महामारी में पैदा हुए कमजोर और असुरक्षित बच्चे

महामारी ने हाशिए पर रहने वाले बहुत से भारतीयों से स्वास्थ्य देखभाल और कभी-कभी भोजन की आपूर्ति तक बाधित होने पर, समस्या का खामियाजा ज्यादातर गर्भवती महिलाओं को उठाना पड़ा। उसकी कीमत अब उनके बच्चे चुका रहे हैं।

जब COVID-19 महामारी शुरू हुई, तो उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर के बाहर एक मुसाहार (दलित) बस्ती में रहने वाली खुशबू के लिए जिंदगी सामान्य से ज्यादा मुश्किल हो गई। उनके पति, जो गुजरात में एक कपड़े की फैक्ट्री में काम करते थे, उनकी नौकरी चली गई और वे तीन वक्त का भोजन भी नहीं जुटा पा रहे थे।

खुशबू कहती हैं – “मैं दिन के समय खाना बनाती थी और हम रात को दिन का बचा हुआ खाना खाते थे।”

फिर वह अपने दूसरे बच्चे के लिए गर्भवती हो गई।

“जब मैं पिछले साल अक्टूबर में गर्भवती हुई, तो मुझे अच्छा भोजन खाने और आराम करने के लिए कहा गया था। लेकिन यह हमारी हैसियत कहाँ थी?”

खुशबू में खून की कमी (एनीमिक) है। लेकिन बहुत सी माताओं और पत्नियों की तरह, उसने यह सुनिश्चित किया कि खुद खाने से पहले अपने बच्चे और पति को जितनी अच्छी तरह संभव हो खिलाए। इस कारण उसकी गर्भावस्था बहुत स्वस्थ नहीं रही।

जन्म-दोष वाले बच्चे

खुशबू कहती हैं – “जब मेरे बच्चे का जन्म हुआ तो मुझे बताया गया कि लड़की हुई है। लेकिन दो महीने बाद अब मुझे एहसास हुआ कि मैंने एक ट्रांसजेंडर बच्चे को जन्म दिया था। हालांकि मैंने उसका नाम अंजलि रखा है। वह मेरे बच्चे की ही तरह बेहद कमजोर है।”

जन्म के समय अंजलि का वजन 1.50 किलोग्राम था, जिस कारण आधिकारिक तौर पर उसे जन्म के समय कम वजन के बच्चे के रूप में वर्गीकृत हुई। यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि वह एनीमिक भी है।

एनीमिया (खून की कमी) एक गंभीर वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या है, जो खासतौर पर शिशुओं और गर्भवती महिलाओं को प्रभावित करती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) का अनुमान है कि दुनिया में पांच साल से कम उम्र के 42% बच्चे और 40% गर्भवती महिलाएं एनीमिक हैं।

खुशबू के राज्य उत्तर प्रदेश में कई गरीब जिलों में 53% महिलाएं एनीमिक हैं।

आमदनी कम होने के कारण, महामारी के दौरान शिंटू जैसी युवा महिलाएं पौष्टिक भोजन नहीं खा सकीं (छायाकार – जिज्ञासा मिश्रा)

महामारी की शुरुआत में, संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि “बच्चे इस महामारी का चेहरा बेशक न हों, लेकिन इससे उनके सबसे बड़े शिकार होने का जोखिम है।”

संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट, ‘COVID-19 का महिलाओं पर प्रभाव’ के अनुसार – “महिलाओं और लड़कियों की ख़ास जरूरतें होती हैं, लेकिन उन्हें गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं, जरूरी दवाएँ और टीके, मातृ एवं प्रजनन स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने की सम्भावना कम होती है,.खासतौर पर ग्रामीण और हाशिए पर रहने वाले समुदायों में।

स्वास्थ्य सेवाओं से कटे हुए 

लेकिन खुशबू की गर्भावस्था में भोजन की कमी, उसके बच्चे की स्वास्थ्य समस्याओं का अकेला कारण नहीं है।

सबसे पहले तो लॉकडाउन में ज्यादातर लोगों के लिए चिकित्सा सुविधाएं प्राप्त करना मुश्किल था, लेकिन दूरदराज के इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए यह लगभग असंभव था।

कोरोना संक्रमण की चपेट में आने का डर भी गहरा था। देश भर में बहुत से लोगों की तरह, खुशबू और उसका परिवार भी स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (PHC) में जाने से डर रहा था। लेकिन व्याप्त दहशत का मतलब था कि हर किसी पर उन्माद सवार था – यहां तक ​​​​कि स्वास्थ्य-कार्यकर्ता भी, जो अच्छे समय में वैसे भी उनके समुदाय के लोगों के साथ ध्यानपूर्वक और सम्मान के साथ व्यवहार नहीं करते।

उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “मैं गर्भावस्था के दौरान PHC गई थी, लेकिन उन्होंने मेरे साथ ऐसा व्यवहार किया जैसे मैं कोई जानवर हूं। इसलिए मैंने घर पर ही बच्चे को जन्म देना ही बेहतर समझा।”

खुशबू अपने समुदाय में सीमित संसाधनों के साथ एनीमिया से लड़ने वाली अकेली महिला नहीं हैं।

शिंटू देवी भी एनीमिक हैं और उन्होंने जनवरी में अपने दूसरे बच्चे को जन्म दिया, जिसकी मई में महामारी के चरम पर मृत्यु हो गई।

वह अपने पति, सास-ससुर और बेटे के साथ रहती हैं। उनका पति घर में कमाने वाला अकेला सदस्य है, लेकिन उसकी आय नियमित नहीं है।

शिंटू देवी ने कहा, जिनका राशन कार्ड नहीं है, हालांकि उनके परिवार के दूसरे लोगों के राशन कार्ड हैं, कहती हैं – “वह शहर में एक मजदूर के रूप में काम करते हैं। लेकिन जून से सितंबर तक बारिशों के कारण उन्हें कोई काम नहीं मिला। लॉकडाउन के दौरान भी कोई कमाई नहीं हुई थी, इसलिए हमें इससे बहुत कठिनाई हुई थी।”

बुनियादी अधिकार के लिए काम करने वाली एक गैर-लाभकारी संस्था, ‘पीपुल्स विजिलेंस कमेटी फॉर ह्यूमन राइट्स’ की फील्ड कोऑर्डिनेटर, रूबी देवी कहते हैं – “अपनी गर्भावस्था के दौरान शुरू से, शिंटू देवी एनीमिक और कुपोषित थी। हरी सब्जियां या दाल उन्हें मुश्किल ही मिलती हैं। फल और दूध तो कल्पना से परे हैं।”

लेकिन, फिर खराब चिकित्सा सुविधाओं और महामारी के उन्माद ने उनके बच्चे की समस्याओं को और बढ़ा दिया।

उनके बच्चे के सात महीने के गर्भ समय में ही पैदा होने के बावजूद, उन्हें और उनके समय-पूर्व पैदा हुए बच्चे को अगले ही दिन अस्पताल से छुट्टी दे दी गई।

वह कहती हैं – “उन्होंने कहा कि COVID-19 से बचने के लिए मेरा घर पर रहना बेहतर होगा।”

अब, कमजोर शिंटू देवी अपने पहले बच्चे को अपने पास रखती है और शायद ही कभी उसे अपनी नजरों से ओझल होने देती है।

शिन्टू देवी कहती हैं – “मैं उसके साथ कुछ देर खेलती हूँ और फिर उसे सुला देती हूँ। उसके बाद मुझे बर्तन धोने होते हैं। लेकिन मैं अपनी बेटी को खो देने के बाद, अपने लड़के को एक मिनट के लिए भी नहीं छोड़ती।”

(अनुरोध पर कहानी के कुछ नाम बदल दिए गए हैं)

जिज्ञासा मिश्रा उत्तर भारत के ग्रामीण मुद्दों के बारे में जानकारी देती हैं। वह मुख्य रूप से महिलाओं के मुद्दों और सार्वजनिक स्वास्थ्य पर लिखती हैं।