महिलाओं ने प्लास्टिक के कचरे को बुनकर उपयोगी उत्पादों में बदला

लखीमपुर, असम

परम्परागत रूप से बुनाई में माहिर, काजीरंगा के आसपास की महिलाएं, प्लास्टिक-प्रदूषण कम करने और आजीविका कमाने के लिए, प्लास्टिक-थैलों से बने धागे और सूती धागे से सामान बुनती हैं।

20 अक्टूबर को, COVID-19 महामारी के लगभग आठ महीने बाद, दोबारा खुलने के बाद से, असम के काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में अभी तक 1.10 लाख से ज्यादा लोग भ्रमण कर चुके हैं। वन की हरियाली, एकड़ों में फैले खुले दलदली क्षेत्र, घास के मैदान और जंगल भारी संख्या में घरेलू और अंतरराष्ट्रीय, दोनों तरह के पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।

सुलभ पहुँच और राज्य की राजधानी गुवाहाटी से चार घंटे की सड़क यात्रा की दूरी पर स्थित, काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में बड़ी संख्या में हाथी, बाघ और पक्षियों की असंख्य प्रजातियों के अलावा, एक सींग वाले गैंडों की दुनिया की सबसे बड़ी आबादी है।

पर्यटन के कारण बहुत सारा कचरा उत्पन्न होता है, खासतौर पर प्लास्टिक। एक पहल, पारम्परिक रूप से बुनाई में दक्ष स्थानीय महिलाओं को प्लास्टिक से विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए जुटाती है, जिससे प्लास्टिक प्रदूषण से मुक्ति और महिलाओं को उपयुक्त आमदनी, दोनों एक साथ पाने में मदद मिलती है।

प्लास्टिक प्रदूषण

बोचा गाओं गाँव के रूपज्योति सैकिया गोगोई, जो अपनी दुकान ‘काज़ीरंगा हाट’ से पारम्परिक शिल्प बेचती हैं, का कहना है – “हर पर्यटक पर्यावरण के प्रति सचेत नहीं है या प्रकृति की परवाह नहीं करता है। हालांकि उद्यान और सरकार द्वारा कड़े नियम लागू किए गए हैं, फिर भी आपको हर जगह बिखरे हुए प्लास्टिक के थैले मिल जाएंगे, जिससे जानवरों के लिए समस्या होने के अलावा, उद्यान का नजारा भी खराब हो जाएगा।”

बोचा गाओं और काज़ीरंगा के आसपास के दूसरे गाँवों के निवासी भी दुकानों से प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल करते हैं और बाद में उन्हें सड़कों पर कचरे के ढेर में फेंक देते हैं। रूपज्योति सैकिया गोगोई के पति, जो वन्यजीव संरक्षण में शामिल हैं, उन खतरों को लेकर चिंतित थे, जो प्लास्टिक कचरा राष्ट्रीय उद्यान के जीवों के लिए पैदा कर सकता था।

वन्यजीवों और उनके आवास के संरक्षण के लिए समर्पित एक संगठन, कॉर्बेट फाउंडेशन ने इस समस्या के समाधान का फैसला लिया। कॉर्बेट फाउंडेशन के उप-निदेशक और पशु चिकित्सा सलाहकार, नवीन पांडे ने VillageSquare.in को बताया – “हमने प्लास्टिक कचरे का इस्तेमाल करने के बारे में सोचा।”

प्लास्टिक-बुनाई

जानवरों के लिए खतरे और गंदे दृश्य को ध्यान में रखते हुए, गोगोई ने प्लास्टिक की थैलियों का प्रयोग बुनाई में करने का फैसला लिया। इसके लिए उन्होंने काजीरंगा के आसपास के गाँवों की लगभग 2,300 महिलाओं को जुटाकर ‘विलेज वीव्स’ की शुरुआत की।

पूर्वोत्तर राज्यों की ज्यादातर महिलाओं की तरह, गोगोई भी हथकरघा बुनाई जानती हैं। वह कहती हैं – “पारम्परिक वस्त्र, मेखला चादर या गमछा बुनने के लिए हम आमतौर पर सूती धागे का इस्तेमाल करते हैं। कभी-कभी हम बांस से धागा बनाते हैं। इसलिए मैंने बांस के धागों की जगह प्लास्टिक के धागों के इस्तेमाल के बारे में सोचना शुरू किया।”

उन्होंने अपने गाँव की लगभग 20 महिलाओं को इकट्ठा किया, जो बिखरी हुई प्लास्टिक की थैलियों को इकट्ठा करती थीं, उन्हें साफ करती थीं और अच्छी तरह धोती थीं और फिर उन्हें पूरी तरह से सुखा देती थीं। साफ की गई थैलियों से पतली कतरनें काटकर, उन्हें छोर पर जोड़ कर लंबे प्लास्टिक धागे बनाए जाते थे।

महिलाओं ने लंबी चादर की बुनाई की जगह अलग-अलग आकार के पदार्थ बनाना शुरू कर दिया (छायाकार – रूपज्योति सैकिया गोगोई)

अपने करघे पर ताने (करघे पर लम्बाई में लगा हुआ धागा) में उन्होंने सूती धागे का इस्तेमाल किया और बाने (बुनाई में चलने वाला धागा) के लिए प्लास्टिक के धागों का इस्तेमाल किया, जो बांस की शटल पर लपेटी गई थी। अलग-अलग रंग की थैलियाँ उत्पादों को रंगीन बनाती थी।

उत्पाद-विविधता में वृद्धि

गोगोई ने VillageSquare.in को बताया – “हमारे राज्य की महिलाओं को छोड़कर, दूसरे शायद ही कभी मेखला चादर पहनते हैं। विदेशी पर्यटक केवल उनकी प्रशंसा करते हैं, उन्हें छुट्टियों की तस्वीरों के लिए पहनते हैं, लेकिन उन्हें कभी खरीदते नहीं। इसलिए उन्हें बुनना बहुत लाभदायक नहीं था।”

बुनाई के अलावा, अपने करघे बढ़ई से बनवाने और मरम्मत कराने वाले दूसरे राज्यों के बुनकरों के विपरीत, पूर्वोत्तर की महिलाएं प्रचुर मात्रा में उपलब्ध बांस से अपने करघे बना सकती हैं और उनकी मरम्मत कर सकती हैं।

पांडे कहती हैं – “हमने पारम्परिक साड़ी और गमछे से अलग उत्पादों की बुनाई का सुझाव दिया।” इसलिए छह-मीटर लंबे चादर की जगह, करघे के आकार में बदलाव के साथ, महिलाओं ने 18 “x12″ टेबल मैट और 24″x 12” रनर की बुनाई अपना ली। छह टेबल मैट और एक रनर का एक सेट 1,500 रुपये में बेचा जाता है, जिससे प्रति सेट लगभग 700 रुपये का लाभ होता है।

इसी तरह, सूती और प्लास्टिक के धागों का इस्तेमाल करके, महिलाएं वॉल हैंगिंग, डोरमैट, हैंड बैग, पाउच इत्यादि जैसे दूसरे सामान बुनती हैं। प्लास्टिक के रंगीन धागों से उत्पादों को मिलने वाले अलग-अलग रंगों और कम दाम के कारण ये उत्पाद बहुत लोकप्रिय हो गए हैं।

आय में वृद्धि

प्लास्टिक के धागे के साथ बुनाई के इस सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने के लिए, गोगोई ने पड़ोसी गांवों की महिलाओं को प्रशिक्षित किया। वह अपने आस-पास की महिलाओं को सशक्त बनाना चाहती थी, क्योंकि उन्होंने बहुत सी महिलाओं को गुजारे के लिए संघर्ष करते देखा था। क्योंकि सभी महिलाएं बुनाई जानती हैं, इसलिए उन्हें कुछ ही दिनों में रंगों के मिश्रण के बारे में प्रशिक्षित किया और सिखाया जा सकता है।

उत्पादों की बुनाई के लिए प्लास्टिक कचरे का उपयोग करने वाली महिलाओं में से एक, कश्मीरी सैकिया गोगोई ने VillageSquare.in को बताया – “पहले मैं लगभग 5,000 रुपये महीना कमाती थी और अब मैं आसानी से 10,000 से 12,000 रुपये महीना कमाती हूं।”

असमिया भाषा में स्नातक, 28 वर्षीय मालविका बरुआ गोगोई ने बुनाई को प्रशिक्षण के बाद ही गंभीरता से लिया। उन्होंने कहा – “अब मुझे विभिन्न उत्पाद बुनने में मज़ा आता है, दिन में केवल दो या तीन घंटे बुनाई होती है। मुझे बिक्री के बारे में चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि रूपज्योति उसका ध्यान रखती है। हमें अपना पैसा मिलता है और हमें खरीदारों से मिलने वाली सराहना से प्यार है।”

पांडे कहती हैं – “असम में पुरुषों में शराब का सेवन प्रचलित है। इन उत्पादों को बुनकर जो पैसा कमाती हैं, उससे महिलाएं बिना शराबी पति से पैसा मांगे, आसानी से अतिरिक्त पैसा बच्चों पर, कपड़े खरीदने, इत्यादि पर खर्च कर सकती हैं। इसलिए इस पहल में अधिक महिलाएं शामिल हो रही हैं।”

सुरेखा कडप्पा-बोस ठाणे में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल:surekhabose@gmail.com