लिफ्ट-सिंचाई पद्यति से मानसून-निर्भर किसानों को फलने-फूलने में मदद मिलती है

मुर्शिदाबाद, पश्चिम बंगाल

खेतों के कलनई नदी से ऊंचाई पर होने के कारण , किसान वर्षा आधारित धान या जूट उगाते थे। समुदाय की लिफ्ट-सिंचाई व्यवस्था से उन्हें अधिक फसल उगाने, बेहतर पैदावार प्राप्त करने और अधिक कमाने में मदद मिली है

कई विकासशील देशों के लिए, कृषि उत्पादकता में वृद्धि, गरीबी में कमी की कुंजी है। मॉनसून पर अधिक निर्भरता टिकाऊ नहीं है, और अभी भी सिंचित खेती एक संसाधन है, जिसकी बहुत से गरीब किसान इच्छा रखते हैं।

इसके विपरीत, पानी की बेतहाशा बर्बादी से उन किसानों को भारी नुकसान हो रहा है, जिन्हें उत्पादन लागत में वृद्धि और हमेशा आसपास रहने वाले पानी के संकट का सामना करना पड़ता है। ऐसे हालात में, एक जल परियोजना लागू करते समय, दोनों पहलू, यानि पानी की उपलब्धता और टिकाऊपन, ध्यान में रखे जाने चाहियें।

2.74 लाख की आबादी वाला मुर्शिदाबाद जिला, सामाजिक-आर्थिक रूप से पश्चिम बंगाल के सबसे पिछड़े क्षेत्रों में से एक है। जिले के सीमांत किसानों और बंटाईदारों का लगभग 80% संथाल जनजाति से हैं, जो 1.5 हेक्टेयर (3.75 एकड़) से कम भूमि पर खेती करते हैं।

मजदूरी के अलावा, पशुपालन और कृषि आय के प्राथमिक स्रोत हैं। कृषि मुख्य रूप से वर्षा-आधारित है, जिससे धान या जूट की मात्र एक फसल मिलती है। सामान्य वर्षा की स्थिति में, धान की पैदावार 2500 किलोग्राम प्रति हेक्टयेर होती है, जो वर्षा कम होने की स्थिति में घटकर 1,400 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक रह जाती है। यदि मानसून सामान्य हो और मिट्टी में नमी पर्याप्त मात्रा में रह जाए, तो कुछ किसान दलहन की दूसरी फसल ले पाते हैं।

जिले के वो गाँव, जो कलनई नदी के किनारे स्थित हैं, उनमें अक्सर बाढ़ आती है और कभी-कभार सूखा पड़ता है। मानसून पर अत्यधिक निर्भरता और एकल फसल के कारण पैदावार बेहद कम होती है और अधिकांश किसान रोजगार के लिए नजदीकी शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर हो जाते हैं।

नदी के पास के किसानों की खुद की सिंचाई की व्यवस्था है और वे साल में तीन फसलें लेने में सक्षम हैं, जिससे उन्हें वर्षा-आधारित फसलें उगाने वालों की तुलना में, 141% अधिक आमदनी होती है। लेकिन फरक्का में किसानों को बीज की बेहतर किस्मों और सिंचाई प्रणालियों की जानकारी की कमी थी। लिफ्ट-सिंचाई पद्यति शुरू होने से, किसानों की पानी की समस्या हल हो गई है और वे साल में कम से कम दो फसलें लेने में सक्षम हैं।

लिफ्ट-सिंचाई प्रणाली

कुछ गांवों में, स्थानीय नदी कलनई पानी का निकटतम श्रोत है। लेकिन यह खेतों तक पहुंच नहीं सकता था, क्योंकि उनके खेत ऊंचाई पर थे। नदी में बार-बार बाढ़ आने की संभावना के चलते, पानी की कमी नहीं थी और इसलिए लिफ्ट-सिंचाई प्रणाली स्थापित की जा सकती थी।

लिफ्ट-सिंचाई की मदद से नदी के पानी का उपयोग करके, चावल की कटाई के बाद, किसान सब्जियां और दालें उगाने में सक्षम हैं (छायाकार – नितेश जैन)

लिफ्ट-सिंचाई एक ऐसी विधि है, जिसमें गुरुत्वाकर्षण से कुदरती बहाव के द्वारा पानी को ले जाने की बजाय, एक नदी या नहर के पानी को पंप या दूसरे उपकरणों का उपयोग करके ऊपर उठाया जाता है।

लिफ्ट-सिंचाई पद्यति उन क्षेत्रों में विशेष रूप से उपयोगी है, जहां वर्षा अनियमित है, और जमीन ऊँची-नीची होने के साथ वहां पानी के श्रोत का स्तर नीचे हैं। इस तरह के क्षेत्रों में ऐसी व्यवस्था से, मानसून पर निर्भरता कम हो जाती है, कुल पैदावार बढ़ती है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि किसान एक वर्ष में दो और यहां तक ​​कि तीन फसलें उगाने में भी सक्षम हो जाते हैं।

अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन द्वारा संचालित एक कार्यक्रम, ‘कृषि आजीविकाएं’ (Agricultural Livelihoods) किसानों को लिफ्ट-सिंचाई (LI) पद्यति अपनाने के लिए प्रोत्साहित करता है। जो लोग नदी से और दूर थे, उन्होंने इस पद्यति को समझने के उद्देश्य से कुछ प्रदर्शन प्लाट देखने के बाद, LI पद्यति के फायदों को देखा।

सिंचाई में आसानी

पानी और उसकी कृषि के लिए उपयुक्तता का परीक्षण करने के बाद, 2018-19 में कलईडांगा गांव में 81 परिवारों के लिए पहली लिफ्ट-सिंचाई व्यवस्था स्थापित की गई। इन पद्यति की प्रक्रिया और प्रबंधन को समझने के लिए, किसानों ने सद्गुरु फाउंडेशन का दौरा किया।

एक किसान, बिस्वनाथ मंडल ने बताया – “पानी मेरे खेत तक नहीं पहुंचता था, मैं पानी ढो कर अपने खेत तक ले जाता था, लेकिन अब इस व्यवस्था के कारण, मेरे खेत को पानी कितनी आसानी से मिल रहा है।”

बरोदना और जलपुरिया गॉंवों में 223 परिवारों के लिए एक-एक लिफ्ट-सिंचाई व्यवस्था स्थापित की गई। इस व्यवस्था से वर्तमान में, 53 हेक्टेयर की सिंचाई होती है, और फरक्का क्षेत्र के परियोजना क्षेत्र में किसानों की औसत भूमि 0.25 हेक्टेयर (2 बीघा) है।

भैरब डांगा गाँव के एक किसान, रणजीत मंडल कहते हैं – “यह एक बड़ी परियोजना है, जिसमें 80 से अधिक किसान शामिल हैं। हमने पानी का कुशलता से उपयोग करना सीखा है और यह कि कैसे कम से कम पानी के इस्तेमाल से अधिक फसल उगाई जा सकती है। यह हमारे लिए एक बड़ी सीख है।”

उपयोग के अनुसार भुगतान

किसी भी परियोजना की शुरुआत में, सामुदायिक भागीदारी की एक प्रमुख भूमिका होती है क्योंकि इससे यह टिकाऊ, अपनाई गई और किफायती रहती है। किसानों में सुचारु रूप से सामुदायिक चर्चाएं, सिस्टम के बारे में प्रशिक्षण, पाइपलाइनों को ठीक करने और फिटिंग करने की तकनीक, आदि होती हैं।

जमींदार उपयोगकर्ता समूह (यूजर ग्रुप) बनाते हैं, जिन्हें ‘किसान क्लब’ भी कहा जाता है, और वे LI सुविधा का सहकारी स्वामित्व विकसित करते हैं। क्योंकि ग्रामीण पश्चिम बंगाल में बिजली की आपूर्ति अनियमित है, इसलिए एक बिजली का और एक डीजल-संचालित LI पंप लगाया गया है। दोनों पंपों का 73,000 रुपये का खर्च अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन ने वहन किया है।

जिस किसान की भूमि में पंप लगा है, वही किसान-क्लब के सदस्यों की पानी की जरूरतों के अनुसार पंप का संचालन करता है (छायाकार – नीतेश जैन)

अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन के एरिया प्रोग्राम मैनेजर, देबप्रिय घोष ने बताया – “हमारे लिए यह महत्वपूर्ण था कि हम किसानों को किसान क्लबों के साथ संस्थागत रूप से जोड़ें, जिसमें प्रत्येक किसान इस व्यवस्था का उपयोग करने के लिए टोकन के आधार पर मासिक शुल्क जमा कराए। वे एक मासिक शुल्क भी देते हैं।” मासिक शुल्क का उपयोग क्लब की किसी भी गतिविधि के लिए किया जाता है।

किसान  LI प्रणाली के उपयोग के लिए, घंटों के आधार पर भुगतान करते हैं। इस राशि से क्लब को पंप ऑपरेटर, बिजली बिल और पंप हाउस के रखरखाव का खर्च उठाने में मदद मिलती है। किसान, जिसकी जमीन में पंप लगा है, वह प्रशिक्षण लेने के बाद, पंप का संचालन करता है।

किसान समय, अवधि और उसके खेत के लिए पानी जरूरी उसकी मात्रा के बारे में ऑपरेटर को सूचित करता है। ऑपरेटर प्रत्येक किसान के लिए समय नियत करके रखता है। बिजली पंप के प्रत्येक घंटे इस्तेमाल के लिए, किसान 100 रुपये का भुगतान करते हैं, जबकि डीजल पंप के लिए, प्रति घंटे 120 रुपये का भुगतान करते हैं।

सामुदायिक भागीदारी

सभी तीनों LI व्यवस्थाओं का स्वामित्व समुदाय का है। दो और किसान क्लब स्थापित किए गए हैं, जिनकी अपनी पंप इकाइयाँ हैं। उनमें से एक क्लब 100 किसानों को और दूसरा 55 किसानों के लिए काम करता है।

वर्तमान में हर साल किसान धान, दलहन/सरसों और सब्जियों की तीन फसलें लेते हैं। कृषि से होने वाली आय लगभग दोगुनी हो गई है। पहले की आय, 40,680 रुपये प्रति एकड़ से बढ़कर, यह 76,600 रुपये प्रति एकड़ हो गई है।

कलईडांगा किसान क्लब के अध्यक्ष चंदन किस्कू ने बताया – “हमें पर्याप्त पानी मिल रहा है और यह हमारे लिए एक चमत्कार है। खेत में पानी मिलना एक सपने जैसा है। ऐसा महसूस होता है कि नदी हमारी जमीन के बगल से बह रही है। अब हम खुश हैं और भविष्य में और अधिक फसलों की उम्मीद कर रहे हैं।”

सकारात्मक प्रभाव

कलईडांगा गाँव की मारंगबेटी हंसदा, जो 126 लाभान्वित महिला किसानों में से एक हैं, ने कहा – “हमारे क्षेत्र में, महिलाएँ खेती के काम में हिस्सा और उससे जुड़े निर्णय नहीं लेती थीं। लेकिन उपयोगकर्ता समूहों के सदस्यों के रूप में, हम भी एक सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। हमने सब्जी की खेती शुरू कर दी है और खुश हैं कि हमारी आवाजें भी सुनी जाती हैं।”

उपयोगकर्ता समूह, प्रगति की जाँच करने के लिए नियमित रूप से बैठकें करते हैं। वे फसलों की गहनता, पंप के उपयोग आदि के सम्बन्ध में रिकॉर्ड रखते हैं। रिकॉर्ड रखने से उन्हें यह समझने में मदद मिली है कि उनकी पैदावार में वृद्धि सिंचाई के कारण हुई है। धान की पैदावार 3,705 किलोग्राम से बढ़कर 4,446 किलोग्राम/हेक्टेयर हो गई है। घास मटर (grass pea) की पैदावार 667 किलोग्राम से बढ़कर 889 किलोग्राम/हेक्टेयर हो गई है।

चारे की उपलब्धता बढ़ने के चलते, पशुधन की आबादी भी बढ़ी है। कलईडांगा गांव के सालो हेमब्रोम कहते हैं – “सिंचाई व्यवस्था की स्थापना के कारण, हम पहली बार चारा उगाने में सक्षम थे। पहले हमें सर्दियों में हरे चारे की कमी का सामना करना पड़ता था। अब हमारे पास साल भर पर्याप्त हरा चारा रहता है।”

पर्ल तिवारी अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन की निदेशक और सीईओ हैं। उन्होंने हार्वर्ड बिजनेस स्कूल से सीएसआर में और स्टॉकहोम से सस्टेनेबिलिटी में कोर्स किया है। विचार व्यक्तिगत हैं।