साक्षरता के लिए 30 घंटे

उल्लास भरे वातावरण में रोज एक घंटा गतिविधियों पर बिताने और विशेष रूप से तैयार पाठों से, सभी उम्र के प्रवासी मजदूरों को निरक्षरता से बाहर निकलने में मदद मिलती है।

अब्दुल्ला एक कठिन जीवन जीते हैं। रोज सुबह मुँह-अँधेरे, सात साल का यह लड़का, पिछली रात की बची हुई रोटी एक बड़े कप चाय के साथ खाता है। एक बड़ी, खाली बोरी लेकर, वह और उसकी माँ काम पर जाते हैं – कचरा बीनने।

कागज, कांच, प्लास्टिक और धातुओं की तलाश में गंदे और सड़ते कचरे के ढेरों में से घंटों तक कचरा बीनने का यह धंधा कठिन और जोखिम भरा है। लगभग दोपहर होने तक वे अपने इकठ्ठा किए माल को दो-एक सौ रूपए में बेच पाते हैं, जो उनके दिन भर के राशन के लिए काफी होता है।

अब्दुल्ला और उसकी मां, उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के बाहरी इलाके की दो ग्रामीण झुग्गी बस्तियों में से एक में रहते हैं। ज्यादातर निवासी पश्चिम बंगाल और असम के मुस्लिम प्रवासी हैं। ज्यादातर मजदूर या कूड़ा बीनने वाले हैं। उनकी मामूली झोपड़ियाँ मिट्टी और घासफूस से बनी और प्लास्टिक की चादरों से ढकी होती हैं।

गरीबी से त्रस्त इन झोपड़ियों के बीच में, चमकीले रंग से पुता बांस का एक ढांचा है, जो किसी रेगिस्तान के बीच बाग की तरह खड़ा है। इस साफ़ जगह में फर्श पर चटाइयाँ, कुर्सियाँ, स्लेट और पढ़ने-लिखने की बहुत सी किताबें सलीके से रखी हुई हैं। यह ‘ग्लोबल ड्रीम शाला’ का केंद्र है, जो एक गैर-लाभकारी संगठन, ‘देवी संस्थान’ (DEVI संस्थान) की साक्षरता पहल है। ड्रीम शाला कक्षा मंच का लक्ष्य केवल 30 घंटों में बच्चों और वयस्कों को साक्षर बनाना है।

ड्रीम शाला प्रत्येक शिक्षार्थी की जरूरत के अनुसार गतिशील शिक्षण प्रक्रिया पर आधारित, लचीले पाठ्यक्रम के टूलकिट का इस्तेमाल करता है (छायाकार – कुलसुम मुस्तफा)

सुबह करीब 11 बजे यह स्थान जीवंत हो उठता है, जब दिन भर के काम के बाद शिक्षार्थी वापिस आते हैं। इसके 120 छात्र हर आयु वर्ग के हैं – चार साल के बच्चों से लेकर पचास साल के दादा-दादी तक।

कमाई के बाद शिक्षा

ड्रीम शाला कोर्स में शामिल होने से पहले, दिन के कचरा बीनने के काम के बाद, थके हारे दुखते शरीर के साथ झुग्गी में आने पर अब्दुल्ला के पास आगे देखने के लिए कुछ नहीं होता था। लेकिन अब ऐसा नहीं है। जल्दी से हाथ-मुंह धोकर और अपनी बुज़ुर्ग चाची द्वारा पकाए गर्म भोजन के कुछ निवाले खा कर, यह बालक एक अलग दुनिया में प्रवेश करने के लिए तैयार है। यह कुछ ऐसा है, जिसका उसे रोज काम के बाद इंतजार रहता है।

वह कहता है – “मुझे यहां सीखने और खेलने के लिए आना पसंद है। मैं हमेशा के लिए यहाँ रहना चाहता हूं।”

यह एक संख्याओं और शब्दों की दुनिया है। उसे केंद्र में रहना पसंद है। समावेश महसूस करने पर उसे ख़ुशी होती है, एक ऐसी बात जिसका उसके अपने माहौल में पूरी तरह अभाव है। उसे खेलों में हिस्सा लेना, कभी-कभी बॉलीवुड गाने गाना, कैरम खेलना और बेशक सीखना पसंद है। अपने हालात में समस्याओं से निपटने में सक्षम, अब्दुल्ला का कहना है कि उसे गर्व है कि अब वह कचरा बीनकर कमाए पैसे को आसानी से गिन सकते हैं।

ड्रीम शाला में रटना न सीखा कर दिमाग से काम लेना सिखाया जाता है, बच्चों से पूछते हुए कि वे क्या जानते हैं, बजाय इसके कि वे क्या दोहरा सकते हैं (छायाकार – कुलसुम मुस्तफा)

कार्यक्रम का उद्देश्य छात्रों को स्वच्छ और रचनात्मक माहौल प्रदान करना है। यह प्रत्येक बच्चे की जरूरत के आधार पर सीखने की गतिशील प्रक्रिया का उपयोग करते हुए, एक खास टूलकिट का इस्तेमाल लचीले पाठ्यक्रम के रूप में करता है। रटने पर न होकर, दिमाग के इस्तेमाल पर जोर दिया जाता है, बच्चों से यह पूछते हुए कि वे क्या जानते हैं, बजाए इसके कि वे पाठ को दोहराएं।

इस साक्षरता मिशन के पीछे के दिमाग, शिक्षाविद् सुनीता गांधी ने VillageSquare.in को बताया – “साक्षरता केवल 30 घंटों में संभव है। हम 15 मिनट की समूह गतिविधियों और खेलों के साथ शुरू करते हैं, जिसके बाद अक्षरों और संख्याओं के 15-15 मिनट के दो सत्र होते हैं। आखिरी 15 मिनट विश्राम के लिए हैं।” 

शिक्षक के रूप में छात्र

हालाँकि साक्षरता कार्यक्रम 2014 में शुरू किया गया था, लेकिन कक्षा की अवधारणा दिसंबर 2020 में पेश की गई। इससे पहले ड्रीम शाला ने लखनऊ के आसपास के 50 स्कूलों और गैर सरकारी शैक्षिक संगठनों को सरल भाषा और संख्या की पुस्तिकाओं वाले 67,000 टूलकिट बांटे थे। स्कूलों ने इसे अपनी सामाजिक रूप से उत्पादक कार्य परियोजना में एक गतिविधि के रूप में शामिल किया।

ड्रीम शाला की अवधारणा लाने वाली, सुनीता गांधी, केंद्र में बच्चों और वयस्कों को पढ़ाते हुए (छायाकार – कुलसुम मुस्तफा)

लेकिन इस अनूठी अवधारणा में छात्रों का उपयोग शिक्षार्थियों को खोजने, उन्हें पढ़ाने और आंकड़ों एवं जानकारी का इस्तेमाल करके नए छात्रों की प्रगति रिपोर्ट एक अध्यापक को देने के लिए होता है।

सलाहकार टीम का हिस्सा रही, एक सेवानिवृत्त शिक्षिका, शकीला हसन कहती हैं – “सीधे शिक्षार्थियों तक पहुंचने के लिए बहुत विचार-मंथन किया गया और इसके परिणामस्वरूप ज्यादा प्रभावशाली काम के लिए, हमारा अपना अर्द्ध-स्थायी ढांचा स्थापित हो गया। स्वैच्छिक संगठनों के साथ-साथ, हमने सामाजिक कार्य के स्नातक छात्रों को शामिल करने का फैसला किया।”

महामारी का सकारात्मक असर

गांधी कहती हैं – “शुरु में ऐसा लगा कि महामारी ने साक्षरता की कई साल की उपलब्धी को उलट दिया है और लगभग नौ महीने तक सब कुछ ठप रहा। जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो महामारी ने हमें ऊपर उठने में मदद की।”

ड्रीम शाला की बांस से बनी कक्षा, झुग्गी झोपड़ियों के बीच एक प्रकाशस्तंभ जैसा है (छायाकार – कुलसुम मुस्तफा)

रणनीतिक योजना के माध्यम से, दिसंबर 2020 में एक ऑनलाइन अवधारणा शुरू की गई थी। हालाँकि  महामारी की दूसरी ज्यादा गंभीर लहर ने कुछ महीनों के लिए कार्यक्रम पर प्रभाव डाला, लेकिन अब डिजिटल ऐप का मतलब है कि अब कहीं भी सीखा जा सकता है।

गांधी कहते हैं – “कहीं भी, कभी भी, किसी के द्वारा और न केवल भारत भर में शिक्षार्थियों तक पहुंचेगा, बल्कि कई विकासशील देशों में साक्षरता को प्रभावित करेगा।” उन्होंने आगे कहा कि यह कार्यक्रम अब 13 भारतीय भाषाओं के अलावा कई अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में भी उपलब्ध है।

हालांकि, केंद्र-प्रबंधन की 3-सदस्यीय टीम का हिस्सा, मिलतिया हलदर ने एक यथार्थवादी तस्वीर पेश करते हुए कहा कि हालाँकि डिजिटल प्रारूप अच्छा है, लेकिन यह उनकी व्यवस्था के अनुरूप नहीं है। वे बेहद गरीब लोगों के बीच काम करते हैं, जो स्मार्ट फोन नहीं खरीद सकते, खराब नेटवर्क कवरेज की बात छोड़िये, जिस कारण यह अव्यावहारिक हो जाता है। वह भौतिक कक्षा को प्राथमिकता देती है, जहाँ शिक्षार्थी और प्रशिक्षक सीधे बातचीत कर सकते हैं।

और, ज़ाहिर है, अब्दुल्ला इससे सहमत हैं।

कुलसुम मुस्तफा लखनऊ स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।