ग्रामीण पुरुषों को एहसास होना चाहिए, कि महिलाओं को एकांत स्नान-स्थलों की जरूरत होती है

ग्रामीण इलाकों में महिलाओं का खुले में स्नान करना काफी आम बात है, जिसे बदलने की जरूरत है। ऐसा हो, इसके लिए पुरुषों की मानसिकता और मुद्दे के प्रति उनकी संवेदनहीनता का बदलना महत्वपूर्ण है

अपने काम के सिलसिले में, मेरा अनेक बार लगभग सभी राज्यों के गांवों में और दिन के अलग-अलग समय में जाना हुआ है। पूर्वी राज्यों में गाँवों में यात्रा करते समय, अनेक अवसरों पर गाँव की घुमावदार गलियों में वाहन के मुड़ते पर, मैं कई बार अचानक ऐसी स्थिति में आ जाता हूँ, कि जहाँ महिलाओं का एक समूह स्थानीय तालाब में नहा रहा होता है। ऐसे समय में  मैंने अपने आप को हमेशा पूरी तरह से शर्मिंदा और अनजाने ही गवाह बन गया महसूस किया है। और जब भी मैंने स्थानीय लोगों से इस मुद्दे पर चर्चा करनी चाही, उन्होंने मुझे ऐसे देखा जैसे मैं एक अजीब प्राणी हों।

एक बार मैं आंध्र प्रदेश में विशाखापत्तनम जिले के पहाड़ी ब्लॉकों में यात्रा कर रहा था। स्थानीय संपर्क व्यक्ति ने मुझे दिखाया, कि कैसे उन्होंने जल धारा को मोड़ कर अपने गाँव तक पानी लाने के  राजी किया था और कैसे इससे कुछ अतिरिक्त भूमि पर खेती करना संभव हो सका। यह सब देखने के बाद, मैंने उससे पूछा कि क्या वही पानी महिलाओं को स्नान में मदद के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। उन्होंने इस विषय को इस तरह खारिज कर दिया, जैसे इसका कोई औचित्य ही न हो, यह कहते हुए, कि वहां पर आदिवासी लोगों के लिए यह बिल्कुल भी मुद्दा नहीं है। मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्होंने महिलाओं से बात की है, तो उन्होंने कहा कि ऐसा जरूरी नहीं था। उन्होंने तर्क दिया कि यदि उन्होंने इस बारे में अपने पतियों से बात की होती, तो मुद्दा बाहर आ जाता। जाहिर तौर पर, अकेले नागालैंड में लैंगिक न्याय या संवेदनशीलता और आदिवासी रीति-रिवाजों में कोई टकराव नहीं हैं।

हँसी और उल्लास

इन टिप्पणियों के प्रभाव के कारण, मैं विकास गतिविधियों में लगे अपने सहयोगियों से बात करने की कोशिश करता रहा और यह देखकर खुशी हुई कि कई बार यह काम कर जाता है। 2010 में, एक बार हम ओडिशा के रायगड़ा जिले में, एक पाइप के साथ-साथ पहाड़ी के नीचे उतर रहे थे, जिसके द्वारा जलधारा को मोड़ने वाले ढांचे से पानी आदिवासी किसानों के खेतों तक पहुँचता था। रास्ते में एक जगह, केले के पौधों के झुरमुट और घनी झाड़ियों के पीछे से, एक देहाती महिला के गाने के साथ हँसी और उल्लास सुनाई पड़ रहा था। मेरे सहयोगी ने मुझे बताया कि उन्होंने इसे इस तरह व्यवस्थित किया था, ताकि पाइप से आने वाला पानी इस जगह बौछार की तरह गिरे और महिलाएं स्नान कर सकें। एकांतपूर्ण जगह में स्नान की ख़ुशी और गर्म और उमस भरे मौसम में भरपूर मात्रा में बहता हुआ पानी उन्हें असीम आनंद प्रदान कर रहा था।

इसके बाद, जहाँ भी संभव हुआ, बहुत से हस्तक्षेपकर्ताओं ने अपने गुरुत्वाकर्षण-आधारित जल प्रवाह वाली योजनाओं में, महिलाओं के लिए नहाने के स्थानों की व्यवस्था करने की कोशिश की है।

पिछले साल एक बार, महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में, मुझे स्वर्गीय मधुकर धास के दोहा मॉडल के अंतर्गत की गई उपलब्धियां दिखाई जा रही थी। इस मॉडल में, आप एक जलधारा को इसकी लम्बाई में गहरा करते हैं, बीच-बीच में उसे उसके मूल स्तर पर छोड़ते हुए। इससे, बिना किसी डूब या डैम बनाए, बहुत से जल कुंड बन जाते हैं, जिन्हें दोहा कहा जाता है। यहां तक ​​कि मार्च की एक बेमौसम बारिश से भी सभी गड्ढों को प्रचुर मात्रा में पानी से भर दिया था। दोहा से कुछ हिरणों को पानी पीते देखकर मैं बेहद खुश हुआ, क्योंकि यह जलधारा घने जंगल के पास थी।

बहनें बनाम पत्नियां

जलधारा के साथ-साथ, महिलाओं के लिए स्नान के स्थान बनाने के मुद्दे पर चर्चा की। शुरुआती प्रतिक्रिया चुप्पी थी। फिर एक व्यक्ति ने कहा – “हमारी महिलाओं ने हमें कभी नहीं बताया कि उन्हें कोई कठिनाई है।” लेकिन जब मैंने उनसे कहा कि वयस्क होने के नाते उन्हें महिलाओं के प्रजनन चक्र के बारे में जानकारी तो है। मैंने पूछा – “आप में से प्रत्येक की एक बहन है। क्या आप ऐसी व्यवस्था नहीं करना चाहेंगे, जहाँ आपकी बहनें सुरक्षित महसूस करें और हर दिन एक अच्छे स्नान का आनंद ले सकें और स्वस्थ रहें?” बातचीत की इस दिशा का कहीं अधिक प्रभाव पड़ा। जाहिर तौर पर, पुरुष अपनी पत्नियों की समस्याओं के प्रति शायद ही संवेदनशील होते हैं, लेकिन अपनी बेटियों और बहनों के बारे में बहुत चिंता करते हैं।

दिसंबर 2016 में, मैं मराठवाड़ा में एक घनी आबादी वाले बहु-जातिय गांव का दौरा कर रहा था। उस गांव में एक तालाब की सफाई का बेहतरीन काम किया गया था। गाँव वाले इस बात को लेकर खुश हो रहे थे कि कैसे गाँव की पानी की समस्या अब पूरी तरह से हल हो गई है। तालाब के जीर्णोद्धार में अपने सामूहिक काम की प्रशंसा हो जाने के बाद, मैंने अचानक उनसे पूछ लिया, कि उनके कितने घरों में स्नानघर हैं, जहाँ उनकी महिलाएँ स्नान कर सकती हैं। लगभग 20 पुरुषों के समूह में, केवल एक हाथ उठा। मैंने उन्हें सलाह दी, कि अब जब पानी की समस्या हल हो गई है, तो क्या ऐसा नहीं हो सकता, कि एक ऐसे परिसर का निर्माण करने के लिए पैसा जुटाने के बारे में विचार करें, जहां महिलाओं के स्नान के लिए सुरक्षित और निजी स्थान हों।

समूह के नेता ने मुझसे कहा – “हम मराठा हैं। हमारी महिलाएं सार्वजनिक स्नानघर में नहाने नहीं जाएंगी।” तो मैंने पूछा – “यदि किसी के घर में स्नानघर नहीं है और यदि उनकी महिलाएँ सार्वजनिक स्नानघर में नहीं जा सकती, तो वे कहाँ इसकी व्यवस्था करते हैं?” मुझे बताया गया, कि समुदाय द्वारा अनौपचारिक रूप से कुछ घंटे तय किए गए हैं, जब महिलाएं उस तालाब के पास खुले में स्नान करती हैं, जिसे साफ किया गया है। मैंने नेता से पूछा कि क्या उनकी कोई बेटी है? उन्होंने कहा, उनकी बेटी है। उन्होंने मुझे गर्व के साथ बताया कि वह एक कॉलेज में पढ़ रही थी। फिर मैंने उनसे पूछा कि उन्हें कैसा लगेगा यदि मैं उनकी बेटी को देखूं, जब वह नहा रही हो?

प्रजनन स्वास्थ्य पर प्रभाव

इससे पहले कि स्पष्ट रूप से गुस्से में भरा आदमी उठकर मुझ पर वार करता, मैंने उन्हें यह बताना जारी रखा, कि कैसे एक प्रसिद्ध चिकित्सा पेशेवर, अभय बांग ने अध्ययन किया है और जानकारी दी है किअनुपयुक्त स्नान के महिलाओं के प्रजनन स्वास्थ्य पर कई दुष्प्रभाव होते हैं। समूह इस मुद्दे को हल करने के तरीके पर विचार करने के लिए सहमत हो गया।

आमतौर पर, जिन गाँवों में महिलाएँ पानी के आम स्रोत में स्नान करती हैं, समुदाय में महिलाओं के लिए वहां जाने को लेकर स्थान और समय पर एक अनौपचारिक आम सहमति बन जाती है। ऐसे स्थान खुले आकाश के नीचे होते हैं। महिलाएं वहां एक समूह में जाती हैं, शायद अपने कपड़े पहने हुए ही स्नान करती हैं, उन्हें बदलकर दूसरे धोने वाले कपड़ों के साथ ही सुखाती हैं और एक या दो घंटे में घर लौट आती हैं। ऐसा एक तालाब पर एकदम सार्वजनिक रूप से हो सकता है या किसी एकांत स्थान पर किसी बहती जलधारा के पास हो सकता है। छोटे और सुदूर गांव में यह समस्या कम होती है। यह मुद्दा घनी आबादी वाले, उत्तर प्रदेश या बिहार जैसे किसी बहु-जातिय गांवों में गंभीर हो सकता है।

बिहार के बहुत गरीब महादलित परिवारों के लिए शायद यह समस्या और भी गंभीर है, जो जूट के डंडों से बनी फूस की छतों वाले झोंपड़ों में रहते हैं, क्योंकि उनके घरों में स्नान करने के लिए बिल्कुल भी जगह नहीं होती। समस्या असल में उन सभी क्षेत्रों में गंभीर हो जाती है, जहाँ पानी दूर से लाना पड़ता है। अपने घर के लिए ईंधन, गोबर, चारा या घास और पानी को सिर पर ढोकर महिलाएं इतना थक जाती हैं, कि अक्सर वे अपने खुद के स्नान के लिए पानी की जरूरत को अनदेखा कर देती हैं। और उन गांवों में समस्या बेहद गंभीर हो जाती है, जहां पानी की किल्लत है और जहाँ टैंकरों से आपूर्ति होने के कारण पानी की उपलब्धता न्यूनतम है।

स्नान के स्थानों का महत्व

मुझे अक्सर अचम्भा होता है, कि शौचालय बनाने के बारे में इतनी चर्चा होती है और पैसा प्रदान किया जाता है, लेकिन स्नान के लिए निजी स्थानों के निर्माण के लिए नहीं। शौचालयों पर एकतरफा जोर का एक संभावित कारण यह होगा, कि खुले में शौच से इंसान का मल पीछे छोड़ दिया जाता है, जो हमारे शहरी नथूनों को बहुत चोट पहुंचाता है और आंखों के लिए बदसूरत जाला बन जाता है। बेशक, इसके द्वारा महिलाओं की गरिमा पर चोट पहुँचाने से, कई तरह की दुखदायी परेशानी का भी सबूत है। ईमानदारी से, घर पर शौचालय इस समस्या को खत्म करते हैं। वे खुले में शौच के मुकाबले, कुछ खास तरह के रोगाणुओं के प्रसार को भी कम करते हैं, लेकिन यह कहना, कि इनसे पानी के माध्यम से फैलने वाले सभी संक्रमण नियंत्रित हो जाएंगे, स्वयं को मूर्ख बनाने जैसा है।

महिलाओं के लिए स्नान के स्थानों के बारे में क्या? जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, एक बड़े बहुमत के, कुछ जिलों में 90% तक, घरों के परिसर के अंदर छतदार स्नानघर नहीं हैं। बिना पर्याप्त निजता, बिना छत के स्नानघरों के बिना, तो महिलाएं स्नान कहां करें? उनके प्रजनन-आधारित संरचना के चलते उनपर इसका क्या प्रभाव पड़ता है? किसी ने गंभीरता से विचार नहीं किया है। नीति बनाने वाले क्षेत्रों के ज्यादातर पुरुष, शायद इस बात से अनजान होते हैं जिसपर सार्वजनिक रूप से बिलकुल चर्चा नहीं होती, जैसे कि महिलाओं के लिए निजी स्नान स्थलों के न होने से स्वास्थ्य के प्रतिकूल परिणाम। सही अर्थों में, दृष्टि से ओझल यानि मन (विचार) से बाहर।

संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।