी ठिकाने बन गए हैं, जो ईंट-भट्ठों, रेस्तरां, और इस तरह की दूसरी छोटी नौकरियों में काम करने के लिए, जत्थों में चलते हैं।

इनमें से कम से कम एक तिहाई लोगों को वामपंथी उग्रवाद की ताकतों द्वारा, उन पर थोपे गए संघर्षों ने उधेड़ा है। उन्होंने विकास के लिये उनसे किए गए वादे देखे और सुने तो हैं, लेकिन पूरे होते नहीं देखे हैं। सरकार के नेतृत्व में किए जा रहे विकास के कुचल डालने वाले समरूपीकरण में, उनकी भाषा, उनकी जीवनशैली और उनकी पहचान खो जाना तय है।

बिगड़े इलाके

घनी आबादी वाले गंगा और ब्रह्मपुत्र बेसिन के गाँव बिगड़ चुके हैं। यहां जातिगत युद्ध व्याप्त हैं; शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं यदि उपलब्ध हैं भी, तो खराब हैं; और रोजगार दुर्लभ हैं। भूमि पर अत्यधिक दबाव ने इन क्षेत्रों में किसी भी बुनियादी ढांचे या आधुनिक सुविधाओं का निर्माण मुश्किल कर दिया है, और इस तरह उनकी बढ़ती आकांक्षाओं का स्थानीय स्तर पर पूरा होना मुश्किल हो गया है। इन नदियों के बेसिन में रहने वाले लोग, रोजगार की तलाश में आस-पास के कस्बों और दूर के शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। लेकिन वे ऐसा अपनी जमीन के दावे को छोड़े बिना कर रहे हैं।

हालाँकि बेहतर रूप से प्रशासित राज्यों के सूखा-संभावित क्षेत्रों के गाँवों ने, सरकार द्वारा विकास के वायदे को काफी देखा और प्राप्त किया है। इसके बावजूद उनका भाग्य शायद और भी खराब है, बदतर है। शहरों से निकटता के कारण शिक्षा तक उनकी पहुँच और उनकी आकांक्षाएं तेजी से बढ़ी हैं। फिर भी, मौसम के नियमित उतार-चढ़ाव और अधिक जोख़िम वाली नकदी फसलों पर निर्भरता की खुद से अपनाई समस्याओं ने, उनकी आर्थिक स्थिति को कमजोर कर दिया है। कर्ज़ के दबाव और निराशा की भावना ने हजारों लोगों को आत्म-हत्या के लिए मजबूर किया है।

पहली दो श्रेणियों के गांवों ने, अपने आर्थिक जीवन के लिए कम से कम आंशिक रूप से आत्म-निर्भर रहने में कामयाबी हासिल की है। कम होती कृषि भूमि और फसल-पैदावार, और बढ़ती उम्मीदों ने, दूसरी दो श्रेणियों के गाँवों के लिए आर्थिक स्वतंत्रता के सभी आयाम ख़त्म कर दिए हैं। वे व्यापक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के साथ कमोबेश पूरी तरह से जुड गए हैं।

ग्रामीण लोगों में कौशल-अभाव

उन महीनों में, जब काम उपलब्ध नहीं होता, रोजगार न मिल पाने के बावजूद यहाँ कोई स्थानीय उद्योग पैदा नहीं हो पाया। ऐसा उनकी जरूरतों में बदलाव और उनके शहरी उत्पादों के असहाय उपभोक्ता बन जाने के कारण हुआ। उनके पास बेच सकने लायक वस्तु केवल उनका श्रम है। उनके पास प्रतिस्पर्धा लायक कौशल न होने और उस पर उनकी बढ़ती आकांक्षाओं ने एक अजीब स्थिति पैदा कर दी है: वे खेती नहीं करना चाहते हैं, जो कि वे कर सकते हैं। और अन्य किसी काम के लिए वे बहुत फिट नहीं हैं।

हालाँकि सरकार की नीतियों को निर्धारित करने वाली आर्थिक विचारधारा, समाजवादी प्रभाव की केंद्रिकृत योजना से विकेन्द्रीकृत योजना की ओर बढ़ी है। यह पिछले 20 वर्षों में कुछ हद तक मुक्त बाजार व्यवस्था की ओर अग्रसर हुई है। किंतु दोनों ही स्थितियों में गांवों के आर्थिक विकास को गांधीवादी-दिशा में गंभीरता से आगे नहीं बढ़ाया गया है। हम शहरी लोगों ने अपने बेहतर संगठन और बेहतर प्रस्तुति के प्राकृतिक लाभ की स्थिति को व्यवस्थित रूप से भुनाया है। इससे राष्ट्रीय कृषि नीतियों तक में एक गहरा शहरी पूर्वाग्रह पैदा हुआ है और इसके परिणामस्वरूप लगातार गहराती कृषि आय में कमी और ग्रामीण-शहरी अंतर को बढ़ावा मिला है।

स्व-शासन/स्वराज का क्या? एस.के. डे जैसे लोगों द्वारा शुरू की गई प्रशंसनीय अवधारणा से, केवल कुछ ही राज्यों में लोकतांत्रिक पंचायती राज की स्थापना हो सकी। इनमें भी, भाईचारे, आपसी सहयोग और सद्भाव के सिद्धांत का स्थान जाति, वर्ग और ताकत आधारित सांठगाँठ ने ले लिया। अन्यत्र, और अधिकांश हिंदीभाषी बेल्ट में, ग्राम स्व-राज की एक संस्था के रूप में, पंचायत व्यवस्था को आजमाने और पुनर्स्थापित करने में 60 वर्षों से अधिक का समय लगा है।

विफल वितरण प्रणाली

जैसे-जैसे राज्यों के पास जरूरतों के हिसाब से संसाधनों की कम होती गई और जब वे अक्सर लोकलुभावन भटकाव का शिकार हुई, तो केंद्र सरकार विकास की मुख्य वित्तदाता बन गई। इस प्रकार, निर्णय लेने का अधिकार गाँवों से दूर हो गया। अधिकारों और सुविधाओं की नई विचारधाराओं ने, ग्रामीणों को शासन के निराशाजनक आवेदक बनने के लिए प्रशिक्षित कर दिया। लेकिन शहरों से गहरा सम्बंध रखने वाले कर्मचारियों के वर्चस्व वाली शासन-प्रणाली, एक संवेदनशील या अच्छी वितरण-प्रणाली स्थापित करने में नाकामयाब रही है।

कई मामलों में, जैसे कि सिंचाई विभाग में नौकरशाही, इतनी दुष्कर प्रणाली बन गई हैं, कि वे भारी सरकारी धन खर्च कर के भी और बिना किसी तरह की उपलब्धि के भी, खुद को सुरक्षित रखने का जुगाड़  कर लेती हैं। इस प्रक्रिया के प्रभाव से जो अतिरिक्त क्षति हुई हैं, वह ये कि स्वेच्छा-कार्य और पारस्परिकता के सिद्धांतों पर चलने वाली समुदायों की संगठित स्व-प्रावधान की पुरानी रीतियाँ समाप्त हो रही हैं।

इसका नतीजा यह है कि गांधीवादी परिकल्पना भारतीय गांवों के लिए दूर की कौड़ी बनकर रह गई है। हालांकि यह निराशाजनक है, लेकिन वास्तविकता यह है कि अब केवल उपेक्षित भारत ही गांवों में रहता है। जिस किसी को भी बाहर जगह की व्यावहारिक संभावना मिली, वह पहले ही बाहर निकल चुका है, या गांवों से बच निकलने की पूरी कोशिश कर रहा है।

संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फनसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।