मलमल को पुनर्जीवित करके बंगाल के बुनकरों ने बुनी सफलता

नादिया और पूर्वी बर्धमान, पश्चिम बंगाल

सदियों से मशहूर, महीन सूत से बने कपड़े, मलमल के पुनरुद्धार से, अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहे पश्चिम बंगाल के पारम्परिक कताई और बुनाई करने वाले कारीगरों के जीवन में आर्थिक स्थिरता का संचार हुआ।

राजेश्वर गुईन दो दशकों से हथकरघा बुनकर हैं। 42 वर्षीय गुईन पारम्परिक बुनकरों के परिवार का एक वंशज है, जो पिछली कई पीढ़ियों से पूर्वी बर्धमान जिले के सशिनारा बरोरीतला गाँव में रह रहा है।

उनके परिवार की खराब आर्थिक स्थिति के कारण गुईन को किशोरावस्था में ही अपने पिता को बुनाई में मदद करने के लिए मजबूर होना पड़ा था। उनके अनुसार “उन दिनों में शायद ही कोई मांग थी। कभी कभार ऑर्डर मिलने के कारण, मेरे पिता के लिए मेरी शिक्षा का खर्च उठाना मुश्किल कर दिया।”

गुईन ने पिता के साथ, परिवार की आय में योगदान के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने बताया – “लेकिन फिर भी, दिन में कई घंटे मेहनत करने के बाद भी, हमारे लिए रसोई चलाना काफी चुनौतीपूर्ण था।” लेकिन मलमल के महीन और कोमल सूती कपड़े के पुनरुद्धार ने उनके जीवन में एक बदलाव कर दिया।

उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “मलमल से बने कपड़ों की आजकल बहुत मांग है और राज्य सरकार सहकारी समितियों के माध्यम से एक नियमित खरीदार है, जो हमें काम देती हैं। मैं लगभग 8,000 रुपये महीना कमा लेता हूं, जो ऑर्डर के हिसाब से कभी कभी ज्यादा भी हो जाता है।”

गुईन अकेले नहीं हैं। मलमल के पुनरुद्धार के कारण, पश्चिम बंगाल के नादिया, मुर्शिदाबाद, हुगली, बांकुरा और पूर्वी बर्धमान जिलों के 30,000 से ज्यादा कातने वाले (बंगाली में ‘कातुनी’) और बुनकर मलमल से अपनी आजीविका बुन रहे हैं।

मलमल की उत्पत्ति

150 से ऊपर काउंट के धागे से हाथ से काती गए खादी कपड़े से अच्छी किस्म का मलमल बनता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, मलमल की उत्पत्ति पूर्वी बंगाल (अब बांग्लादेश) में हुई, जो तीसरी शताब्दी से अच्छी गुणवत्ता की कपास के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था, हालांकि मलमल नाम बहुत बाद में दिया गया।

एक सामूहिक उत्पादन केंद्र में मलमल के धागे की कताई करती महिला (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

यूके में स्थित एक बांग्लादेशी और ‘मसलिन, अवर स्टोरी’ के लेखक एवं ‘लेजेंड ऑफ़ दि लूम’ डाक्यूमेंट्री के निर्माता, सैफ़ुल इस्लाम (63) ने बताया – “हालाँकि रोमन काल में भी इसका व्यापार होता था, लेकिन कपड़े का नियमित व्यापार 8वीं सदी में हुआ, खासतौर से अरब व्यापारियों के साथ। वे इस कोमल कपड़े का मध्य पूर्व, तुर्की और यूरोप के देशों को निर्यात करते थे।”

इस्लाम ने VillageSquare.in को बताया – “मुगल काल में यह कपड़ा अपने शीर्ष पर पहुंच गया। उन्होंने शिल्प को संरक्षण दिया और इसे बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कपड़े का कारोबार आमतौर पर इराक के मोसुल के माध्यम से किया जाता था, जहां मार्को पोलो ने इसे मस्लिन नाम दिया। भारत में इसे मलमल के नाम से जाना जाता है।

मलमल का पतन

इस्लाम के अनुसार – “फूटी कपास (gossypium arboreum, var. neglecta) का पौधा, मेघना नदी के किनारे उगता था। इसके रेशे बेहद रेशमी थे और पानी में भीगने पर फैलने की बजाय सिकुड़ जाते थे। इसके प्राकृतिक परिवेश के बाहर इस पौधे को उगाने के अंग्रेजों के प्रयास विफल रहे, शायद इसलिए कि मेघना नदी के पास जलवायु की स्थिति और मिट्टी उपयुक्त थी।”

मलमल के साथ ढाका का नाम 19वीं शताब्दी की शुरुआत में तब जुड़ा, जब दुनिया के दूसरे हिस्सों में इसकी नकल की जाने लगी। इस्लाम के अनुसार, ईस्ट इंडिया कंपनी, जिसने मलमल के व्यापार से अथाह धन कमाया, वह भी इसके पतन के लिए काफी हद तक जिम्मेदार थी। भूखमरी और प्राकृतिक आपदाओं के कारण बहुत से बुनकरों को अपनी आजीविका चलाने के लिए खेती की ओर रुख़ करना पड़ा।

इस्लाम ने बताया – “अंग्रेजों ने मलमल पर भारी कर भी लगा दिया, जिससे बुनकरों को दूसरे काम धंधे में जाने या भूखे मर जाने के लिए मजबूर कर दिया। औद्योगिक युग में, उन्होंने मलमल की पूरी तरह अनदेखी करके, अपने देश के कपास उद्योगों पर ध्यान केंद्रित किया। वे यहां से कच्चा माल लेते, और कपास से बने उत्पाद को वापिस भारत भेज देते थे, जिसका मतलब था मलमल की समाप्ति।”

मलमल का पुनरुद्धार

आजादी के तुरंत बाद, पश्चिम बंगाल के मलमल बुनकरों ने महीन धागे से कपड़ा बनाने के उद्देश्य से, स्थानीय रूप से कपास की खरीद शुरू कर दी। लेकिन बाजारों और मांग की कमी ने उन्हें भारी चोट दी, खासकर 1990 के दशक में, जब कारीगर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए।

महीन मलमल कैसे एक अंगूठी में से गुजर सकता है। इसके पुनरुद्धार से कई कताई और बुनाई करने वालों की आजीविका में सुधार हुआ है (छायाकार – गुरविंदर सिंह)

1990 के दशक के अंत में, खादी और ग्रामोद्योग आयोग (KVIC) आगे आया और बुनकरों को बैंक ऋण की सुविधा, बुनियादी ढांचे में सुधार और बाजार पैदा करने में सहायता करना शुरू किया। लेकिन असली बदलाव 2013 में हुआ, जब राज्य सरकार ने मलमल के विकास के लिए 62 करोड़ रुपये मंजूर किए।

योजना और विकास अधिकारी, बिस्वजीत सरकार ने बताया – “फंड से हमें इकाइयों के बुनियादी ढांचे में सुधार करने और कारीगरों को प्रशिक्षण प्रदान करने में मदद मिली। हमने कारीगरों को कच्चा माल और करघे दिए, और उन्हें विभिन्न डिजाइनों पर विशेषज्ञों द्वारा प्रशिक्षण प्रदान कराया।”

खादी ग्रामोद्योग आयोग ने उनके लिए नए बाजार पैदा किए। बिस्वजीत सरकार ने VillageSquare.in को बताया – “हम तैयार माल के निर्यात के लिए जापान के साथ बातचीत कर रहे हैं। वर्ष 2018-19 के लिए कारोबार 100 करोड़ रुपये को पार कर गया है।”

शिल्प के पुनरुद्धार में भूमिका के लिए, कारीगरों को सम्मानित भी किया जा रहा है। नादिया जिले के नबद्वीप की एक खादी कातने वाली, तापसी घोष को 2014-15 में क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया था।

आर्थिक लाभ

इस समय मलमल के लिए कपास, आंध्र प्रदेश के गुंटूर से आती है, क्योंकि इस क्षेत्र की जलवायु के कारण, यहां सबसे अच्छी किस्म की कपास का उत्पादन होता है। कपड़े की खूबी उसके लच्छों पर निर्भर करती है।

पश्चिम बंगाल खादी बोर्ड के अंतर्गत मटिआरी कुटीर शिल्प प्रतिष्ठान के सचिव, सुभाशीष चक्रवर्ती ने बताया- “5 ग्राम वजन वाले, 200 काउंट के 2 मीटर लंबे कपड़े की कीमत लगभग 700 रूपये हो सकती है, जबकि इतनी ही लंबाई के, 500 काउंट के सुपर फाइन कपड़े की कीमत 6,000 रुपये होगी।”

चक्रवर्ती ने VillageSquare.in को बताया – “कपड़ा इतना नाजुक होता है, कि यह एक अंगूठी से भी गुजर सकता है। पिछले कुछ वर्षों से बाजार अच्छा है और हमें नियमित रूप से ऑर्डर मिल रहे हैं। हमारे पास 2019-20 के लिए आयोग (KVIC) से 72 लाख रुपये का बजट है।”

चक्रवर्ती के अनुसार, तय मेहनताने के अलावा, कारीगरों को नियमानुसार अन्य लाभ भी मिलते हैं, जैसे कि बोनस, बीमा और अनुग्रह राशि का भुगतान। सामूहिक उत्पादन केंद्र इकाईयों के चलते, कई कारीगर बुनाई का काम शुरू कर पाए हैं।

मलमल के कपड़े के लिए कताई और बुनाई में गहन प्रशिक्षण की जरूरत होती है। एक कारीगर को बेहद महीन किस्म के मलमल के कपड़े के 500 काउंट के धागे कातना सीखने में 10 साल तक का समय लग सकता है।

इसके बावजूद, यह पुनरुत्थान ऐसा हुआ है, कि युवा पीढ़ी भी इसे आजीविका के रूप में देखने लगी है। एक प्रशिक्षणार्थी, सुतपा सरकार (29) ने बताया – “मैंने एक कातुनि के रूप में काम करने का फैसला किया, क्योंकि आजकल रोजगार मिलना मुश्किल है और घर से दूर जाना महिलाओं के लिए हमेशा सुरक्षित नहीं होता है।”

सुतपा सरकार ने VillageSquare.in को बताया – “प्रशिक्षण के दौरान मुझे प्रतिदिन 200 रुपये वजीफा मिलता है, जो मेरे पूरी तरह से प्रशिक्षित होने के बाद बढ़ जाएगा। आर्थिक लाभ के अलावा, हम एक सुरक्षित माहौल में काम करते हैं और काम के निश्चित घंटों के बाद घर लौट जाते हैं। मुझे काम के लिए शहर जाने की हड़बड़ी नहीं होती और जल्दी घर लौटने की चिंता करने की ज़रूरत नहीं होती।”

गुरविंदर सिंह कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।