महिलाओं द्वारा संचालित मंच ग्रामीण महिलाओं के लिए जेंडर-आधारित न्याय सुनिश्चित करता है

गोड्डा, झारखंड

ग्रामीण महिलाओं के नेतृत्व में, एक सामाजिक-कानूनी मंच, परिवारों और समुदायों में जेंडर-आधारित झगड़े और अन्याय हल करता है, और गांवों की महिलाओं को एक गरिमापूर्ण जीवन जीने में मदद करता है

पोरैयाहाट प्रशासनिक ब्लॉक के एक छोटे से गाँव, बकसरा की एक जेंडर कार्यकर्ता, अनीता देवी का कहना है – “महिलाओं के लिए, खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में, अपने पति के द्वारा मारपीट करना और कोई और रास्ता नहीं होने के कारण उनका कुछ नहीं कहना सामान्य बात है। एक महिला का जीवन घर के भीतर शुरू होता है और वहीं खत्म होता है।

उनके लिए स्व-सहायता समूह (SHG) की बैठकों, या ब्लॉक स्तर पर आयोजित किसी भी प्रशिक्षण के लिए जाना असंभव था। उन्होंने बताया – “सार्वजनिक स्थान पर देखी जाने वाली महिलाओं को हमेशा हीन दृष्टि से देखा जाता है। मुझे इन बैठकों में जाने के लिए अपने परिवार से कोई समर्थन नहीं मिला। मुझपर मेरे पति, मेरा ससुराल का परिवार और मेरे पिता शक करते थे, कि मैं कुछ गलत कर रही हूँ। मेरा चरित्र हमेशा सवालों के घेरे में रहता था।”

कई मौकों पर उन्हें मीटिंगों से देर से घर आने या घरेलू कामों के लिए घर पर न होने के कारण, मानसिक और शारीरिक दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा। लेकिन उन्होंने दया और ईमानदारी के साथ अपना और दूसरों का जीवन बदलने का दृढ निश्चय कर लिया था।

उनकी पहली कोशिश यह थी कि वह अपने पति को बैठकों और विभिन्न प्रशिक्षणों में अपने साथ ले जाएं, यह साबित करने के लिए, कि वह कुछ गलत नहीं कर रही थी। उन्होंने कहा – “मुझे घर वापस लेने के लिए इंतजार करते हुए, उन्होंने चर्चा सुनी।” यह पहली बार था, जब उनकी समझ में आया। तब से छह साल से ज्यादा हो गए और पति-पत्नि आपसी सम्मान और समझ रखना सीख रहे हैं।

महिलाओं को अक्सर उनके अधिकारों के बारे में तो सिखाया जाता है, लेकिन उन विकल्पों के बारे में नहीं बताया जाता जो वे अपना सकती हैं। आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों की 15 महिलाओं से बनी नारी  अदालत, जिनमें से ज्यादातर शिक्षित नहीं हैं, लेकिन अपने जीवन के अनुभवों से अन्याय की असलियत को समझती हैं, दूसरी महिलाओं में बदलाव की कहानी लिख रही हैं।

जेंडर-आधारित जागृति

इस विश्वास के साथ, कि एक समग्र विकास वास्तव में तभी संभव है जब महिलाएँ आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से सशक्त होंगी, एक गैर-सरकारी संगठन, प्रदान (प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन) ने स्व-सहायता समूहों की महिलाओं के लिए, जेंडर और पितृसत्ता पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित करने शुरू किए।

वर्ष 2015 में, गोड्डा जिले में सरैयाहाट और पोरैयाहाट प्रशासनिक ब्लॉकों की महिलाओं के लिए, चार-दिवसीय आवासीय प्रशिक्षण आयोजित किया गया। स्व-प्रेरणा के आधार पर, ग्राम संगठनों और एसएचजी की 45 महिला प्रतिभागियों को चुना गया था।

महिलाएं उन समस्याओं और उनके निवारण के तरीकों पर चर्चा करती हैं, जो ग्रामीण महिलाओं को एक गरिमापूर्ण जीवन जीने में सक्षम बनाती हैं (छायाकार – बंदना देवी)

सभी महिलाओं की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि समान थी, और उनमें से ज्यादातर आदिवासी, ओबीसी और दलित समुदायों से थीं। खेल-आधारित मॉड्यूल से उन्हें यह समझने में मदद मिली, कि महिलाओं को कैसे नियंत्रित किया जाता है, कभी-कभी अन्य महिलाओं द्वारा भी, और वे कैसे हिंसा का सामना करती हैं।

प्रदान ने, एक चिंतनशील यात्रा शुरू करने और जेंडर और पितृसत्ता की अवधारणाओं पर समझ बनाने और भेदभाव के बारे में अहसास की प्रक्रिया शुरू करने के उद्देश्य से केस स्टडीज और फिल्मों के साथ प्रशिक्षण दिया।

जेंडर सम्बन्धी मुद्दों का समाधान

महिलाओं ने समाज में महिलाओं की स्थिति को समझा और चर्चा की कि अपने जीवन में स्थिति को कैसे बदला जाए और दूसरी महिलाओं को प्रभावित किया जाए। धीरे-धीरे उन्होंने अपनी SHG और अन्य महिला समूहों में, जेंडर और महिलाओं के अधिकारों के बारे में चर्चा करना शुरू कर दिया।

पोरैयाहाट ब्लॉक की महिलाओं ने गाँव स्तर के मंचों और पंचायतों तक में बोलना शुरू किया, जहाँ उन्हें दूसरे समूहों की सदस्यों का भरपूर समर्थन मिला। वे आपसी झगड़े निपटाने और जेंडर-आधारित हिंसा को कम करने में मदद करने लगी। उनके काम को पहचान मिल रही थी।

लेकिन महिलाओं ने महसूस किया कि उनमें तकनीकी कौशल की कमी है और जेंडर-आधारित हिंसा को समाप्त करने के लिए SHG पर्याप्त मंच नहीं हैं। क्योंकि मामले संवेदनशील थे और उनके नियमित फॉलो-अप की जरूरत थी, इसलिए उन्होंने महसूस किया कि उन्हें विशेष रूप से इन मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने के लिए, एक अलग मंच की जरूरत है।

काफी चर्चा के बाद उन्होंने 2018 में औपचारिक रूप से एक नारी अदालत शुरू की। नारी अदालत का अर्थ है महिलाओं की अदालत। अदालत में महिलाओं के नेतृत्व में संचालित ब्लॉक स्तरीय फेडरेशन से चुनी हुई 15 महिलाएँ शामिल थी। महिलाएं पीड़िता और आरोपी की काउंसलिंग करती हैं।

नारी अदालत

अदालत आमतौर पर सर्वसम्मति से फैसले करती है, जिसके लिए उसे प्रदान और जिला कानूनी सहायता प्राधिकरण (DLSA) सहयोग मिलता है, जो अदालतों या न्यायाधिकरणों के समक्ष मामलों के संचालन में परामर्श और सलाह के माध्यम से मुफ्त कानूनी सेवाएं प्रदान करती है।

मामलों के दस्तावेजीकरण के लिए एक रजिस्टर रखा जाता है। एक पैरालीगल (अर्द्धन्यायिक) अनीता देवी ने बताया – “हमने अपनी प्रधान को नामांकित किया है और हमारे पास चार पैरालीगल हैं, जो नोटिस और निर्णय सम्बन्धी दस्तावेजों का रखरखाव करते हैं।”

परिवारों के झगड़ों को सुलझाने से आगे, नारी अदालत ने जेंडर-आधारित हिंसा को खत्म करने के लिए जागरूकता पैदा करना शुरू कर दिया है (छायाकार – महमूद हसन)

पूर्णिमा देवी बाल विवाह और शारीरिक हिंसा की एक शिकार थी। नारी अदालत की एक सदस्य, जयंती देवी ने बताया – “हालांकि वह एक ‘बैंक सखी’ के रूप में काम कर रही थी, लेकिन उसका पति नशे में धुत होकर उसकी बेरहमी से मारपीट करता था। लेकिन वह आगे की पढ़ाई करना चाहती थी और अपनी समस्या का अंत चाहती थी। उसने बचाव के लिए नारी अदालत में अपील की।​​”

महिलाओं ने दोनों पक्षों को बुलाया। काफी चर्चा के बाद, नारी अदालत ने फैसला किया कि अत्याचारपूर्ण विवाह को समाप्त होना चाहिए। उसने तलाक के लिए अर्जी दी। महिलाएं उसके साथ खड़ी थीं और आखिरकार वह अपना स्नातक पाठ्यक्रम पूरा करने में सफल हुई।

दो अलग-अलग आदिवासी समुदायों से जुड़ी एक घटना में, एक किशोर लड़की गर्भवती हो गई। इससे बहुत हंगामा हो गया, जिसमें जान से मारने की धमकियाँ भी शामिल थी। लड़के का परिवार लड़की को अपने परिवार में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। आदिवासी समुदाय में राजनीतिक और धार्मिक हैसियत रखने वाले ग्राम प्रधान, मांझी हरम की उपस्थिति में, नारी अदालत ने हस्तक्षेप किया।

अदालत की एक सदस्य, रंभा देवी ने कहा – “हमने उन्हें कहा कि वह या तो उससे शादी करे या नवजात शिशु की परवरिश के लिए लड़की के परिवार को 50,000 रुपये का भुगतान करे। लड़के के परिवार वालों ने फैसले के खिलाफ स्थानीय प्रभाव का इस्तेमाल करने की कोशिश की|” लड़की के पक्ष में स्थानीय पुलिस वालों सहित 500 महिलाएँ इकठ्ठा हो गई। हालांकि एक प्राथमिकी (FIR) दर्ज की गई और मामला दो साल तक चला, लेकिन अब दोनों एक साथ हैं और उनके दो स्वस्थ बच्चे हैं।

इस समय अदालत अपने 21वें मामले से निपट रही है। उन्हें DLSA और जिला प्रशासन से बहुत सराहना मिली है। नारी अदालत द्वारा निपटाए गए ज्यादातर मामले जेंडर-आधारित हिंसा से संबंधित होते हैं, जो अक्सर उनके परिवार के सदस्यों या समाज द्वारा की जाती है। जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था के चलते, अक्सर अनसुने, अनदेखे चलते हैं।

जेंडर-आधारित अपराधों को कम करना

नारी अदालत अपने को जरूरतमंद महिलाओं को न्याय दिलाने तक सीमित नहीं करना चाहती। उनका उद्देश्य यौन और शारीरिक हिंसा के अपराधों को कम करने के लिए, और आगे बढ़ते हुए उसकी सम्भावना को करने की रणनीति बनाना है।

वे अक्सर अपनी SHG और गांव के संगठनों का दौरा करती हैं, और यौन एवं प्रजनन अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और जेंडर-आधारित अन्याय के मुद्दों को उठाने की कोशिश करती हैं। अपने समूहों और प्रदान के साथ होने वाली कई बैठकों में, उन्होंने वैवाहिक-बलात्कार के मुद्दे पर बात की।

उन्होंने बताया कि कैसे युवा महिलाओं को शारीरिक रूप से अंतरंग होने के लिए मजबूर किया जाता है, जबकि वे मानसिक या शारीरिक रूप से तैयार नहीं होती। हालाँकि भारत उन 36 देशों में शामिल है, जो वैवाहिक-बलात्कार को अपराध के रूप में मान्यता नहीं देते हैं, नारी अदालत संवैधानिक दायरे से बाहर जाकर न्याय दिलाने की कोशिश कर रही है।

नारी अदालत की सदस्य, बिनीता मरांडी (35) ने शादी के बाद अंतरंगता के दर्द और आघात के बारे में बताया, क्योंकि लड़कियों की शादी बहुत कम उम्र में हो जाती है। उन्होंने कहा – “उन्हें परिवार नियोजन के बारे में कोई जानकारी नहीं है। और पुरुष बच्चे के जन्म के तुरंत बाद, दाम्पत्य अधिकारों की मांग करते हैं।”

चुनने का अधिकार

नारी अदालत ने दृढ़ता से महिलाओं के नेतृत्व वाली हर सामुदायिक संस्था का दौरा करने और शारीरिक संबंध में सहमति के मुद्दे के बारे में जागरूकता बढ़ाने की कोशिश करने का फैसला किया है। वे युवा लड़कियों की यौन और प्रजनन अधिकारों के बारे में जागरूकता के लिए, प्रशिक्षण मॉड्यूल तैयार कर रहे हैं, ताकि वे अपनी स्वयं की जानकारीयुक्त पसंद बना सकें।

शरीर-राजनीति अभी तक व्याप्त है, फिर भी सामान्य जेंडर-विकास सिद्धांत में इतनी अदृश्य है । ग्रामीण महिलाओं को इस बात की जानकारी नहीं है कि उन्हें अपने शरीर के स्वामित्व और इसके उल्लंघन को अपराध के रूप में निपटने की जरूरत है, जिसे भारतीय न्याय व्यवस्था अभी भी पहचानने में विफल है।

आघात और हिंसा, जिसका उन्होंने सामना किया, को साझा करने से उन्हें यह समझने में मदद मिली कि यह एक व्यवस्था है, जो उनका शोषण करती है। उनकी कहानी बदलना ही एकमात्र विकल्प था, लेकिन वे वहीं नहीं रुकी। उन्होंने जेंडर-आधारित भेदभाव, हिंसा और अपमान का सामना करने वाली हर महिला को न्याय दिलाने और उसे अपनी पसंद बनाने के लिए जागरूक करने का संकल्प लिया है।

पहचान-सुरक्षा के लिए कुछ नाम बदल दिए गए हैं।

सृष्टि साहा ‘जन साहस’ के साथ एक रिसर्च इंटर्न के रूप में कार्यरत हैं। इससे पहले उन्होंने झारखंड में प्रदान के साथ एक डेवेलपमेंट-अपरेंटिस के रूप में काम किया था। विचार व्यक्तिगत हैं।