लद्दाख में सूखे शौचालय जैविक खेती में सहायक होंगे

मानव मल को तेजी से विघटित करने और उत्पादकता बढ़ाने में सहायक बैक्टीरिया-वर्द्धक, पारम्परिक सूखे शौचालयों को बढ़ावा देने में, और इस प्रकार जैविक खेती और जल संरक्षण में मदद करते हैं।

जैविक खेती और कार्बन तटस्थता के अपने उद्देश्यों की पूर्ती की दिशा में, लद्दाख का 2025 तक जैविक खेती को मुख्यधारा में लाने का मिशन, एक उपाय के रूप में सूखे शौचालयों पर निर्भर है। पीढ़ियों से, दो-स्तरीय स्वच्छता के ढांचों ने इस सीमित जल वाले क्षेत्र में, स्थानीय समुदायों को उनकी खेती की जरूरतों के लिए जैविक खाद की आपूर्ति की है।

सूखे शौचालय पशुओं के सूखे गोबर, राख और लकड़ी के बुरादे जैसे सूखे पदार्थों को मिलाकर, मानव मल को प्राकृतिक खाद (मल से बनी) में बदल देते हैं। मल से बनी यह खाद, स्थानीय खेती में काम आती है, विशेष रूप से हिमाचल प्रदेश की लाहौल और स्पीति घाटी और केंद्र-शासित लद्दाख जैसे शुष्क ठंडे रेगिस्तानी क्षेत्रों में।

लेकिन सामाजिक आशंकाओं, सूखे शौचालयों की अस्वच्छ स्थिति, शहरीकरण, आधुनिकीकरण और पर्यटन में वृद्धि से 1980 के दशक से फ्लश-सिस्टम शौचालयों को लोकप्रिय बनाने और इन पारम्परिक संरचनाओं के उपयोग में गिरावट आई है। विशेषज्ञों, सरकारी अधिकारियों और स्थानीय समुदाय के सदस्यों का कहना है कि नकदी फसलों के लिए रासायनिक उर्वरकों की आसान उपलब्धता ने भी इसके प्रयोग को प्रभावित किया है।

खाद-वर्द्धक बैक्टीरिया

CSIR-IHBT (इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स टेक्नोलॉजी) के वैज्ञानिकों के पास, सुधार के साथ, सूखे शौचालयों के लिए उपाय हो सकता है। वे मल से तैयार लाभदायक बैक्टीरिया का इस्तेमाल करके खाद-वर्द्धक बनाने की कोशिश कर रहे हैं, जो मल के तेजी से क्षरण के लिए सूखी सामग्री का विकल्प हो।

पारम्परिक व्यवस्था को लेकर चलना, लद्दाख के जैविक विकास और केंद्र शासित प्रदेश को कार्बन-तटस्थ बनाने के प्रयासों में से भी एक है। यह योजना उपयोगकर्ताओं को बेहतर सुंदरता और खाद के साथ-साथ, पारम्परिक सूखे शौचालयों का उपयोग जारी रखने के लिए प्रेरित करती है।

CSIR-IHBT, पालमपुर के जैव प्रौद्योगिकी प्रभाग के वैज्ञानिक, रक्षक कुमार आचार्य कहते हैं – “क्योंकि खाद-वर्द्धक बूस्टर पौधे के विकास को बढ़ावा देने वाले, ठण्ड के प्रति सहनशील लाभकारी जीवाणु-समूह के उपयोग से तैयार किया जाता है, इसलिए यह फसल उत्पादकता में वृद्धि करता है। यह उपयोगकर्ता के बहुत अनुकूल है, क्योंकि उपयोगकर्ताओं को शौच के बाद केवल मुट्ठी भर सामग्री की जरूरत होती है।” बूस्टर रोगजनकता के मामले में सुरक्षित है।

इंस्टिट्यूट के निदेशक, संजय कुमार के अनुसार – “प्रौद्योगिकी से पानी बचता है और स्टार्ट-अप से जुड़ी पीढ़ी के लिए अवसर प्रदान करने वाले क्षेत्र के कृषि-पारिस्थितिकी तंत्र को बनाए रखने में मदद करने के लिए, मल-सामग्री से अच्छी गुणवत्ता वाली खाद का उत्पादन होता है।” आचार्य और उनके सहयोगियों ने 2018 से, हिमाचल के खेतों में परीक्षण के लिए, परिवारों में खाद-वर्द्धक बांटा है।

जैविक खेती

लद्दाख स्वायत्त पहाड़ी विकास परिषद (LAHDC) के मुख्य कृषि अधिकारी, ताशी त्सेतन का कहना था कि खाद-वर्द्धक से बल प्राप्त, सूखे शौचालय प्रणाली, कृमि-खाद (वर्मीकम्पोस्ट) और जैविक खाद जैसे घोल का मिश्रण, केंद्र शासित प्रदेश को 2025 तक जैविक खेती को मुख्यधारा में लाने, और किसानों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनने में मदद करेगा।

त्सेतन ने Mongabay-India को बताया – “ग्रामीण लेह में परिवार अब भी गर्मियों और सर्दियों में सूखे शौचालयों का उपयोग करते हैं, क्योंकि भौगोलिक और जलवायु परिस्थितियों के कारण उनके पास कोई विकल्प नहीं है। हालाँकि शहरों में हमारे पास पर्यटकों के लिए फ्लश शौचालय हैं, लेकिन पर्यावरण के प्रति जागरूक पर्यटक भी हैं, जो पानी के संरक्षण के लिए पारम्परिक तरीके का उपयोग करना पसंद करते हैं।”

हिमालयी क्षेत्र में सूखे शौचालय जल संरक्षण और जैविक खेती में मदद करेंगे (छायाकार – सुमिता रॉय दत्ता, ‘विकिमीडिया कॉमन्स’)

लेह में फसल का कुल क्षेत्र 10,223 हेक्टेयर है और भौगोलिक क्षेत्र के सिर्फ 0.2% में ही खेती होती है। सर्दियों में तापमान शून्य से 30 डिग्री सेल्सियस नीचे तक गिर जाता है। त्सेतन कहते हैं – “हमारे पास कृषि के लिए बहुत ही थोड़ा समय (गर्मियों में) होता है, जब हम बर्फ और ग्लेशियर के पिघलने से मिले पानी से अपने मुख्य भोजन, गेहूं और जौ, और कुछ सब्जियाँ उगाते हैं। 

त्सेतन आगे कहते हैं – “हमारा अनुमान है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों और ग्लेशियरों के घटने के साथ, हमें अपने जल संरक्षण उपायों को मजबूत करने की जरूरत होगी। वैज्ञानिक हस्तक्षेप के साथ, सूखे शौचालय जैसे पारम्परिक उपायों की, जैविक खेती में महत्वपूर्ण भूमिका होगी।”

जलवायु परिवर्तन के समाधान

अंतर्राष्ट्रीय मक्का एवं गेंहू सुधार केंद्र (इंटरनेशनल मेज़ एंड व्हीट इम्प्रूवमेंट सेंटर), मैक्सिको के जलवायु परिवर्तन वैज्ञानिक, टेक बहादुर सपकोटा बताते हैं कि जैविक खेती जलवायु परिवर्तन का एक प्रकृति-आधारित समाधान है, जब तक कि बढ़ती आबादी के लिए भोजन उगाने के लिए पर्याप्त भूमि है।

सपकोटा ने Mongabay-India को बताया – “जैविक खेती को, यदि मिट्टी से न्यूनतम छेड़छाड़ के साथ मिलाया जाए, तो कार्बन को अलग किया जा सकता है। रसायनों की जरूरत न होना, ने केवल खेत से रासायनिक-प्रेरित उत्सर्जन (जैसे कार्बन डाइऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड और नाइट्रोजन ऑक्साइड) को रोकता है, बल्कि ऐसे रसायनों के उत्पादन और परिवहन से जुड़े उत्सर्जन से भी बचाती है।”

जैविक खेती के उद्देश्यों और जलवायु गतिविधियों और खाद्य सुरक्षा लक्ष्यों के बीच समन्वय विचार किए जाने योग्य हैं। सपकोटा ने यह भी कहा – “यदि जैविक खेती के लिए हम पशु-खाद पर ज्यादा निर्भर करते हैं और यदि पशुओं के उत्पादन से जुड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को शामिल किया जाता है, तो यह कुछ मामलों में और भी ज्यादा हो सकता है।”

हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के गोशाल के एक सेवानिवृत्त स्कूल प्रिंसिपल, जगदेव कटोच, जिन्होंने 2019 से अपने घर के सूखे शौचालय में CSIR-IHBT के खाद-वर्द्धक का इस्तेमाल किया है, ने कहा कि उनके गांव में मल-खाद की उपलब्धता में गिरावट के कारण, खेती के लिए पशु-खाद और रासायनिक खाद पर निर्भर रहना पड़ता है।

कटोच ने Mongabay-India को बताया – “लेकिन मल-खाद पौधों के विकास के लिए पशु-खाद से ज्यादा शक्तिशाली है और इसलिए इसे प्राथमिकता दी जाती है। हम सर्दियों में सूखे शौचालयों का उपयोग करते हैं। गर्मियों में, पुरानी पीढ़ी के बहुत से लोग सूखे शौचालयों का उपयोग करते हैं, लेकिन युवा आधुनिक शौचालय पसंद करते हैं। आधुनिक उपकरणों को साफ करना भी आसान है।”

इस समय निवासियों/किसानों को खाद-वर्द्धक प्राप्त करने के लिए अनुसंधान संस्थान पर निर्भर रहना पड़ता है। CSIR-IHBT के आचार्य कहते हैं – “हम बेरोजगार युवाओं को इस व्यवसाय को अपनाने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि स्थानीय क्षेत्र में मांग बहुत ज्यादा है।” इसके अलावा, चरम सर्दियों में बर्फबारी और परिवहन में कठिनाई के कारण, खाद-वर्द्धक पहुँचाने में व्यवधान होता है।

जी.बी. पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन एनवायरनमेंट, उत्तराखंड के ‘पर्यावरण आंकलन और जलवायु परिवर्तन केंद्र’ (‘सेंटर फॉर एनवायर्नमेंटल असेसमेंट एंड क्लाइमेट चेंज’) के प्रमुख, जे. सी. कुनियाल, जो खाद-वर्द्धक अनुसंधान से नहीं जुड़े थे, लेकिन उन्होंने मल-खाद सहित पारम्परिक कृषि-पद्धतियों पर काम किया है, का कहना था कि शुष्क उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में मल-खाद, फसल के विकास के लिए जरूरी छिद्रदार मिट्टी में नमी मिलाती है। .

ठंडी जलवायु में वनस्पति सीमित होने के कारण, काफी मात्रा में देसी पशु खाद के लिए, पर्याप्त संख्या में पशु रखना भी मुश्किल है। उच्च पर्वतीय क्षेत्रों में पारम्परिक फसलों से नकदी फसलों में बदलती कृषि जैव विविधता के कारण भी, कीटों को दूर रखने और उत्पादकता बढ़ाने के लिए रसायनों पर निर्भरता के साथ, कृषि पद्धतियाँ प्रभावित हुई हैं।

कुनियाल यह भी कहते हैं – “हमारे अध्ययन के अनुसार, उच्च उत्पादकता वाली किस्मों के अपनाने से लाहौल में कृषि जैव विविधता और संसाधन उपयोग क्षमता प्रभावित हुई है। खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण संरक्षण के लिए, रासायनिक उर्वरकों और जैविक सामग्रियों के उपयोग में संतुलन बनाए रखना होगा। हालांकि, स्थानीय ज्ञान में रुचि दोबारा बढ़ी है, जो थोड़े से विज्ञान और नवाचार के साथ, पारम्परिक कृषि जैव विविधता को पुनर्जीवित करने में भी मदद कर सकता है।”

टिकाऊ कृषि रणनीतियों की वकालत, कमजोर समुदायों के लिए जलवायु सहनशीलता बढ़ाने के तरीकों में से एक के रूप में की जाती है। ‘संयुक्त राष्ट्र मरुस्थलीकरण’ के शिखर सम्मलेन-2019 में, ‘हिमालयी क्षेत्र में जैविक खेती और कृषि पारिस्थितिकी को मुख्यधारा में लाना’ (मेनस्ट्रीमिंग ऑफ़ ऑर्गेनिक एग्रीकल्चर एंड अग्रोईकोलोजी इन दि हिमालय रीजन) विषय पर जारी रिपोर्ट के अनुसार, जैविक खेती एवं कृषि-पारिस्थितिकी पर निर्भर करने वाले सफल ग्रामीण समुदायों के विकास के लिए, हिंदू कुश हिमालयी क्षेत्र में हरित क्रांति की सीमित सफलता सबसे बड़े अवसरों में से एक है।

IPCC के अनुसार, हिमालय सहित, ऊंचे पहाड़ों में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जल आपूर्ति, कृषि उत्पादन आदि के लिए चुनौतियां पैदा होंगी। 2019 के एक अध्ययन में जोर दिया गया है कि हिमालय में तेजी से शहरीकरण, जो मुख्य रूप से पर्यटन द्वारा प्रभावित है, क्षेत्र में जल सुरक्षा के लिए खतरा है, जो जलवायु परिवर्तन से और भी खराब होगा।

सहाना घोष कोलकाता स्थित पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

यह कहानी सबसे पहले Mongabay-India में प्रकाशित हुई थी। मूल संस्करण यहां पढ़ा जा सकता है।