नक्सलियों के गढ़ में महिलाएँ सीताफल से आय कमा रही हैं

बस्तर के नक्सल-गढ़ में आदिवासी महिलाएं सीताफल उगाती हैं और उससे निकाले गूदे से भारत के शहरों और विदेशी बाजारों की बढ़ती मांग को पूरा करके, बढ़िया आय कमाती हैं।

सीताफल से हो रही आय, छत्तीसगढ़ में आदिवासी महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता को बढ़ा रही है।

फैंसी भोजनालयों से लेकर परिवार-अनुकूल आइसक्रीम की दुकानों तक, आइसक्रीम का नवीनतम पसंदीदा स्वाद कस्टर्ड सेब है, जिसे भारत में सीताफल कहा जाता है। फल की मिठास और बनावट, जो वास्तव में कस्टर्ड जैसा स्वाद देती है, क्रीम के साथ सटीक रूप से मिश्रित होती है। इसलिए इसमें कोई हैरानी की बात नहीं है कि इसके लिए बाजार की मांग पूरी नहीं हो रही है।

छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के आदिवासी समुदाय की महिलाओं के लिए यह अच्छी खबर है, जो सीताफल उगाकर और आइसक्रीम एवं अन्य उत्पादों में इस्तेमाल होने वाला स्वादिष्ट गूदा निकालकर अच्छी आजीविका कमा रही हैं।

सीताफल आय: थकाऊ लेकिन लाभदायक काम

बस्तर की 42-वर्षीय पुनीता कुमेती, दुर्गा महिला स्वयं सहायता समूह, जिसकी वह सदस्य हैं, की बदौलत बरसों से सीताफल की खेती कर रही हैं और छंटे हुए, बीज वाले फल से हाथ से गूदा निकाल रही हैं।

वह और समूह की दूसरी सदस्य प्रतिदिन विभिन्न प्रकार की फसलों की खरीद और खेती करने, फलों का गूदा बनाने, उसको पैक करने, माल को बेचने और मुनाफे की बचत का बीड़ा उठाते हैं।

कुमेती कहती हैं – “मैं इस स्वयं सहायता समूह के साथ कई वर्षों से हूँ और अलग-अलग किस्म की वनोपज की कटाई के विभिन्न मौसमों के आधार पर, पूरा साल हमारे गुजारे के लायक काफी काम रहता है।”

महानदी किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) और गड़िया फार्म प्रोड्यूसर्स कंपनी द्वारा लगभग 50 गांवों में गठित, ऐसे 82 स्वयं सहायता समूहों में उत्तरी बस्तर की लगभग 3,000 आदिवासी महिलाओं को रोजगार मिला है।

सीताफल के गूदे को व्यवसाय बनाने का नेतृत्व बस्तर की आदिवासी महिलाओं ने किया है (फोटो – वृत्ति के सौजन्य से)

सीताफल का गूदा इतना लोकप्रिय है कि इसे भोजन के बाद मिठाई और शेक में इस्तेमाल के लिए ग्रीस और जर्मनी जैसे सुदूर स्थानों को भी मौसम से आगे तक निर्यात किया जाता है।

भारत के नक्सल क्षेत्र में प्रचुर जैविक फल

बस्तर में सेब, जामुन, इमली, आम, महुआ और ऐसी ही अन्य फसलें बहुतायत में होती हैं, जो जंगली रूप से और खेती से भी उगती हैं।

इस क्षेत्र के सीताफल को ‘कांकेर घाटी सीताफल’ के रूप में ब्रांड किया गया है। बस्तर की उपज और भी आकर्षक है, क्योंकि यह पूरी तरह से जैविक है, यानि बिना किसी उर्वरक या कीटनाशक के उगाई गई है।

‘वृत्ति’ एक गैर-लाभकारी संगठन है, जिसका उद्देश्य हाशिए पर जीवन जीने वाले लोगों के लिए स्थायी आजीविका बनाना और खेत उपज सम्बन्धी पहल का सहयोग करना है। वृति के सतीश मिश्रा के अनुसार, इस उपज को व्यावसाय बनाना और इसे आय के स्रोत में बदलना आसान नहीं रहा है।

मिश्रा कहते हैं – “हमें कई साल प्रयास करना पड़ा, लेकिन हम उत्तर बस्तर में एक मूल्य श्रृंखला बनाने में सफल हुए हैं। हम जानकारी जुटाते हैं, रिकॉर्ड रखते हैं और एक व्यवस्था स्थापित की है। हम आदिवासी समुदाय को न केवल उनकी उपज से व्यावसायिक उत्पाद बनाने, बल्कि सहयोग के लिए हमारे उनके साथ न रहने पर भी माल बेचने के लिए प्रशिक्षित करने में सफल रहे हैं।”

कुमेती जिस क्षेत्र को अपना घर कहती हैं, वह नक्सलियों का गढ़ है, जहां पिछले कुछ सालों में माओवादी विद्रोह और मुठभेड़ हुई हैं। 70% आदिवासी आबादी और विशाल, घने जंगलों, पहाड़ियों और जंगली जानवरों के प्रभुत्व वाला एक कठिन इलाका होने के कारण, यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि बस्तर आर्थिक और सामाजिक प्रगति में पिछड़ गया।

सीताफल, पहले जिसका बाजार मूल्य बहुत कम था, लुगदी (गूदा) बनने के बाद शानदार आय प्रदान करता है (फोटो – वृत्ति के सौजन्य से)

इस क्षेत्र के स्थानीय फल, सब्जियां, बाजरा और अन्य उपज पहले स्थानीय खपत के लिए उपयोग होते थे। इसके अलावा कोई व्यावसायिक लाभ नहीं था। आदिवासियों से उपज खरीदने वाले बिचौलिए मामूली कीमत देते थे।

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लेकिन हालात धीरे-धीरे बदल रहे हैं।

मिश्रा इस तथ्य को सामने रखते हैं कि आदिवासी समुदायों में निर्णय लेने की शक्ति ज्यादातर महिलाओं के पास है। वह कहते हैं – “आदिवासी समुदायों में सत्ता महिलाओं के पास रहती है। घर, बाहर और बचत से जुड़े सभी प्रमुख कार्यों में अग्रणी भूमिका उन्हीं की होती है।”

बेशक, महिलाएं रोजाना के घरेलू कामों के साथ-साथ खेती, जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने और खाने के लिए लघु वनोपज जुटाने जैसे अन्य काम भी करती हैं।

बस्तर में सीताफल की खेती को सरकार का सहयोग

व्यावसायिक खेती और ताजा उपज और उनसे बचे छोटे उत्पादों की बिक्री, प्रशासन के सहयोग के बिना संभव नहीं हो सकती थी। केंद्र सरकार की ‘एक जिला एक उत्पाद’ योजना ने बस्तर में सीताफल के मूल्यवर्धन को गति और प्रोत्साहन दिया।

इसके परिणामस्वरूप इस साल मुनाफे में 20% की वृद्धि हुई है और 10 टन लुगदी निकालने की उनकी क्षमता बनी है।

महामारी के कारण मांग की अनिश्चितता कम होने पर, इस उत्पादन को बढ़ाने की योजनाएँ पहले से ही तैयार हैं।

मिश्रा बताते हैं – “हमारे पास 100 टन सीताफल की लुगदी बनाने की क्षमता है और इसकी स्थानीय के साथ-साथ सुदूर देशों से भी मांग है। लेकिन महामारी के हालात और इसके ताजा रहने (शेल्फ-लाइफ) की सीमा को ध्यान में रखते हुए, हमने इस साल उत्पादन 10 टन तक सीमित रखा है।”

इस पहल के लिए ढांचागत व्यवस्था जिला प्रशासन द्वारा प्रदान की गई। पूर्व जिला कलेक्टर शम्मी आबिदी ने जरूरी टेक्नोलॉजी के अध्ययन के लिए शुरुआती धन उपलब्ध कराया। वृत्ति से सहयोग, बैंक ऋण और शेयर पूँजी से बाकी प्रारंभिक पूंजी जरूरतों के लिए धन प्राप्त हुआ।

उदयपुर और पुणे से तकनीकी जानकारी प्राप्त करने के बाद, महिलाओं ने प्रशिक्षण और दक्षता वृद्धि प्राप्त की।

सीताफल के मामले में महिलाओं ने, फलों को तोड़ने से लेकर उनकी ग्रेडिंग तक की सही तकनीक, उचित पैकिंग से ज्यादा समय ताजा रखने, फलों की लुगदी बनाने (गूदा निकालने) और व्यापक पैमाने पर तैयार माल की बिक्री करने की सही तकनीक तक, सब कुछ सीखा।

प्रशिक्षण से आदिवासी भारतीय महिलाओं को फलों की ग्रेडिंग, लुगदी बनाने और पैकेजिंग के बारे में सीखने में मदद मिली है (फोटो – वृत्ति के सौजन्य से)

सामान की अदला-बदली की विषम व्यवस्था में जिन्दा रहने वाले आदिवासियों को यह भी सिखाया गया कि अपनी उपज का सही मूल्य निर्धारण कैसे किया जाए और सही कीमत सुनिश्चित की जाए।

ग्रामीण छत्तीसगढ़ की महिलाओं को मिला लाभ

इसका परिणाम मिल रहा है।

कुमेती के साल भर के व्यवसाय से एक स्थिर आय प्राप्त हुई है, जिससे उन्हें अपने बेटे को अब जिला मुख्यालय जगदलपुर में स्थित एक आवासीय विद्यालय, ‘एकलव्य’ में पढ़ा पाने में मदद मिली है।

कुमेती और उनके स्वयं सहायता समूह की 11 अन्य महिलाओं का भविष्य उज्ज्वल दिखता है, जो कभी गरीबी में रहती थीं। कुमेती कहती हैं – “जब से हमने स्वयं सहायता समूह के साथ काम करना शुरू किया है, हम अपने मुनाफे को इकठ्ठा करने और सामूहिक रूप से बचत करने में सक्षम हैं। इस फंड से हमें जरूरत पड़ने पर ऋण लेने और सब्सिडी का लाभ उठाने में मदद मिलती है।”

बस्तर की महिलाएं अब अपनी घरेलू जरूरतों और बच्चों की शिक्षा का खर्च उठा लेने के बाद, औसत;न 5,000 रुपये महीना बचत करने में सक्षम हैं। यह 10 साल पहले की स्थिति से बहुत दूर की बात है, जब वे दो वक्त के भोजन के लिए संघर्ष करते थे।

भविष्य की योजनाओं में उत्पादन और कार्यों को व्यापक बनाने के साथ-साथ हल्दी, जामुन चिप्स और सीताफल पाउडर जैसे अन्य उपजों और उत्पादों की बिक्री के लिए शाखाएं बढ़ाना शामिल है।

सामाजिक उद्यमिता ने कांकेर घाटी में महिलाओं की आकांक्षाओं को बढ़ा दिया है। उनकी कड़ी मेहनत ने उन्हें दिखाया है कि सही मार्गदर्शन और दिशा के साथ संभावनाएं अनंत हैं।

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झरना कुकरेजा बेंगलुरु स्थित पत्रकार हैं।