कम मजदूरी और स्वास्थ्य जोखिमों के बावजूद, महिलाएं बीड़ी बनाना जारी रखती हैं

शिक्षा के अभाव और वैकल्पिक रोजगार की संभावनाओं की कमी के कारण, लाखों मजदूर, विशेष रूप से महिलाएं, बीड़ी बनाने के काम को झेलती हैं। जानकारी और डर उन्हें रोजगार बदलने से रोकते हैं

नागलक्ष्मी टोकरियाँ बुनती हैं और जितना बीड़ी बनाकर कमाती थी, उससे दोगुना कमाती हैं। तमिलनाडु के तिरुनेलवेली, जहाँ बीड़ी बनाना गरीब परिवारों की अनेक महिलाओं के लिए जीवन का एक तरीका है, की नागलक्ष्मी (52) के लिए बीड़ी बनाकर होने वाली मामूली आमदनी से गुजारा करना मुश्किल हो गया था।

वर्ष 1993 में उन्हें 500 बीड़ी बनाने के लिए 6 रुपये मिलते थे। हालांकि वह बीड़ी बनाना छोड़ना चाहती थी, लेकिन परिस्थितियों के कारण वह ऐसा नहीं कर सकी। नागलक्ष्मी ने बताया – “तब मेरी भाभी ने मुझे टोकरी बुनना सिखाया। शुरू में मैं केवल तीन टोकरी बुन पाती थी, लेकिन अब मैं 10 बुन लेती हूं।”

मैंगलुरु के अशोक नगर में एक जीर्ण-शीर्ण फूस की झोपड़ी में अकेले रहने वाली जयंती (76), मुश्किल से अपने बिस्तर से उठ पाती हैं। फिर भी, वह हर रोज चार घंटे काम करके, सप्ताह में 1,000 बीड़ी बनाकर, 180 रुपये कमाती हैं।

बीते 60 सालों से बीड़ी बना रही जयंती, पहले एक दिन में 800 से 1,000 तक बीड़ी बना लेती थी। इसका उनकी सेहत पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा – वह घूम फिर नहीं सकती, आंखों की रोशनी खराब हो गई, पीठ और हाथ में दर्द रहने लगा। उनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा दवाओं पर खर्च होता है। उसके पड़ोसी ठेकेदार से कच्चा माल लाते हैं और तैयार माल वापिस पहुँचाते हैं।

अपनी सारी जिंदगी बीड़ी बनाने में बिताने के बावजूद, जयंती को 500 रुपये महीना पेंशन के अलावा, कोई सामाजिक लाभ प्राप्त नहीं हुआ है, जो उन्हें इसलिए मिल जाती है, क्योंकि उनके पास एक बीड़ी-कार्ड है, जो उनका एक बीड़ी बनाने वाली के रूप में पहचानपत्र है। जयंती जैसी बहुत सी महिलाएँ बीड़ी का काम छोड़ना चाहती हैं, लेकिन ऐसा नहीं कर सकती, क्योंकि उन्हें नहीं पता कि गुजारे के लिए वे और क्या कर करें।

बीड़ी बनाने वाली महिलाएँ 

बीड़ी बनाने का काम आमतौर पर पिछड़े क्षेत्रों के गरीबों द्वारा किया जाता है, जहां कोई स्थायी रोजगार नहीं होता। बीड़ी बनाने का काम करने वालों में महिलाओं की सबसे अधिक हिस्सेदारी, आंध्र प्रदेश (95%), कर्नाटक (91%), तमिलनाडु (84%) और पश्चिम बंगाल (84%) में पाई जाती है।

कम मजदूरी, काम में खतरनाक माहौल, व्यवस्थागत शोषण, सामाजिक सुरक्षा का अभाव और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित पहुंच के कारण, महिला बीड़ी मजदूरों की स्थिति ख़राब है। कमी का हवाला देकर ठेकेदार बीड़ी रिजेक्ट कर देते हैं। रोजगार खोने के डर से महिलाएं शिकायत नहीं करती हैं।

बीड़ी निर्माण में श्रम की भागीदारी बहुत अधिक है। जहाँ कुल मजदूरों का लगभग 96% घर पर काम करता है, 4% लोग कारखानों में काम करते हैं। घर पर काम करने वालों में 84% महिलाएँ हैं। इनमें से लगभग 80% ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं।

ए एफ डेवलपमेंट केयर (AFDC), नई दिल्ली के शोध अध्ययन के अनुसार, भारत का असंगठित बीड़ी उद्योग 64 लाख से अधिक मजदूरों को रोजगार देता है। इसमें से 50 लाख महिलाएँ, बहुत कम मजदूरी के बावजूद, इस खतरनाक व्यवसाय में अनिच्छा से काम करती हैं।

असुरक्षित रोजगार

असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर लोगों को बहुत कम पैसा दिया जाता है। संगठित क्षेत्र में, 1% महिलाओं को मासिक भुगतान किया जाता है, बाकी को मद (माल की संख्या) के आधार पर। भारत के ज्यादातर हिस्सों में, उन्हें प्रति 1,000 बीड़ी, 72.94 रुपये की निर्धारित दर की बजाए औसतन 66.81 रुपये का भुगतान किया जाता है।

हालांकि मनरेगा का काम स्थायी नहीं है, लेकिन रानी को यह बीड़ी बनाने के मुकाबले कम कठोर लगता है (फोटो – AFDC के सौजन्य से)

महिला मजदूरों की हालत खराब हो गई है, क्योंकि उनके पास काम के अनुबंध (लिखित कॉन्ट्रैक्ट) नहीं हैं। असंगठित क्षेत्र में लगभग 98%, और संगठित क्षेत्र की 80% महिलाओं के पास कोई अनुबंध नहीं है, जो रोजगार की अनिश्चितता का सूचक है।

एक अध्ययन में, राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत बीड़ी फर्मों में महिलाओं (126 रुपये) और पुरुषों (266 रुपये) के बीच वेतन में 140 रुपये का दैनिक अंतर पाया गया। संगठित क्षेत्र के 47% की तुलना में, असंगठित क्षेत्र में 94% महिलाएँ किसी भी सामाजिक सुरक्षा लाभ के लिए पात्र नहीं हैं।

लेकिन बीड़ी निर्माता भारी मुनाफा कमाते हैं। वर्ष 2017-18 में, बीड़ी की घरेलू खपत 260 अरब बीड़ी या 10.4 अरब पैकेट थी, जिसकी कीमत 156 अरब रुपये थी, जिससे सरकार को 25 अरब रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ। फिर भी, भारत में यह सबसे आम प्रयोग होने वाला तम्बाकू-धूम्रपान उत्पाद काफी हद तक कर-मुक्त रहता है।

अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता, साची सत्पथी कहते हैं – “क्योंकि मालिक बहुत बड़ा लाभ कमाते हैं, इसलिए सरकार को चाहिए कि अल्पकालिक उपायों के रूप में तत्काल घर-आधारित बीड़ी बनाने के मजदूर, उसके बच्चों और परिवार पर प्रभाव का आंकलन करे और उसके आधार पर मजदूरी, सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर एक स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार करे।” विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि मजदूरों के हितों को बढ़ावा देने के लिए, ठेकेदारों की भूमिका फिर से परिभाषित की जानी चाहिए।

रोजगार बदलने में अनिच्छा

अध्ययन में पाया गया कि काम में आसानी (17.5%) सबसे महत्वपूर्ण कारण था, जिससे वे बीड़ी बनाना जारी रखते हैं। कुछ महिलाओं में आत्मविश्वास की कमी होती है और कुछ मामलों में सामाजिक/धार्मिक प्रतिबंध, उन्हें अपने घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं देते।

घरेलू जिम्मेदारियों के साथ घर से काम करने की सुविधा (14.6%), नए काम लेने में कठिनाई (12.4%) और बीड़ी बनाने में लम्बा (10.2%) अनुभव इसके प्रमुख कारण थे।

AFDC के अध्ययन से पता चला है, कि बेहतर आजीविका अपनाने के उनके प्रयासों में कम शिक्षा, अपर्याप्त कौशल उपयुक्तता, ऋण उपलब्धता और मांग वाले व्यवसायों सम्बन्धी प्रशिक्षण की कमी, जैसी बाधाएँ आड़े आई। सत्पथी ने कहा – “सरकार को खतरनाक हालात में काम करने वालों के लिए, कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।”

वर्ष 2019 में, देश की लगभग 50 लाख में से 2,223 महिला बीड़ी-मजदूरों ने वैकल्पिक आजीविकाओं के लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया। दिसंबर 2019 में संसद में एक सवाल के उत्तर में, श्रम एवं रोजगार मंत्रालय के एक बयान के अनुसार, उनमें से असल में रोजगार बदलने वालों की संख्या केवल 1,025 थी।

स्वास्थ्य के लिए जोखिम

24 साल तक बीड़ी बनाने का काम करने के बाद, कर्नाटक के केंगेरी गाँव की जेबामणि टी. (42) ने आंखों के दर्द, शरीर में दर्द और सांस लेने में दिक्कत के कारण यह काम छोड़ दिया। उसके बीड़ी-कार्ड से उसके लिए पेंशन का प्रावधान है, लेकिन वह बीड़ी के काम में वापिस नहीं जाना चाहती।

उसका कार्ड उसे कंपनी के छोटे क्लिनिक में ईलाज का प्रावधान देता है, लेकिन वह उसकी समस्याओं के समाधान के लिए सुसज्जित नहीं है। इसलिए वह हर महीने दवाओं पर 300 से 500 रुपये खर्च करते हुए, निजी क्लीनिकों में जाती हैं। अध्ययन में पाया गया, कि अधिकतर महिलाएं, चिकित्सा खर्च पर सालाना औसतन 7,248 रुपये खर्च करती हैं, जो उनकी बीड़ी बनाने से होने वाली आमदनी का लगभग 29.2% है।

साची सत्पथी बताते हैं – “काम से संबंधित बीमारियों पर ईलाज का खर्च, बीड़ी बनाने से होने वाली कमाई की तुलना में अधिक है। सरकार को घर-आधारित बीड़ी बनाने को ‘खतरनाक’ घोषित करने की सख्त जरूरत है।

अध्ययन में पाया गया, कि घर पर काम करने वाले मजदूर, जैसे कि महिलाएं और बच्चे, नींद न आना, एनीमिया, गर्भपात, कमजोर बच्चे का जन्म, कमजोरी, खुजली और कम भूख लगने की समस्याओं के अलावा, गर्दन, पीठ के निचले हिस्से में दर्द, पेट में दर्द, आंखों की समस्या, गले में जलन, खांसी, दमा, तपेदिक, अस्थि-रोग और साँस की नली की सूजन जैसी समस्याओं से जूझते हैं।

पल्मोनरी (फेफड़े-सम्बन्धी) मेडिसिन विभाग, एमएलएन मेडिकल कॉलेज, प्रयागराज के प्रोफेसर और प्रमुख, तारीक़ महमूद कहते हैं – “ये मजदूर लगातार धूल और दूसरे नाइट्रोसामाइन जैसे खतरनाक रसायनों के संपर्क में आते हैं, जो त्वचा, श्वास-प्रणाली की बाहरी परत और मुंह, नाक एवं आँत के माध्यम से अवशोषित हो जाते हैं।”

महमूद के अनुसार, तंबाकू की धूल के संपर्क में आने से मनुष्यों का श्वास-तंत्र प्रभावित होता है। वह कहते हैं – “थकान आम लक्षणों में से एक है। बीड़ी बनाने वाली सभी महिलाओं की हर तिमाही में अस्थमा, तपेदिक के लिए जांच होनी चाहिए।”

विशेष बजट प्रावधान के अभाव में, GST लागू होने के बाद, कल्याण-सम्बन्धी खर्च पर गंभीर प्रभाव पड़ा। वर्ष 2017-18 में, सरकार के वार्षिक 21420 अरब  रुपये के बजट में 174.62 करोड़ रूपए बीड़ी श्रमिकों के कल्याण के लिए आवंटित किए गए थे। 2017-18 के बाद बीड़ी श्रमिकों के लिए कोई विशेष बजटीय आवंटन नहीं किया गया है।

वैकल्पिक आजीविकाएँ 

जेबामणि महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में एक या दो महीने में 15 दिन काम करती है और रोज 180 रुपये कमाती है। उन्होंने कहा – “बाकी दिनों में मैं खेत मजदूर के रूप में काम करती हूं और रोज 200 रुपये कमाती हूं।”

तमिलनाडु की रानी एस. का कहना है – “मैंने 20 साल तक बीड़ियाँ बनाई। मेरा स्वास्थ्य अब मुझे अनुमति नहीं देता। हालांकि मनरेगा स्थायी नहीं है, लेकिन यह बीड़ी बनाने जितना कमर-तोड़ काम नहीं है। जो यह काम छोड़ते हैं, उन्हें मनरेगा और खेत मजदूर का काम मिल जाता है।”

जुबेदा की तरह, केन्गेरी में कइयों ने गारमेंट फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया है और वे लगभग 12,000 रुपये महीना कमाती हैं। कर्नाटक और तमिलनाडु में फील्ड अध्ययन से पता चलता है कि जिन महिलाओं ने वैकल्पिक पेशे अपनाए, वे उन लोगों के मुकाबले अधिक (58,431 रुपये सालाना) कमाती हैं, जो बीड़ी का काम करना जारी रखती हैं।

जेबामणि जैसे खेत-मजदूर औसतन 27,891 रुपये सालाना कमाते हैं, जबकि गैर-कृषि मजदूर औसतन 72,660 रूपए कमाते हैं। स्व-रोजगार में लगी महिलाओं की कमाई सबसे अधिक 1,20,708 रुपये सालाना थी। परिवार की कुल आय में बीड़ी बनाने से हुई आय के मुकाबले, दूसरे कामों से होने वाली आय का हिस्सा काफी अधिक है।

अपनी तरह से पहली बार, कर्नाटक और तमिलनाडु की लगभग 1,200 बीड़ी बनाने वाली महिलाओं को कटहल की खेती, पापड़ बनाने, सिलाई, गारमेंट सिलाई, अचार बनाने, सब्जी बेचने, बेकरी, पोल्ट्री आदि का प्रशिक्षण दिया गया| इनमें से ज्यादातर की लगभग चार गुना अधिक कमाई होती है। इसी तरह के कुछ हस्तक्षेप और भी हुए हैं।

AFDC के अध्ययन में यह भी पाया गया कि 1993-94 में बीड़ी मजदूरों की संख्या 44.7 लाख से घटकर 1997 में 42.7 लाख रह गई, लेकिन 2018 में यह बढ़कर 48 लाख हो गई। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और कर्नाटक में बीड़ी मजदूरों की संख्या में काफी कमी आई है। इस तरह की कमी से उम्मीद बढ़ती है कि सरकार द्वारा किए गए नीतिगत हस्तक्षेपों से इस गिरावट में मदद मिली होगी।

राखी रॉयतालुकदार जयपुर, राजस्थान में स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।