स्थानीयकरण के लिए विकेंद्रीकरण: समुदाय-पंचायती राज संस्थाओं-सरकार के बीच उभरता अनुबंध

ग्रामीण सार्वजनिक व्यवस्थाओं की कमियों को भरने के लिए समुदायों के उठ खड़े होने के साथ, समय आ गया है कि सामाजिक पूंजी की संभावना को पहचाना जाए, और ग्रामीण कायापलट के लिए जमीनी संस्थानों को मजबूत किया जाए।

लोगों और उनके स्थान से सरकार की सत्ता और निर्णय लेने का स्थान जितना दूर होता है, सरकार का प्रदर्शन उतना ही खराब होने के सम्भावना होती है। इस कथन को दोहराने और आलोचना को व्यक्त करने वाले बयानों की विभिन्न प्रकार और वर्णन बार-बार सुने जा सकते हैं।

‘एक जूता सभी को फिट नहीं होता’ एक निरंतर सुनी जा सकने वाली टेक है। किसी कार्यक्रम के सामान्य निर्माण में, किसी स्थान और समुदाय के लिए उपयुक्त जरूरी अंतर को समायोजित करने में असमर्थता को इसका एक कारण माना जाता है।

निर्णय लेने और कार्रवाई के स्थान को अलग करने वाली नौकरशाही की परतों के माध्यम से कार्यक्रम को लागू करने की जरूरत को दूसरा कारण माना जाता है। स्थानीय जरूरतों को न समझना और उन्हें कार्यक्रम से न जोड़ पाना तीसरा कारण है।

किसी भी केंद्रीकृत आपूर्ति-संचालित कार्यक्रम के लिए, स्थानीय मांग न जुटा पाना चौथा कारण है। समुदाय में प्रभावी बदलाव के लिए, आचरण-परिवर्तन संचार को, मुहावरों और समुदाय के सांस्कृतिक लोकाचार के अनुरूप संचालित न कर पाना पांचवा कारण है।

उसके बाद मानव संसाधनों का मुद्दा आता है: यदि कार्यक्रम को एक दूर बैठी सरकार द्वारा तय और कार्यान्वित किया जाता है, तो कार्यक्रम के संचालन में शामिल लोग, स्थानीय समुदायों के प्रति जवाबदेह न होकर, सत्ता के प्रति अपनी निष्ठा रख सकते हैं।

अंत में, कार्यक्रमों की रूपरेखा तैयार करने और उसके कार्यान्वयन में स्थानीय भागीदारी के बिना, स्थानीय पहल और प्रतिनिधित्व दम तोड़ देते हैं और लोग उन सरकारी अधिकारियों के मूक याचक बन जाते हैं, जो सेवाएं देने की बजाय, खैरात देने वाले संरक्षक हो जाते हैं।

ऐसे माहौल में किराए की मांग आम हो जाती है। इस तरह के सभी कारणों के लिए, नुस्खा हमेशा यही है कि निर्णय लेने और कार्यान्वयन की जिम्मेदारी के स्थान को, जितना संभव हो सके लोगों के नजदीक पहुँचाया जाए।

विकेंद्रीकृत विकास प्रशासन

ग्रामीण आबादी से संबंधित मुद्दों के लिए, विकेन्द्रित प्रशासन का तर्क 73वें संशोधन का आधार बना और बाद में 95वें संशोधन के अंतर्गत जनजातीय क्षेत्रों में इसका विस्तार हुआ। भूतपूर्व बॉम्बे प्रेसीडेंसी के अंतर्गत आने वाले राज्य संशोधन से बहुत समय पहले से विकेन्द्रीकृत विकास प्रशासन का संचालन कर रहे थे। लेकिन इस संशोधन ने पंचायती राज संस्थानों को संवैधानिक दर्जा दिया और उन्हें पूरे देश में अनिवार्य कर दिया।

इस संशोधन ने संविधान में एक नया अध्याय जोड़ किया और यह तय कर दिया कि कई प्रकार के कार्य अनिवार्य रूप से ग्राम पंचायत द्वारा किए जाएंगे। जैसी उम्मीद की जाती है, जब तक इस संवैधानिक आदेश को संसाधन हस्तांतरण से नहीं जोड़ा गया, तब तक बहुत कुछ होने की उम्मीद नहीं थी और ऐसा ही हुआ।

14वें वित्त आयोग ने इस विसंगति में कुछ हद तक सुधार करते हुए, पंचायत को कुछ मात्रा में प्रत्यक्ष संसाधन हस्तांतरण को अनिवार्य कर दिया। सरकारी अधिकारियों के साथ शक्ति-संतुलन की स्थिति की तरह ही, पंचायतों के दायरे का मुद्दा अभी तक अनसुलझा है।

‘स्थानीयकरण’ की तुलना में विकेंद्रीकरण की कारगरता का मुद्दा, जिसकी हम नीचे चर्चा करेंगे, महामारी के मद्देनजर सामने आया है। महामारी ने एक ऐसी दुनिया से उभरते और चमकते भारत के लिए कई तथ्य प्रस्तुत किए हैं, जो हम सोचते थे कि केवल पुरानी बॉलीवुड फिल्मों में ही होती हैं।

ग्रामीण भारत पर महामारी का प्रभाव

गरीबी, असमानता, बुनियादी मानवीय जरूरतों तक पहुंच का अभाव, मृत्यु तक में गरिमा का अभाव, ये सभी शासन, सरकार और समुदाय की वर्तमान योजना से एकदम परे हैं। अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के एक सर्वेक्षण में ये कमियाँ स्पष्टता से उजागर हुई हैं। सर्वेक्षण के अनुसार, अनुमानतः 23 करोड़ भारतीयों को न्यूनतम मजदूरी स्तर पर, गरीबी में धकेल दिया गया है।

दूसरी लहर ने ग्रामीण क्षेत्रों में, संक्रमण और मौतों में तेजी से हुई वृद्धि के साथ, स्थिति को और ख़राब कर दिया है। यहां तक ​​कि कार्यस्थलों पर संक्रमण के डर से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के अंतर्गत रोजगार में भी गिरावट आई है।

कई तरह के लॉकडाउन के कारण शहरों में प्रवासी अनौपचारिक रोजगार कमाने वालों को आय का नुकसान हो रहा है। इसका असर करीब 40 करोड़ ग्रामीण भारतीयों पर पड़ सकता है। लगभग 60% ग्रामीण परिवारों को आय और संपत्ति की हानि हो रही है, और इसके कारण पोषण का अभाव, जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। स्वास्थ्य-आजीविका-आशा का परस्पर मजबूती प्रदान करने वाला अन्तर्सम्बन्ध भंवर में है।

महामारी के सकारात्मक परिणाम

पूरे देश पर COVID-19 के दर्दनाक प्रभाव से कम से कम एक सकारात्मक नतीजा सामने आया है। शासन का एक नया मॉडल उभरता नजर आ रहा है, इसलिए नहीं कि कुछ उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने इसकी सिफारिश की और शक्तियां इच्छाशक्ति से आ रही हैं, बल्कि एक-दूसरे में उलझी समस्याओं के दबाव में स्थिति बनी है।

जब महामारी ने लोगों के अस्तित्व के लिए ही अभूतपूर्व चुनौती पेश कर दी और जब उन्होंने पूरे ग्रामीण भारत में सार्वजनिक व्यवस्थाओं की भयानक खामियाँ देखी, तो कई स्थानों पर समुदायों ने न्यूनतम कल्याण सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

विशेष रूप से बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के बीमारू राज्यों में, हमने पाया कि एक ग्रामीण समाज के रूप में, गैर-इस्तेमाल सामाजिक पूंजी का एक बड़ा खजाना है, जो सहानुभूतिपूर्वक और संसाधनपूर्वक एक दूसरे को सहयोग करने में सक्षम है, भले ही राज्य व्यवस्था लड़खड़ा जाए और अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल हो जाए।

हालांकि हमें करदाताओं के पैसे की बर्बादी के बारे में खुलकर रोना और राजनीतिक जवाबदेही के बारे में नाराज होने का अधिकार है, लेकिन इस इस्तेमाल न की गई सामाजिक पूंजी के दोहन के व्यावहारिक तरीकों को तलाशना भी महत्वपूर्ण है।

समुदायों द्वारा स्थिति को पहले से कहीं अधिक हद तक अपने हाथ में लेने का प्रभाव हर उस जगह असरदार हुआ है, जहां सामूहिक गतिविधियों के वैकल्पिक मंच, पुराने या नए, उपलब्ध थे। यह समुदाय-पंचायती राज संस्था-सरकार के सहयोगात्मक तालमेल का नया मॉडल है।

इस कुंजी से ताले को खोलने का सबक (हां, जो हमें लंबे समय तक तालों से बाहर रहने में मदद कर सकता है!) ‘स्थानीय पड़ोस सहयोग व्यवस्था’ को बढ़ावा देने में है। पहली लहर के समय, COVID समितियों पर कुछ प्रयास किए गए; जिससे इसकी क्षमता प्रदर्शित हुई, लेकिन व्यवस्थित निवेश और सहयोग के अभाव में, वे बिखर गई।

आगे का रास्ता

आगे बढ़ते हुए, स्थानीय स्तर की तैयारियों को विकसित करने के लिए ग्रामीण भारत की दो प्रमुख सामुदायिक व्यवस्थाओं को मजबूत करने की जरूरत है – (ए) ग्राम पंचायतें (बी) स्वयं सहायता समूह – ग्राम संगठन – क्लस्टर स्तर की फेडरेशन (एसएचजी-वीओ-सीएलएफ)। यह बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं, अधिकारों तक पहुँच और आर्थिक विकास को थामने वाले प्रस्तावित रोडमैप का मुख्य संस्थागत स्तंभ है।

हमारी समझ से, यह प्रयास निकट अवधि के परिणामों के अलावा, स्वास्थ्य और आर्थिक दोनों आयामों पर टिकाऊपन का व्यवस्थागत रास्ता मजबूत कर सकता है, समुदाय-आधारित संगठनों – पंचायती राज संस्थानों – स्थानीय प्रशासन (सीबीओ-पीआरआई-एलए) के तालमेल का अनूठा रास्ता, जो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं और स्थान-आधारित आर्थिक अवसरों को गहराई प्रदान करेगा।

महिला समूहों के साथ कार्यान्वयन और राष्ट्रीय आजीविका कार्यक्रमों के अंतर्गत, एसएचजी-वीओ-सीएलएफ की विश्वसनीयता का व्यापक ग्रामीण परिवर्तन के लिए उपयोग किया जा सकता है।

एक स्वाभाविक प्रश्न यह उठता है कि क्या सभी समुदाय आधारित संगठन इस प्रकार के तालमेल का हिस्सा बनने और सफलतापूर्वक चलाने में सक्षम हैं या केवल कुछ जाने-माने गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) द्वारा बनाई और मार्गदर्शन प्राप्त समुदाय आधारित संगठन ही ऐसा कर सकते हैं। दूसरे, हमें जानकारी है कि भारत किसी अवधारणा के महिमामंडन और उसके घिसे-पिटे इस्तेमाल और दुरुपयोग के बाद, उसे दोष देने के मामले में माहिर हो गया है।

हालांकि सीबीओ-पीआरआई-एलए गठजोड़ उच्च वर्ग के कब्जे और तुच्छ बनाने, दोनों के लिए खुला है, लेकिन हमने इसे लोगों के कल्याण के लिए पहुँच के एक शक्तिशाली मंच के रूप में देखा है। इस कहानी के दूसरे भाग में हम इस नए सामाजिक तालमेल और एक सीमित समय में उनसे प्राप्त लाभदायक परिणामों के उदाहरण प्रस्तुत करेंगे।

हम यह भी बताएंगे कि कैसे नया गठजोड़ पहले पैराग्राफ में दिए गए खराब प्रदर्शन के ज्यादातर कारणों का जवाब है। हमें विश्वास है कि नए गठजोड़ की संभावनाएं इसकी सीमाओं तक पता लगाने के लिए परेशानी के लायक हैं।

अनीश कुमार ‘ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन’ की लीड टीम का हिस्सा हैं। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत प्रदान में की। वे  फॉरेस्ट मैनेजमेंट में स्नातकोत्तर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।