ग्रामीण भारत में सूक्ष्म उद्यमों के व्यापक होते क्षेत्र

आजीविका की व्यापक मांग को पूरा करने के लिए, गाँवों में सूक्ष्म उद्यमों को बढ़ावा देने के लिए, वैसे अलग स्तर के विचारों से लाभ होगा, जो पापड़ और अचार बनाने जैसी साधारण गतिविधियों से हटकर हों

आज के समय में, ग्रामीण गरीबों में सूक्ष्म उद्यमों को प्रोत्साहिक करना और आर्थिक सहायता प्रदान करना आजीविका संवर्धन का एक प्रमुख माध्यम माना जाता है। लेकिन, अपने पारंपरिक ज्ञान के अंतर्गत इन संरक्षकों ने, सूक्ष्म उद्यमों के लिए सीमित गतिविधियों के बारे में ही सोचा है। यदि देश भर में नजर दौड़ाई जाए, तो राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (एनआरएलएम) या ऐसी ही दूसरी योजनाओं के अंतर्गत, आजीविका संवर्धन के प्रयासों पर कुछ सीमित तरह के सूक्ष्म उद्यमों का बोलबाला हैं। इनमें आम तौर पर दुग्ध-उत्पादन, बकरी पालन, आंगन स्तर का मुर्गी पालन, छोटे सब्जी उद्यानों के लिए सिंचाई सहायता, फसल-बंटाई आधार पर भूमि लेना, प्रसिद्ध PPMA (पापड़, अचार, मसाला, अगरबत्ती) उद्यम, छोटी दुकानें, छोटे खाने-पीने के स्टाल, आदि आते हैं।

साधारणतया, परिणाम बहुत संतोषजनक नहीं होते हैं। जब तक गाँव के नजदीक ही कोई व्यस्त बाजार वाला शहर न हो या कम से कम पास में ही समय-समय पर मेले न लगते हों, तो इनमें से ज्यादातर उद्यमों के उत्पाद बेहद अधिक भर जाते हैं, जिस कारण आमदनी कम हो जाती है और उद्यम व्यावहारिक रूप से लाभदायक नहीं रहता। पशुपालन फिर भी बचे रहने के लिए अच्छी तरह तैयार हैं, कम से कम छोटी अवधि में| लेकिन यह तभी संभव है, जब आसानी से प्राप्त पशु चिकित्सा सेवाओं के साथ-साथ बीमा सेवाएं उपलब्ध हों। शेष सभी में आमतौर पर समस्या रहती है।

इसलिए हमें उद्यमों के बारे में थोड़ा हटकर सोचने की जरूरत है। निश्चित रूप से नुक्ताचीनी करने से बेहतर है जोखिम उठाना और अपनी राय देना। इस लेख के बाकी हिस्से में कुछ विचार प्रस्तुत किए गए हैं, जो हो सकता है पूरी तरह से नए न हों, लेकिन निश्चित रूप से उनमें एक बड़ी सम्भावना है, जिसपर कोशिश नहीं हुई है। मैं दो चिंताओं को जोड़ने का प्रयास कर रहा हूं। पहला यह है कि उद्यम का उत्पाद या नतीजों का सामाजिक मूल्य इतना जरूर चाहिए, कि उसमें किए गए सार्वजनिक निवेश को न्यायसंगत ठहराया जाए।

दूसरा यह है कि सूक्ष्म उद्यम के परिणाम, सामाजिक भलाई के लिए भले ही कितने भी हों, लेकिन उसके उत्पाद या सेवाओं के उपभोक्ता के लिए इतने व्यक्तिगत लाभ के हों, कि लोग उसके लिए एक कीमत चुकाने के लिए तैयार हों। केवल तभी वह उद्यम, सार्वजनिक निवेश की बार-बार आवश्यकता के बिना, एक आजीविका पैदा करेगा।

स्नानगृह उद्यम

निजी और सुरक्षित स्नानगृहों के अभाव में ग्रामीण महिलाएं, पुरुषों द्वारा ताकने के शर्मिंदा कर देने वाले डर के चलते, जल्दी-जल्दी और अधूरा स्नान करने को मजबूर होती हैं। गरिमा का मुद्दा उतना ही बड़ा है, जितना स्वास्थ्य का। अधूरा और जरूरत से कम स्नान, महिलाओं के लिए बीमारी और परेशानी का कारण बनता है, विशेष रूप से प्रजनन-आयु वर्ग की महिलाओं के लिए। स्नान करने के लिए एक सुरक्षित और निजी स्थान, और न्यूनतम जरूरी पानी का सुनिश्चित होना, उनके लिए इतना व्यक्तिगत लाभ प्रदान करता है, जिसके लिए वे एक कीमत चुकाने के लिए तैयार हो सकती हैं।

क्या बाथरूम उद्यम हो सकते हैं? सार्वजनिक एजेंसियां ​​बाथरूम बना सकती हैं और उद्यमी स्नान के लिए पानी की व्यवस्था और बाथरूम का साफ रखना सुनिश्चित कर सकता है, आदि। उसके लिए दो तरह का शुल्क तय हो सकता है – इतना शुल्क साधारण पानी के लिए, इतना गर्म पानी के लिए, आदि। यह उद्यम, घनी आबादी वाले लेकिन भरपूर पानी की उपलब्धता वाले क्षेत्रों, जैसे कि पूर्वी उत्तर प्रदेश, उत्तरी बिहार और उत्तरी बंगाल में व्यावहारिक रूप से लाभपरक हो सकते हैं। इन क्षेत्रों में बेहद बंटे हुए, बहु-जातीय समाज रहते हैं, जिस कारण महिलाओं की गरिमा के उल्लंघन का भय और अधिक हो जाता है।

खरपतवार निराई-उद्यम

खरपतवार और फसल के पौधे, दोनों ही मिट्टी से पोषक तत्व लेते हैं और पनपते हैं। यदि किसान अपने खेतों से खरपतवार निकाल दें, तो फसल की पैदावार में वृद्धि होती है। लेकिन खरपतवार की निराई में मजदूरी का ऊँचा खर्च उन्हें इससे हतोत्साहित कर देता है। इसका परिणाम अक्सर यह होता है कि या तो किसान खरपतवार को बिल्कुल नहीं निकालते और कम पैदावार से संतोष कर लेते हैं या कई किसान खरपतवारनाशक का उपयोग करने लगते हैं। ऐसा अधिक विकसित क्षेत्रों में होता है, जहां भूमि के हिसाब से काम करने वाले लोग कम होते हैं।

यह मिट्टी के स्वास्थ्य के लिए बहुत अनावश्यक और हानिकारक है। वास्तव में, महाराष्ट्र के यवतमाल जिले में हाल ही में हुई बहुत सी आकस्मिक मौतों के लिए, इन्हीं खरपतवारनाशकों को जिम्मेदार ठहराया गया है। मध्य प्रदेश में भी इन दवाइयों का इस्तेमाल व्यापक हो रहा है। क्या एक ऐसा उद्यम हो सकता है, जो खेतों से खरपतवार निकलने का काम करे? इसके लिए विभिन्न प्रकार के खरपतवार निकालने वाले यंत्रों के एक भंडार की जरूरत होगी, जिनका उपयोग सेवा प्राप्त करने वालों के खेतों पर किया जाएगा।

उपकरण के इस्तेमाल के बंटवारे से टेक्नोलॉजी बंट जाती है और उसपर खर्च की गई पूंजी को प्रति उपयोगकर्ता कम हो जाती है। यह उद्यम किसानों की खरपतवार की समस्या का समाधान प्रदान करेगा। खरपतवारनाशक की कीमत के हिसाब से निराई का शुल्क तय किया जा सकता है।

वृक्ष-सुरक्षा उद्यम

जग्गी वासुदेव अपनी ‘रैली फॉर रिवर्स’ में और इससे पहले मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपनी ‘नमामि देवी नर्मदे’ में बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण के लिए प्रचारित करते रहे हैं। लेकिन हमारे जैसे गर्म और शुष्क देश में, जब तक कि शुरू के समय में पेड़ों को शुष्क महीनों के दौरान पानी नहीं दिया जाता, और शिकारियों से नहीं बचाया जाता, तब तक उनकी पनपने की दर एकल अंकों तक गिर जाएगी।

क्या प्रत्येक गांव में एक वृक्ष रक्षक उद्यम हो सकता है? उनका काम लगाए गए पेड़ों को पानी देना और यह सुनिश्चित करना होगा कि वे बचे रहें। इससे होने वाले वातावरणीय लाभ, निजी जमीन वालों से व्यक्तिगत और सार्वजनिक जमीन के लिए पंचायत से, प्रति पेड़ शुल्क लेने को न्यायसंगत साबित कर सकते हैं।

एसआरआई (SRI) पौधरोपण उद्यम

यह कोई निष्क्रिय विचार नहीं है। जमीनी स्तर के संगठन, प्रोफेशनल असिस्टेंस फॉर डेवलपमेंट एक्शन (प्रदान) ने वास्तव में बिहार के गया जिले में, एक शुल्क के बदले, एसआरआई (सिस्टम ऑफ राइस इंटेंसिफिकेशन) पौधरोपण करने के लिए कुछ समूहों को तैयार किया और लगाया है। इसके लिए साधारण उपकारणों की आवश्यकता होगी – जिसमें पंक्ति में बुवाई के लिए रस्सियां, नर्सरी के लिए प्लास्टिक ट्रे या चटाई और विशेष समय पर SRI वाली जमीन में खरपतवार की निराई के लिए उपकरण शामिल होंगे। इस SRI-टीम को भुगतान या तो प्रति एकड़ के आधार पर या स्थानीय व्यवस्था के अनुसार फसल के हिस्से के रूप में किया जाता है।

जैविक खेती सामग्री उद्यम

कई नागरिक समाज संगठन और कुछ सार्वजनिक गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, कम से कम रासायनिक वस्तुओं का इस्तेमाल करके, खेती करने को बढ़ावा दे रहे हैं। इस पद्यति को अपनाने वालों को, स्थानीय रूप से उपलब्ध पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं से प्राप्त संसाधनों पर आधारित सामग्री और सुरक्षा उपायों के तरीके अपनाने होंते हैं। आवश्यक सामग्री और उन्हें प्रभावी पोषक तत्वों और संरक्षण सामग्री में बदलने की प्रक्रिया, दोनों ही जानी पहचानी और दस्तावेजीकृत हैं।

मुसीबत यह है कि इसमें इतनी कठोर मेहनत लगती है, कि एक औसत किसान परिवार उनसे बचता है। जैविक खेती सामग्री उद्यम, इन सामग्रियों को व्यावसायिक स्तर पर पैदा करने, और किफायती कीमतों पर पर्यावरण के अनुरूप टिकाऊ सामग्रियां और तरीके प्रदान करने का काम करेंगे। फिर, इसे लगाने के लिए खर्च सार्वजनिक धन के रूप में दिया जा सकता है, लेकिन उद्यम उपयोगकर्ता से लिए गए पैसे पर व्यवहारिक रूप से लाभपरक हो सकता है।

अनुरक्षण उद्यम

ग्रामीण किशोर लड़कियों को यदि माध्यमिक और उच्च विद्यालयों में पढ़ने, गांव के बाहर जाना पड़े, तो वे स्कूल छोड़ देती हैं। लंबी दूरी तक पैदल चलने की जरूरत और पुरुषों से डर, उनके माता-पिता को उन्हें भेजने से हतोत्साहित करता है। क्या ऐसे उद्यम बनाए जा सकते हैं, जो इन बच्चों को परिवहन और सुरक्षा की सेवा प्रदान करें? उनके माता-पिता स्वयं या उनकी ओर से एक सार्वजनिक एजेंसी, मासिक शुल्क का भुगतान कर सकते हैं, जबकि यदि आवश्यक हो तो सार्वजनिक धन वाहन की खरीद के लिए निवेश किया जा सकता है।

इस विषय पर एक गहन चर्चा की जरूरत है। क्या हमारे पास और विचार हो सकते हैं? इन विचारों को क्षेत्र विशेष के अनुरूप होना होगा। उम्मीद है कि जमीन पर कड़ी मेहनत करने वाले बहुत से लोगों के विचारों की एक बड़ी सूची, सार्वजनिक एजेंसियों को उन मुद्दों और उनके समाधानों को व्यापक बनाने में मदद करेगी, जिसके लिए वे सूक्ष्म उद्यमों को सहयोग प्रदान करते हैं।

काम ढूंढने वाले लोगों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जबकि दिहाड़ी या वेतनयुक्त रोजगार के अवसर बहुत कम हैं। यह रुझान केवल बढ़ने ही वाला है, क्योंकि कम वेतन की बजाय, स्वचालित उपकरण और प्रौद्योगिकी देश में आर्थिक विकास को बल दे रही हैं। ग्रामीण भारत में आपूर्ति और नौकरियों की मांग की यह खाई और भी ज्यादा है।

इसलिए आजीविका और गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, ग्रामीण और शहरी व्यक्तियों के सूक्ष्म उद्यमों को बढ़ावा देने लगे हैं। इन कार्यक्रमों का बड़े पैमाने पर विस्तार किया जा रहा है, हालाँकि कई बार अनभिज्ञ प्रशासनिक तंत्र केवल खैरात बाँटने में सहज बने रहते हैं। संयोजक और लाभार्थी, अधिक व्यावहारिक विचारों का इस्तेमाल कर सकते हैं और अधिक प्रभावी एवं व्यावहारिक व्यवस्था लागू कर सकते हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बड़े पैमाने पर चलाए जाने वाले सूक्ष्म उद्यमों के वांछित परिणाम प्राप्त हो सकें।

संजीव फंसालकर पुणे के विकास अण्वेष फाउंडेशन के निदेशक हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान (IRMA), आणंद में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM), अहमदाबाद से फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।