पानी की समस्या के समाधान के लिए, लॉकडाउन में ग्रामवासियों ने खोदा कुआँ

and उदयपुर, राजस्थान

लॉकडाउन के दौरान पानी की बढ़ती मांग ने टिंडोरी गांव में एक विश्वसनीय जल-स्रोत की कमी को उजागर कर दिया। मानसून के नालों के पास एक कुआँ खोदकर, समुदाय ने लंबे समय तक पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की है

उदयपुर जिले की फलसिया पंचायत के टिन्डोरी गाँव की गीता देवी का कहना था – “पानी हमारे लिए बहुत बड़ी समस्या रही है। मुझे, ज्यादातर अपने बच्चों के साथ, सबसे नजदीक के जल-श्रोत तक पहुंचने के लिए घंटों चलना पड़ता था। गर्मियों में समस्या और भी गंभीर हो जाती है, क्योंकि जल-धाराएँ सूख जाती हैं और जमीन में पानी का स्तर गिर जाता है।”

गीता देवी और दक्षिणी राजस्थान की एक आदिवासी बस्ती, टिंडोरी के बच्चों को अपने घरेलू उपयोग के लिए पानी लाने के लिए, 2 किमी से ज्यादा दूर तक नंगे पांव चलते हुए यही लंबी और थका देने वाली यात्रा की है। मॉनसून का मौसम छोटी कुदरती नदियाँ लाकर कुछ राहत देता है, लेकिन ये केवल पानी के अस्थायी स्रोत हैं। ये धाराएँ आखिर सूख जाती हैं।

इस पर पिछले साल, बेहद जरूरी पानी और पानी लाने वालों के बीच एक और बाधा आ खड़ी हुई। वह थी COVID -19 और लॉकडाउन की। देश भर में आवाजाही पर प्रतिबंध के साथ, ग्रामवासियों को एहसास हुआ कि घर के पास पानी का अपना स्रोत होना कितना महत्वपूर्ण है। तालाबंदी के कारण, नजदीकी जल-स्रोत के निर्माण के लिए ग्रामवासी एकजुट हो गए।

विश्वसनीय जल-स्रोत का अभाव

उदयपुर से लगभग 70 किलोमीटर दूर, गुजरात की सीमा के पास, झाड़ोल के घने जंगलों में स्थित, टिंडोरी एक दूरदराज का गाँव है। एक विशाल पहाड़ी क्षेत्र में फैले गाँव में 35 परिवार रहते हैं, जो ज्यादातर कठोदी आदिवासी हैं। मुख्य सड़कों से कटे और निकटतम शहर से दूर, बहुत से ग्रामीण या तो काम के लिए पास के शहरों में पलायन करते हैं या जीवित रहने के लिए वन उपज बेचते हैं।

टिन्डोरी के लगभग 80% परिवार अपने स्वयं के गुजारे के लिए खेती करते हैं, और बची हुई उपज आमतौर पर स्थानीय बाजारों में बेच देते हैं। लेकिन, क्योंकि यह क्षेत्र पानी की कमी और नियमित सूखे से ग्रस्त है, इसलिए बहुत कम सिंचाई के चलते भूमि बहुत शुष्क है।

ग्रामवासी अपनी बस्ती से लगभग 2 किमी दूर स्थित एक कुएँ पर निर्भर थे। वे मॉनसून में बनने वाले छोटे नालों और खड्डों या नालियों जैसे अस्थाई श्रोतों से भी पानी लेते थे।

प्रदूषण-संभावित कुँए

पुराने और जर्जर कुएं अक्सर जल-जनित रोगों का बड़ा श्रोत थे। कुओं में जानवरों और यहां तक ​​कि लोगों के भी गिरने की घटनाएँ हुई हैं। मानसून के समय आमतौर पर मृत जानवर, मिट्टी और मल बहकर कुएं में आ जाते हैं।

कुँए में बहकर पहुँची गंदगी पानी को दूषित करती थी, जिससे सेहत खराब होती थी। उचित चिकित्सा देखभाल में असमर्थ, लोगों की काम करने की क्षमता बहुत कम हो जाती थी। ग्रामीणों में से एक, कैलाश राम का कहना था – “यहाँ महिलाओं और बच्चों में लगातार पेट दर्द और उल्टी बहुत आम है। वे इन समस्याओं से जब तब पीड़ित होते रहते हैं।”

लॉकडाउन में काम

ग्रामवासियों को हमेशा पानी की समस्या रही है। लेकिन लॉकडाउन में परिवारों की पानी की मांग में वृद्धि देखी गई। इससे प्रेरित होकर, ग्राम प्रधान, बीता रामजी ने एक विकास संगठन, ‘सेवा मंदिर’ के एक कृषि-कार्यकर्ता के माध्यम से सहयोग माँगा।

सेवा मंदिर ने मार्च 2019 में एक टिकाऊ आजीविका परियोजना के अंतर्गत ग्रामवासियों के साथ काम करना शुरू कर दिया था। ग्रामवासियों के साथ बैठकों के दौरान, सेवा मंदिर टीम ने सामूहिक कार्रवाई का विचार प्रस्तुत किया और उन्हें परिवारों के समूह और गाँव के सदस्यों का एक ग्राम-संस्था बनाने में मदद की।

ग्राम-संस्था के सदस्यों ने उन तरीकों पर चर्चा शुरू की, जिससे वे अपने समय का सबसे अच्छा उपयोग कर सकें और गाँव में एक जल स्रोत बनाने के लिए संसाधन जुटा सकें। उन्होंने लॉकडाउन के दौरान यह काम करने का फैसला किया।

ग्रामवासी जानते थे कि एक कुआँ खोदने और एक सुरक्षात्मक दीवार बनाने से, मौजूदा खतरों को दूर किया जा सकता है, जिससे जल-जनित रोगों की संभावना बहुत कम हो जाएगी और इस तरह इलाज खर्च कम हो पाएगा। इस काम से लॉकडाउन में ग्रामवासी व्यस्त भी रहेंगे।

एक नया कुआँ

समुदाय के बुजुर्ग सदस्यों ने पानी की उपलब्धता के अपने पारम्परिक ज्ञान के आधार पर नए कुएं के लिए एक स्थान का सुझाव दिया। नया स्थान मानसून में भरने वाले नालों के नजदीक है, जिससे यह सुनिश्चित होगा कि पानी लम्बे समय तक उपलब्ध रहे।

इस योजना में मानसून आने से पहले, सभी परिवारों के प्रत्येक वयस्क सदस्य को नक्शा बनाने और कुआं खोदने के लिए एकजुट होना शामिल था। जून में कुल 50 पुरुष और महिलाएं इकठ्ठा हुए और बस्ती में एक सामुदायिक कुँए की खुदाई शुरू की। प्रत्येक परिवार ने श्रम के अलावा, सामग्री के लिए धन का योगदान दिया।

यह बहुत हद तक एक सहयोगात्मक प्रक्रिया थी, जिसमें युवा सदस्य शामिल हो गए, जिन्हें पहले से निर्माण-कार्य की जानकारी थी। खुदाई से निकली मिट्टी को बिना किसी मशीनी मदद के निकालना मुश्किल था।

लेकिन बुजुर्गों की मदद से, समुदाय ने उनके पारम्परिक ज्ञान का उपयोग करते हुए बांस और रस्सी से एक अस्थायी हाथ से चलने वाली चरखी बनाई, जो कि वर्षों पहले इस इलाके में इस्तेमाल होने वाली विधि है।

समुदाय को 35 फुट गहरा कुआँ खोदने का काम पूरा करने में लगभग चार महीने लगे। नए कुएँ के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने के लिए, युवा लोग नालों में उपलब्ध पत्थर ले आए। समुदाय की मेहनत का नतीजा था कि चार महीनों में पूरी तरह से काम के लिए तैयार कुआँ बन गया।

सकारात्मक परिणाम

समुदाय के सदस्यों के एक साथ आने और मामलों को अपने हाथों में लेने से, उन्हें अभी से स्वयं में और अपनी आजीविका में भारी अंतर दिखाई दे रहा है, जिसके साथ-साथ गाँव के किसानों के लिए खेती के और अवसर भी खुल रहे हैं।

क्षेत्र में कम वर्षा और जल-संरक्षण संरचनाओं की कमी के कारण, लगभग सभी परिवारों ने अपने खेतों की सिंचाई में कठिनाई का सामना किया। इसलिए वे केवल तीन महीनों के लिए वर्षा-आधारित खेती से साल में एक ही फसल उगाते रहे हैं।

हालांकि महुआ, गोंद और तेंदू सहित, वनोपज एकत्र करना और बेचना आजीविका का एक प्रमुख स्रोत है, लेकिन पानी की उपलब्धता होने से, किसानों ने सोयाबीन, काले चने और अरहर उगाना शुरू कर दिया है।

ग्रामवासियों में से एक, सरला कहती हैं – “हमने कभी नहीं सोचा था कि COVID​​-19 हमें इतनी बड़ी समस्या हल करने में मदद करेगा। अब मुझे ज्यादा दूर नहीं चलना पड़ता।” नए कुएँ ने महिलाओं को पानी लाने में लगने वाले समय की बचत की है। वे स्वयं सहायता समूहों की सदस्य बनने लगी हैं। सामूहिक बचत का विचार और बेहतर भविष्य के लिए समूह का सहयोग अभी से ही स्पष्ट दिखता है।

एम एस रावत 34 साल के अनुभव के साथ एक विकास-पेशेवर हैं, जो ‘सेवा मंदिर’ में बाल अधिकारों, सरकारी योजनाओं और विकास-संचार के मुद्दों पर काम कर रहे हैं। अनु मिश्रा ‘सेवा मंदिर’ में संचार एवं प्रशिक्षण समन्वयक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं। ईमेल: communications@sevamandir.org