अफीम के लिए एक वैकल्पिक फसल के रूप में उभर कर आई अमेरिकी केसर

चतरा, झारखंड

झारखंड के दूरदराज के गाँवों में, जहां अफीम की खेती कई सालों से अवैध रूप से की जाती रही है, वन विभाग ने वैकल्पिक फसल के रूप में व्यावसायिक मूल्य वाली अमेरिकी केसर को बढ़ावा देता है

झारखंड के चतरा जिले के इघारा गाँव की रहने वाली अनीता देवी ने, अपनी संभावनाओं को बेहतर बनाने की उत्सुकता में, नवंबर 2020 में अमेरिकी केसर (Carthamus tinctorius), जिसे कुसुम के नाम से भी जाना जाता है, बोया। एक छोटी किसान, देवी की आमदनी का मुख्य स्रोत आलू और सब्जियाँ हैं।

देवी बताती हैं – “मैंने सुना, कि अमेरिकी केसर लाभदायक है। केवल एक किलो चमकदार पीले फूल के बाजार में 60,000-75,000 रुपये मिल सकते हैं। फूल को सब्जी के रूप में भी खाया जा सकता है, लेकिन ज्यादातर यह अपने रंग के कारण बहुमूल्य है।”

चतरा के प्रतापपुर प्रशासनिक ब्लॉक में, देवी के अलावा, लगभग 20 किसानों ने अमेरिकी केसर की खेती शुरू कर दी है। क्योंकि वन विभाग अफीम उन्मूलन की कोशिश कर रहा है, इसलिए उसने विकल्प के रूप में अमेरिकी केसर को बढ़ावा देना शुरू कर दिया है।

प्रीमियम अफीम

चतरा माओवाद प्रभावित एक पिछड़ा जिला है। क्योंकि नशीले पदार्थ बनाने में इस्तेमाल होने वाली अफीम के ऊंचे दाम मिलते हैं, इसलिए असामाजिक तत्वों द्वारा किसानों को अक्सर इसकी खेती करने के लिए प्रलोभन दिया जाता है। चतरा में 2004-05 से वन भूमि पर अतिक्रमण करके इसकी खेती की जा रही है।

पौधे का सबसे कीमती हिस्सा बीज की फली से मिलने वाला लेटेक्स या दूधिया रस है। हंटरगंज प्रशासनिक ब्लॉक के कटैया गांव के जागेश्वर सिंह ने बताया कि पाउडर के रूप में बिकने वाली एक किलो अफीम से लगभग 4 लाख रुपये मिल जाते हैं।

लेकिन चतरा के पुलिस अधीक्षक, ऋषभ कुमार झा का कहना था कि अफीम की खेती सिर्फ माओवादी प्रभाव के कारण नहीं होती। झा ने VillageSquare.in को बताया – “राज्य के बाहर भेजने के लिए अवैध अनुबंध (ठेके पर) खेती भी इसकी प्रचुरता के लिए जिम्मेदार है।”

हंटरगंज के वन रेंज अधिकारी सूरज कुमार भूषण ने बताया – “अफीम की खेती का मौसम अक्टूबर से मार्च होने के कारण, यह कभी-कभी जंगलों की छोटी जलधाराओं के पास उगाई जाती है। इस अवधि में किसान, फसल की तीन कटाई ले सकते हैं, लेकिन स्थानीय किसानों के मुकाबले बाहर के ठेकेदार अधिकतम लाभ कमाते हैं।

अफीम उन्मूलन

हजारीबाग, जिसके अंतर्गत चतरा आता है, के मुख्य क्षेत्रीय वन संरक्षक, संजीव कुमार ने VillageSquare.in को बताया – “झारखंड वन विभाग 2017 से अफीम नष्ट कर रहा है। अब तक 1,500 एकड़ वन भूमि को बहाल कर लिया गया है और 100 करोड़ रुपये से ज्यादा मूल्य की अफीम नष्ट की गई है।”

अफीम के बड़े खेतों को नष्ट करने के लिए वन विभाग द्वारा ट्रैक्टरों का उपयोग (फोटो- चतरा वन विभाग के सौजन्य से)

अफीम के खेतों का पता लगाने के लिए, वन विभाग उन स्थानीय लोगों की मदद लेता है, जो वन सुरक्षा समितियों के सदस्य हैं। घने जंगलों में अफीम के खेत नष्ट करने के लिए, कभी-कभी 100 से ज्यादा लोगों की टीम जाती हैं।

झा कहते हैं कि अफीम को नष्ट करने के लिए कई एजेंसियों द्वारा अभियान चलाया जाता है। वह कहते हैं – “इस माओवाद प्रभावित जिले में, कई इलाके दुर्गम हैं और पुलिस वन कर्मचारियों के साथ पुलिस जाती है।” अफीम की फसलों को नष्ट करने के लिए ट्रैक्टर और अर्थमूवर इस्तेमाल किये जाते हैं। जहाँ ट्रैक्टर नहीं पहुँच सकते, वहां मजदूर यह काम करते हैं।

हालांकि कटैया गांव के जागेश्वर सिंह को लगता है कि वन विभाग उतना नहीं कर रहा है, जितना वह दावा करता है। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “यदि सरकार वास्तव में इसकी खेती को समाप्त करना चाहती है, तो चतरा में अफीम का निशान भी नहीं होगा।”

जागरूकता अभियान

जबकि हंटरगंज में अब भी 350 एकड़ में अफीम है, भूषण बताते हैं – “बैठकों और पर्चों के माध्यम से हम लोगों में जागरूकता पैदा करते हैं और उन्हें बताते हैं कि अफीम की खेती अवैध और दंडनीय है।”

संजीव कुमार ने बताया – “अफीम के पौधे नष्ट होने से युवाओं में मादक पदार्थों की लत को कम करने और देश के दूसरे हिस्सों में निर्यात को कम करने में मदद मिलेगी। सबसे सकारात्मक बात यह है क्योंकि हमने साल, महुआ, सागवान और शीशम जैसे कीमती पेड़ लगाए हैं, इससे हरित-आवरण भी काफी बढ़ गया है।”

क्योंकि अफीम की खेती में बहुत सारा पानी लगता है और मिट्टी का उपजाऊपन नष्ट होता है, वनीकरण इन दोनों समस्याओं का समाधान करता है। ग्रामीणों का मानना ​​है कि इस प्रकार बचाया गया पानी, धान उगाने के लिए उपयोगी होगा।

वैकल्पिक फसल

प्रतापपुर और हंटरगंज ब्लॉकों में, कृषि-जलवायु परिस्थितियां उपयुक्त होने के कारण, पायलट आधार पर अमेरिकी केसर को अफीम के विकल्प के रूप में बढ़ावा दिया जा रहा है। फसल को ज्यादा पानी की जरूरत नहीं होती है। राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के जिला कार्यक्रम प्रबंधक, निशांत एक्का ने बताया – “हालांकि फूलों की खेती और मछली पालन को बढ़ावा दिया गया था, लेकिन ग्रामीणों ने केसर को प्राथमिकता दी।”

चतरा उत्तरी डिवीज़न के रेंज अधिकारी, अशोक कुमार ने कहा – “वन विभाग द्वारा किसानों को अमेरिकी केसर की खेती के लिए प्रोत्साहित करने के बाद, 2019 और 2020 में किसानों ने बिहार से बीज प्राप्त किया। कुछ ने इसमें दिलचस्पी दिखाई, क्योंकि यह कानूनी है और इससे अच्छा पैसा मिल सकता है।”

इघारा गाँव के किसान अनिरुद्ध कुमार का काम प्रतापपुर में किसानों को केसर की खेती के बारे में सुझाव देना है, जिसके लिए उन्होंने पिछले साल छह दिनों का प्रशिक्षण प्राप्त किया था। कुमार राज्य के ग्रामीण विकास विभाग के अंतर्गत, झारखंड राज्य आजीविका संवर्धन सोसायटी के साथ, एक ‘किसान मित्र’ के रूप में काम करते हैं।

अनिरुद्ध कुमार ने VillageSquare.in को बताया – “कुछ सूत्र हैं, जिन्हें फूल इकठ्ठा करने के बाद ध्यान में रखने की जरूरत है। फूल एक ठंडी जगह पर रखे जाने चाहियें, जहाँ छाया सही हो और धूप में बिल्कुल भी नहीं सूखें।”

व्यवसायिक व्यवहार्यता (viability)

सामान्य रूप से पौधे 3 फीट की ऊंचाई तक बढ़ते हैं। समय के साथ नीचे से कई शाखाएँ निकलती हैं। हंटरगंज ब्लॉक में, कुर्सेल गाँव के किसान चंद्रिका यादव ने अक्टूबर 2019 में पहली बार अमेरिकी केसर उगाई।

उन्होंने कहा – “केसर के बीज अक्टूबर-नवंबर में बोए जाते हैं। मैंने मार्च 2020 में अपनी पहली फसल से 500 ग्राम फसल पाई, और 30,000 रुपये में बेची। मैं अपनी दूसरी फसल से भी अच्छा लाभ कमाऊंगा। धान और आलू से खास पैसा नहीं मिलता।”

ग्रामीणों को, खासतौर से महिलाओं को, बेहतर आय के लिए अमेरिकी केसर उगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया है (फोटो – राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के सौजन्य से)

कुछ ऑनलाइन साइटों पर अमेरिकी केसर की औसत बाजार दर 40 रुपये प्रति ग्राम है। यादव से प्रेरित होकर, कुछ और किसानों ने भी यह खेती अपनाई है, लेकिन बड़े पैमाने पर नहीं।

बिक्री सम्बन्धी मुद्दे

हर किसान यादव की तरह भाग्यशाली नहीं है। कटैया गांव के शंकर चौधरी ने नवंबर 2019 में एक एकड़ से कुछ कम में केसर उगाई। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “क्योंकि मैं अपनी फसल बेच नहीं पाया, इसलिए मैंने 2020 में फिर से कोशिश नहीं की।”

चौधरी ने कहा – “मैंने 300 रुपये के बीज खरीदे थे, और मुझे केवल एक किलो फूल मिला, जिसे मैंने कुछ स्थानीय लोगों में बाँट दिया।” अनिरुद्ध कुमार के अनुसार, तीन डेसीमल (100 डेसिमल=1 एकड़) में बोए बीजों से एक किलो तक फूलों की पैदावार होगी, जो पहली बार उगाने वालों के लिए अच्छी मात्रा है।

अनिरुद्ध कुमार कहते हैं – “रांची के डीलरों के साथ बातचीत चल रही है, जिन्होंने फूलों को खरीदने में दिलचस्पी दिखाई है। वे मार्च में फूलों का निरीक्षण करेंगे और किसानों के लिए कीमत पर फैसला करेंगे। बहुत कुछ फूलों की गुणवत्ता पर निर्भर करेगा।”

उन्होंने कहा कि वह किसानों, विशेषकर महिलाओं से आग्रह कर रहे हैं, कि वे अपनी किस्मत बदलने के लिए अमेरिकी केसर की खेती करें। उन्होंने कहा – “यदि किसानों को एक नियमित बाजार मिल जाए, तो भविष्य में ज्यादा लोग इसकी खेती शुरू कर सकते हैं।”

खाप गांव के चतरा भागीरथी सिंह ने कहा कि अमेरिकी केसर के फूल 85,000 रुपये प्रति किलो तक पर बिक सकते हैं। उन्होंने माना कि वर्तमान में बहुत कम खरीदार हैं। हालांकि यह कश्मीरी केसर (Crocus sativus) जितना मूल्यवान नहीं है, लेकिन फिर भी अमेरिकी केसर की खेती चतरा में एक गेम-चेंजर साबित हो सकती है।

दीपान्विता गीता नियोगी दिल्ली स्थित एक पत्रकार हैं। ईमेल deepanwita.t@gmail.com विचार व्यक्तिगत हैं।