भारत की 4% भूमि पर कब्ज़ा कर चुकी घुसपैठिया प्रजाति, लैंटाना से अपनी भूमि को छुटकारा दिलाने के लिए पूर्वी मध्य प्रदेश के गांव एक साथ आ गए, और बाजरे और तिलहन की खेती करके, अपने खेतों को बहाल कर लिया
इलाइची बाई अपनी हथेली पर काले, गोल दाने घुमाती हैं। पूर्वी मध्य प्रदेश के मंडला जिले के उमरवाड़ा गांव में उनके खेत में महिलाओं के एक समूह द्वारा, सूखा-प्रतिरोध और उच्च पोषण के लिए जाना जाने वाला कोडु बाजरा (paspalum scrobiculatum) काटा जा रहा है। पिछले 15 साल से 1.2 हेक्टेयर के खेत में कोई फसल नहीं हुई थी।
पिछले साल तक, इस जमीन में लैंटाना (lantana camara), तेजी से फैलने वाले पौधे, जो आमतौर पर लाल, नारंगी, गुलाबी और पीले फूलों के गुच्छों वाली घनी झाड़ियों के रूप में पनपते हैं। लैंटाना को भारत में 1800 की सदी में, एक सजावटी पौधे के रूप में लाया गया था| लेकिन तब से यह जंगलों, चरागाहों और खेतों के 1.3 करोड़ हेक्टेयर से अधिक, यानि देश में कुल क्षेत्र के लगभग 4%, में फैल गया है।
इसका कोई लाभ नहीं है, क्योंकि जानवर तक भी इसकी पत्तियों को नहीं खाते हैं| लेकिन पक्षी और कीड़े इसके फल खाते हैं, और इसके बीजों को फैलाने में मदद करते हैं। इसकी घनी झाड़ियाँ, शाकाहारियों की पसंद, देसी प्रजातियों को धकेल देती हैं, जिससे उस स्थान की पर्यावरण और अर्थशास्त्र पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है। ग्लोबल इनवेसिव स्पीसीज इंफॉर्मेशन नेटवर्क (GISIN) ने लैंटाना की दुनिया की शीर्ष 10 आक्रामक प्रजातियों में पहचान की है।
उमरवाड़ा में भी, कान्हा नेशनल पार्क से सटे लगभग 35 हेक्टेयर निजी खेत भी लैंटाना का शिकार हुए हैं, जिस
कारण लोगों की आजीविका प्रभावित हुई है। इलाइची बाई उनमें से एक थीं।
उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “एक समय था जब हम ऊपर तक खेत जोतते थे| लेकिन जब जंगली जानवरों, खासकर सूअरों ने फसल को नुकसान पहुंचाना शुरू किया, तो हम में से कुछ ने यह कोशिश बंद कर दी। उन किसानों को, जो अभी भी वहां फसल उगाने के लिए उत्सुक थे, जंगली जानवरों के कारण और अधिक नुकसान हुआ, क्योंकि जहां वह पहले बहुत से खेतों में बंट जाते थे, अब सब उनके खेतों में जुटने लगे। वर्षों के दौरान, सभी ने अपने खेतों को बिना बोए छोड़ दिया और लैंटाना ने उन पर कब्जा कर लिया।”
किसानों ने केवल निचली समतल जमीन में चावल
उगाने पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया| हालांकि यहां भी जंगली जानवर
आते हैं, लेकिन बस्ती करीब होने के कारण देखभाल करना आसान
है।
एकजुट होना
वर्षों तक असहाय रूप से लैंटाना द्वारा अपने खेतों पर कब्ज़ा होते देखने के बाद, इसे उखाड़ फेंकने के लिए ग्रामवासी एक जुट हो गए हैं। 2016 में शुरू करके, उन्होंने सामूहिक श्रम के माध्यम से, लगभग 22 हेक्टेयर जमीन से पौधों को हटा दिया है। प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के काम का समन्वय करने वाली ग्राम समिति, प्रकृति संसाधन प्रबंधन समिति के अध्यक्ष, तिलक सिंह पार्थी ने VillageSquare.in को बताया – “लैंटाना को बाहर निकालने के लिए लगभग चार लोगों की जरूरत होती है, जिसकी जड़ें कम गहरी, लेकिन बहुत घनी होती हैं। गाँव के ज्यादातर परिवार इस काम में लगे हुए थे।”
शुरू में, समिति ने पहले राजस्व रिकॉर्ड्स के आधार पर पूरे खेत का पूरा नक्शा तैयार किया, और उन खेतों को चिह्नित किया, जिनमें लैंटाना का प्रकोप था। एक गैर-लाभकारी संगठन, फाउंडेशन फॉर इकोलॉजिकल सिक्योरिटी (FES), जिसने इस प्रक्रिया में ग्रामवासियों का मार्गदर्शन किया, के सुहास के. हमसागर कहते हैं – “जमीन की पहचान करना जरूरी था, क्योंकि कई किसानों को अपने खेतों का आकार और रूपरेखा याद नहीं थी। इसके अलावा, नक़्शे से काम शुरू करने की योजना बनाने में मदद मिली।” FES ने आंशिक वित्तीय सहायता भी प्रदान की, जबकि खेत मालिक ने कुल लागत का 16% दिया।
लैंटाना को हटाना एक समस्या है, क्योंकि पारंपरिक तरीके से काटने, जलाने या बेतरतीब उखाड़ने से ये दोबारा पनप जाता है। अशोका ट्रस्ट फॉर रिसर्च इन इकोलॉजी एंड एनवायरनमेंट (ATREE), के एसोसिएट प्रोफेसर, आर. सिद्दप्पा सेट्टी, जो वन्य जीवन अभयारण्यों में लैंटाना के फैलाव का अध्ययन और प्रभावित जमीन की उससे मुक्ति के लिए काम कर रहे हैं, ने VillageSquare.in को बताया – “इसे निकालने वक्त जब मिट्टी को पलटा जाता है, तो जमीन के नीचे पड़े लैंटाना के बीज, धूप और नमी के संपर्क में आ जाते हैं, जिससे उनके अंकुरण में मदद मिलती है। जब इसे जलाया जाता है, तो गर्मी के कारण बीज का बाहरी आवरण हट जाता है, जिससे उसका अंकुरण जल्दी होता है, और इसलिए लैंटाना तेजी से दोबारा पनप जाता है।”
सेंटर ऑफ एनवायर्नमेंटल मैनेजमेंट ऑफ डिग्रेडेड इकोसिस्टम (CDMDE) के सी. आर. बाबू द्वारा विकसित की गई, जड़ को काटने की पद्धति, लैंटाना को साफ करने का एकमात्र सफल तरीका है। इस विधि में, पौधे की जड़ को, मिट्टी के साथ न्यूनतम छेड़छाड़ करते हुए, जमीन से 3 इंच नीचे काटा जाता है। इसके बाद इसे दोबारा पनपने से रोकने के लिए, झाड़ी को उठाकर उल्टा रखा जाता है।
खेत को पुनः
तैयार करना
जमीन के साफ होने के बाद, उमरवाड़ा के किसानों ने बाजरा और तिलहन की बुआई की, और जंगली जानवरों से नुकसान को कम करने के लिए, कृषि-वन और कुदरती बाड़ लगाई। इनमें खम्हार (Gmelina arborea), लादिया (Lagerstroemia parviflora) और बांस प्रमुख हैं। जानवरों को खेतों में घुसने से रोकने के लिए बांस को एक बाधा के रूप में लगाया जा रहा है, जबकि लादिया से अच्छे पैसे मिलते हैं, क्योंकि इलाके में घर बनाने के लिए बड़े पैमाने पर इसका इस्तेमाल किया जाता है।
परसराम, जिन्होंने अपनी 3 हेक्टेयर जमीन से लैंटाना को निकाला, ने VillageSquare.in को बताया – “जंगली जानवर अब भी यहां आएंगे, लेकिन यदि हम सभी अपने खेत जोतते हैं, तो नुकसान का बंटवारा हो जाएगा। साथ ही, निचले खेत नुकसान से बच जाएंगे, क्योंकि जानवरों को अपना पेट भरने के लिए ऊपर की जमीन में ही मिल जाएगा।”
इसके कई लाभ हैं। परसराम कहते हैं – “मैं खेत में बाजरा उगा रहा हूं, लेकिन तेंदू-पत्ते और महुआ के फूल भी ज्यादा मिल रहे हैं, जिनका लैंटाना के घने फैलाव के कारण पहले पैदा होना मुश्किल था।” काम के लिए शहरों में होने वाले अधिक पलायन को ध्यान में रखते हुए,
स्थानीय जैविक संसाधनों का उचित उपयोग गांवों में आय बढ़ा सकता है।
हमसागर कहते हैं – “किसान अपनी ज़मीन में खेती जारी
रखें और लैंटाना प्रकोप की पुनरावृत्ति न हो, ऐसा सुनिश्चित
करने के लिए बेहतर आर्थिक लाभ ज़रूरी है।”
लैंटाना आसानी से दोबारा पनप सकता है और
इसलिए भूमि का इस्तेमाल तुरंत करना होगा। जहां निजी जमीन में फसल बोना और किसी भी
नए लैंटाना को निकाल देना आसान है, वहीं सार्वजानिक चारागाह
और जंगल सबसे अधिक प्रभावित बने रहते हैं, क्योंकि इसके
प्रबंधन के लिए समुदाय और सरकारी विभागों के सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होती
है। हालांकि, इन इलाकों में भूमि के पुनर्ग्रहण के कुछ
उदाहरण भी हैं।
मंडला के उमरवाड़ा से लगभग 15 किमी दूर इंद्रवन गांव में, ग्रामवासियों ने 15 हेक्टेयर राजस्व जंगल की भूमि को ठीक किया। लैंटाना झाड़ियों को हटाने के बाद, उन्होंने देसी घास के बीज को मिट्टी के साथ मिलकर गेंदें तैयार कीं और उन्हें उस जमीन में चारों ओर फेंक दिया। क्योंकि घास तेजी से फैलता है, इसलिए घास जमीन को बहाल करने के लिए सबसे अच्छी प्रजाति है| यह मिट्टी को बांधने वाले जीवाणुओं को बढ़ावा देता है और पोषण के चक्र को शुरू करता है, जिससे अन्य प्रजातियों के विकास में मदद मिलती है। पांच साल पहले तक लैंटाना से पटी हुई भूमि में अब पशुओं द्वारा चरी जाने वाली अनेक तरह की घास के साथ-साथ, सागौन, साज (Terminalia elliptica), धावा (Anogeissus latifolia), बांस, आंवला और बहेडा जैसे पेड़ उगे हुए हैं।
पहले, जानवरों को चराने के लिए कान्हा नेशनल पार्क के बफर ज़ोन में ले जाते थे, लेकिन वह कभी काफी नहीं होता था। इंद्रवन के देवाराम मरावी ने VillageSquare.in को बताया – “बहुत अधिक खुली चराई के कारण, बफर क्षेत्र को बहुत नुकसान हुआ है। साथ ही, इसका मतलब यह था कि हमें जानवरों के पीछे घंटों जंगल में रहना पड़ता था, जबकि उसी समय का खेत में इस्तेमाल किया जा सकता था। अब हम इस भूमि पर उगी घास ले जाकर बांधने के स्थान पर ही जानवरों को खिलाते हैं, जिसका अर्थ यह भी है कि उनका गोबर घर पर रहता है, जिसका खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जब अपने खेत पर घास नहीं होती, उस समय में जानवर बफर जोन में खुली चराई के लिए जाते हैं।”
नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन (NCF) द्वारा उपग्रह इमेजरी के इस्तेमाल से किए गए एक अध्ययन के अनुसार, मैसूर-ऊटी मार्ग पर स्थित बांदीपुरा नेशनल पार्क में, लैंटाना ने लगभग 50% जंगल पर कब्ज़ा कर लिया है। जंगल के अंदरूनी इलाकों में फैलने से पहले, यह पौधा विशेष रूप से ऊबड़-खाबड़ या टूटे हुए स्थानों, जैसे कि सड़कों और नदियों के आसपास पनपता है।
JungleScapes नाम की बंगलुरु स्थित गैर-लाभकारी संस्था, बांदीपुरा में 100 हेक्टेयर भूमि को बहाल करने के लिए, वन विभाग के साथ काम कर रही है। समूह ने स्थानीय गांवों के 22 लोगों को जड़-काटने वाली पद्धति पर प्रशिक्षित किया। साफ किए गए क्षेत्र में, देसी घास लगाई गई, लेकिन किसी भी पौधे की प्रजाति नहीं लगाई गई।
JungleScape के रमेश वेंकटरामन ने फ़ोन पर VillageSquare.in को बताया – “हम इसे निष्क्रिय बहाली (पैसिव रेस्टोरेशन) कहते हैं। लैंटाना को साफ़ करने के बाद, स्थानीय प्रजाति के पौधे अपने आप उग आए और हमने पानी जमा करने के लिए खाइयाँ खोदी, जो इन पौधों को बचा सके। इससे सुनिश्चित होता है कि एक विशेष प्रजाति का घनत्व प्राकृतिक क्रम में है, न कि हमारे सीखे अनुसार नियोजित वृक्षारोपण के अनुसार, जो कि दोषपूर्ण हो सकता है।”
निकाली गई झाड़ियों में से लगभग 80% को ग्रामवासियों को ईंधन की लकड़ी के रूप में उपयोग
करने के लिए दिया जाता है। स्थानीय लोगों को फर्नीचर की वस्तुओं और लकड़ी से छोटे
स्मृति चिन्ह बनाने के लिए भी प्रशिक्षित किया गया है, जो
इलाके की चार दुकानों में बेचे जाते हैं। वेंकटरामन कहते हैं – “इस कौशल से ग्रामवासियों को, रोज कुछ घंटे लगाकर,
प्रति माह लगभग 4,000 रुपये कमाने में मदद
मिलती है। हालांकि, हम कुछ मूल्य बढ़ाकर उन उत्पादों को बेचने
में सक्षम नहीं हैं, जिससे पर्यावरण बहाली के काम में आर्थिक
सहायता मिल सकती थी। लोग अभी भी वह कीमत चुकाने के लिए तैयार नहीं हैं।”
कई गैर-लाभकारी समूहों ने इस उदाहरण से
सीखा है और अपने क्षेत्रों में इसे दोहराने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप जैव-विविधता की बहाली हुई है,
और लैंटाना के आसपास रहने वाले लोगों के लिए नए आर्थिक रास्ते खुले
हैं।
[इस लेख के लिए फील्ड रिपोर्ट ‘ट्रांस डिसिप्लिनरी
यूनिवर्सिटी – नेचर इंडिया मीडिया फैलोशिप’ के सहयोग से संभव
हुई।]
मनु
मौदगिल चंडीगढ़ स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।
अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए, तमिलनाडु के शिक्षित युवाओं ने अपनी पैतृक भूमि का आधुनिकीकरण करके और इज़राइली कृषि तकनीक का उपयोग करके कृषि उत्पादन को कई गुना बढ़ा दिया है।
पोषण सखी या पोषण मित्र के रूप में प्रशिक्षित महिलाएं ग्रामीण महिलाओं, विशेषकर गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पौष्टिक भोजन खाने और एनीमिया और कम वजन वाले प्रसव पर काबू पाने के लिए सलाह और मदद करती हैं।
ओडिशा में, जहां बड़ी संख्या में ग्रामीण घरों में नहाने के लिए बंद जगह की कमी है, बाथरूम के निर्माण और पाइप से पानी की आपूर्ति से महिलाओं को खुले में नहाने से बचने में मदद मिलती है।