हरियाणा में भूजल दोहन को रोकने के लिए फसल विविधीकरण की शुरुआत की गई

हरियाणा का भूजल निकासी राज्य के वार्षिक निकासी योग्य संसाधनों की तुलना में बहुत ज्यादा है। भूजल स्तर में गिरावट कम करने के लिए सरकार किसानों को अधिक सिंचाई वाले धान की बजाए दूसरी फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करती है|

भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उपयोगकर्ता है, जिसमें ग्रामीण और शहरी घरेलू जल की 80% से ज्यादा आपूर्ति उपलब्ध भूजल से होती है। लेकिन हर साल अलग-अलग राज्यों में भूजल स्तर गिरता रहता है, लेकिन कुछ राज्यों में यह काफी ज्यादा होता है।

जब हरियाणा कम और गिरते जल-स्तर की चुनौती के लिए समाचारों में आया, तो राज्य में जल संसाधनों के संरक्षण, प्रबंधन और नियंत्रण के लिए गठित एक नई संस्था, हरियाणा जल संसाधन प्राधिकरण ने इस साल जुलाई में अपनी पहली बैठक आयोजित की।

भूजल का बड़े पैमाने पर निकालने का प्रमुख कारण अधिक सिंचाई वाली धान की खेती है। हरियाणा सरकार का इस साल धान के अंतर्गत 2 लाख एकड़ जमीन कम करने का लक्ष्य एक बड़ी चुनौती है। घटते भूजल को बचाने के लिए आक्रामक नियंत्रण, निगरानी और जन भागीदारी महत्वपूर्ण है।

भूजल निकासी 

बैठक में केंद्रीय भूजल प्राधिकरण के ताजा आंकड़े प्रस्तुत किए गए, जिनसे खुलासा हुआ कि हरियाणा के कुल 141 ब्लॉकों में से 85 ब्लॉक (राज्य के भौगोलिक क्षेत्र का 60%) भूजल दोहन के कारण ‘रेड कैटेगरी’ में पहुंच गए हैं। वर्ष 2004 में, 55 ब्लॉक रेड कैटेगरी में थे, यानी डेढ़ दशक में 30 और ब्लॉक रेड कैटेगरी में आ गए हैं। 

हरियाणा जल संसाधन प्राधिकरण की अध्यक्ष, केशनी आनंद ने Mongabay-India को बताया  – “अब हरियाणा के 22 में से 14 जिलों में जल-स्तर में गिरावट चिंता का विषय है। अंबाला, कुरुक्षेत्र, जींद, करनाल और पानीपत सबसे ज्यादा प्रभावित हैं।” उनका कहना था कि सिंचाई जल-स्तर गिरावट प्रमुख कारण है और मुख्य रूप से धान की खेती के कारण, जिसकी सिंचाई के लिए ज्यादा मात्रा में पानी की जरूरत होती है।

आनंद ने यह भी कहा कि एक ब्लॉक को रेड केटेगरी में तब शामिल किया जाता है, जब भूजल की निकासी पुनर्भरण से कहीं ज्यादा होती है, जिससे भूजल में लगातार गिरावट होती है। हरियाणा सरकार के आंकड़ों के अनुसार, वर्षा जल और नहर के पानी से वार्षिक भूजल पुनर्भरण 10.15 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) है, जिसमें से 9.13 बीसीएम निकाला जा सकता है (एक क्यूबिक मीटर = 1,000 लीटर)।

लेकिन राज्य में मौजूदा सालाना भूजल निकासी 12.50 बीसीएम है, जिसमें से 11.53 बीसीएम सिर्फ सिंचाई में उपयोग होता है और शेष घरेलू (0.63 बीसीएम) और औद्योगिक (0.34 बीसीएम) उपयोग के लिए जाता है। राज्य के आधे से अधिक क्षेत्र में, हर साल पुनर्भरण के मुकाबले ज्यादा भूजल निकाला जाता है, जिसके कारण भूजल स्तर में लगातार कमी आ रही है।

हरियाणा में वार्षिक भूजल निकासी, उसके निकासी योग्य भूजल संसाधनों का 137% है, जो देश में तीसरा सबसे ज्यादा है। राष्ट्रीय औसत 63% है।

भूजल निकासी को कम करने के लिए सरकार किसानों को धान छोड़कर दूसरी फसलें उगाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है (छायाकार – विष्णु प्रसाद, अनस्प्लैश)

हरियाणा की तरह गेहूं-धान की फसल उगाने वाला पंजाब, भूजल के संबंध में और भी बड़ी चुनौतियों का सामना कर रहा है। इसकी वार्षिक भूजल निकासी, इसके निकासी योग्य भूजल संसाधनों का 165% है, जो देश में सबसे ज्यादा है।

जल का सही उपयोग

भूजल की दो श्रेणियां हैं – एक जो गतिशील है और दूसरी स्थिर है, जो भूमि की बहुत गहराई में है। आनंद एक गंभीर पर्यावरण संकट का संकेत देती हैं, क्योंकि कुरुक्षेत्र जैसे जिलों के निवासियों ने स्थिर भूजल का उपयोग करना भी शुरू कर दिया है।

रोहतक और झज्जर जैसे इलाकों में भूजल स्तर ऊंचा होने के कारण जलभराव की समस्या पैदा हो गई है, क्योंकि उन इलाकों में भूजल खारा है और सिंचाई के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता। उन इलाकों में किसान सिंचाई के लिए ज्यादातर नहर के पानी पर निर्भर हैं।

वह कहती हैं – “हम एक ऐसे चरण में पहुंच गए हैं, जहां हमें दक्षतापूर्ण जल उपयोग पर ध्यान केंद्रित करने और सूक्ष्म सिंचाई और फसल विविधीकरण जैसे तरीकों से भूजल के उपयोग को युक्तिसंगत बनाने की जरूरत है। भूजल को और कम होने से रोकने के लिए, पुनर्भरण स्थलों को बढ़ाने या नहरों की खुदाई करने की सख्त जरूरत है।”

वैकल्पिक फसलें

सरकार की टीम महत्वपूर्ण क्षेत्रों में धान की खेती को कम करने और साथ ही ड्रिप सिंचाई जैसी पानी बचाने वाली तकनीकों का उपयोग करने पर विचार कर रही है, जिसको लेकर कुछ इलाकों में सफल प्रयोग किए गए हैं। धान की सीधी बुवाई की तकनीक में, हाथ से धान की रोपाई के मुकाबले, ड्रिप सिंचाई से ज्यादा सफलता मिली है।

साथ ही हरियाणा ने सही जल ऑडिट भी शुरू कर दिया है, जिसके लिए भूजल स्तर की समय के अनुसार निगरानी के लिए, रेड केटेगरी के महत्वपूर्ण ब्लॉकों में, 1,700 पीजोमीटर लगाए जा रहे हैं।

आनंद कहती हैं – “राज्य की नई योजना, ‘मेरा पानी मेरी विरासत’ किसानों को धान से मक्का और बाजरा जैसी फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित और पुरस्कृत कर रही है। इसके अलावा, हम अपने स्तर पर पूरी कोशिश कर रहे हैं कि लोग उपचारित पाइप-जल का उपयोग करें, जिसके लिए एक बड़े बुनियादी ढांचे की जरूरत है। इन मुद्दों के समाधान के लिए हम जल्द ही विभागीय बैठकें करेंगे।”

उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि उन्हें लोगों की आक्रामक भागीदारी के दृष्टिकोण की जरूरत है। उन्होंने राय दी – “उन सभी को यह समझना जरूरी है कि हमारा जल-स्तर गिर रहा है और अगर हम अभी सुधार के उपाय नहीं किए, तो आने वाली पीढ़ी को इसका खामियाज़ा भरना पड़ेगा।”

धान का रकबा घटाना 

वर्ष 1996 में, हरियाणा का धान का रकबा 8.30 लाख हेक्टेयर था, जो 2020-21 में घटकर 12 लाख हेक्टेयर होने से पहले, 2018 में 13.87 लाख हेक्टेयर तक पहुँच गया। इस वृद्धि का मुख्य कारण राज्य की एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) आधारित खरीद व्यवस्था थी। इसी तरह की व्यवस्था पंजाब में भी है, जहां किसानों की पूरी उपज सरकारी एजेंसियों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी जाती है, जैसा दूसरे राज्यों में नहीं है।

कृषि और किसान कल्याण विभाग की अतिरिक्त मुख्य सचिव, सुमिता मिश्रा ने Mongabay-India को बताया कि इस साल उनका लक्ष्य धान के रकबे को लगभग 80,000 हेक्टेयर कम करना है। वह कहती हैं – “यह चुनौतीपूर्ण है, लेकिन हम निश्चित रूप से इसे हासिल कर लेंगे, क्योंकि सरकार किसानों को धान छोड़कर दूसरी फसलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहन प्रदान कर रही है।”

‘मेरा पानी मेरी विरासत’ योजना के अंतर्गत, हरियाणा सरकार धान की खेती छोड़कर मक्का, अरहर, उड़द, ग्वार, कपास, बाजरा, तिल, आदि जैसी अन्य फसलों को अपनाने के लिए 7,000 रुपये प्रति एकड़ का आर्थिक प्रोत्साहन प्रदान कर रही है।

मिश्रा ने कहा कि पिछले साल राज्य ने सफलतापूर्वक धान के अंतर्गत 39,254 हेक्टेयर पर अन्य फसलों के लिए बदलाव किया। लेकिन विशेषज्ञों का मानना ​​है कि किसान तब तक दूसरी फसलों की ओर नहीं जाएंगे, जब तक कि उन्हें वैकल्पिक फसलों के लिए लगातार लाभ सुनिश्चित नहीं हो जाता।

कृषि आर्थिक विशेषज्ञ, केसर सिंह बंगू ने दूसरी फसलों पर सुनिश्चित लाभ मिलने के कारण, पंजाब और हरियाणा, दोनों में पारम्परिक फसलों को अपना लिया। उन्होंने कहा, “यदि राज्य चाहते हैं कि किसान मक्का या बाजरा की ओर रुख करें, तो उन्हें उनकी फसलों को एक निश्चित मूल्य पर खरीदने की प्रणाली ढूंढनी होगी।”

बंगू कहते हैं – “जब तक ऐसा नहीं होता, धान के रकबे को कम करना और बढ़ती पर्यावरण चिंताओं को दूर करना मुश्किल है, जिससे यह क्षेत्र लंबे समय से पीड़ित है।”

विवेक गुप्ता चंडीगढ़ स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

यह लेख पहली बार Mongabay India में प्रकाशित हुआ था। मूल लेख यहां पढ़ा जा सकता है।