असम का ग्रामीण रंगमंच: पर्दे उठे या गिरे?

नेटफ्लिक्स और यूट्यूब से प्रतिस्पर्धा के बावजूद, असम के छोटे रंगमंच मंडलियों को एक निष्ठापूर्ण संरक्षण प्राप्त है। फिर भी अभिनय उनकी मुख्य आजीविका होने के कारण, कलाकारों को महामारी के समय अनिश्चितता का सामना करना पड़ा।

बिपुल दास असम के ग्रामीण कामरूप जिले में स्थित, एक “जात्रा दल” के मालिक और प्रमुख समन्वयक हैं।

वह अपना कुछ समय असमिया समाचार पत्रों के लिए एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में काम करने में बिताते हैं, लेकिन उनकी आजीविका जात्रा दल से आती है। वह 17 साल से ज्यादा समय से इस व्यवसाय में हैं।

असम की कला का ‘जात्रा’ रूप, बंगाल की “जात्रा पाली” नामक एक मिलती जुलती कला से उत्पन्न हुआ। जात्रा का मंचन पहली बार 1930 के आसपास, तिथिराम बयान द्वारा बारपेटा में किया गया था। बाद में बृजनाथ सरमा ने बहुत व्यापक पैमाने पर इस कला का प्रदर्शन किया और लोकप्रिय बनाया।

शुरू में जात्रा पौराणिक और धार्मिक विषयों पर आधारित थी, जिसमें गीतों का बोलबाला था और एक सार्वजनिक मैदान के केंद्र में प्रदर्शित किया जाता था, जिसमें चारों ओर दर्शक होते थे। संगीत की प्रमुखता तो बनी रही, लेकिन बाद में प्रकाश और ध्वनि व्यवस्था के साथ, औपचारिक मंच पर जात्रा का प्रदर्शन किया जाने लगा।

सोशल मीडिया और नेटफ्लिक्स और अमेज़ॅन प्राइम जैसी स्ट्रीमिंग सेवाओं के सांस्कृतिक हमले के बावजूद, ये जात्रा मंडलियां पुनरुद्धार का अनुभव करती रही हैं।

बिपुल दास कहते हैं – “आप देखिए, जब हम प्रदर्शन करने जाते हैं, तो मंच एक खुले मैदान में होता है और किसी को भी इससे बाहर नहीं छोड़ा जाता है। इसे देखने के लिए पूरा गांव और आसपास की बस्तियों के लोग आते हैं। कार्यक्रम एक बड़े उत्सव का अवसर है, क्योंकि वे दोस्तों से मिलते हैं और मिलकर आनंद लेते हैं। यह सब नेटफ्लिक्स पर कैसे दोहराया जा सकता है?”

महामारी आने तक इस कला को ग्रामीण संरक्षण प्राप्त था। 

ग्रामीण संस्कृति का एक हिस्सा

दास का दल यानि मंडली में 30 से ज्यादा व्यक्ति हैं: अभिनेता, गायक, वाद्य कलाकार और अन्य। वे आम तौर पर नए नाटकों का पूर्वाभ्यास करते हैं और अगस्त और सितम्बर में, प्रत्येक शो आमतौर पर तीन घंटे तक चलता है।

आमतौर पर सितंबर के चौथे सप्ताह में होने वाली विश्वकर्मा पूजा के दिन से, वे पश्चिम में धुबरी और पूर्व में मोरीगांव तक फैले क्षेत्र के गांवों के निवासियों के कहने पर, इन नाटकों का मंचन करते हैं।

कई कलाकारों के लिए, रंगमंच आजीविका का मुख्य साधन है (छायाकार - बिपुल दास)
कई कलाकारों के लिए, रंगमंच आजीविका का मुख्य साधन है (छायाकार – बिपुल दास)

उनका सीजन बैसाख (आगामी मई) के महीने तक चलता है। इन आठ महीनों में, वे इन नाटकों का कई बार मंचन करते हैं और मिलने वाले पैसे का उपयोग कलाकारों के भुगतान के लिए किया जाता है।

दास ने बताया – “मेरे ज्यादातर कलाकार ऐसे लोग हैं, जो अपनी आजीविका के लिए इन प्रदर्शनों पर निर्भर हैं। दिन के समय, उनमें से कुछ ‘हजीरा’ (दैनिक अकुशल मजदूरी) के लिए जाते हैं या छोटी-छोटी दुकानें चलाते हैं या अपनी बकरी चराते हैं या थोड़ी बहुत जमीन में काम करते हैं। शाम होने पर, वे मेक अप और प्रदर्शन के लिए मंच पर आ जाते हैं।”

बिपुल दास कहते हैं – “अधिक शक्तिशाली प्रतियोगियों को चलता-फिरता रंगमंच कहा जाता है। ये समूह बहुत बड़े होते हैं। वे किसी गाँव के पास पूरी मंडली के लिए तंबू लगाते हैं, मंच खड़ा करते हैं और प्रदर्शन करते हैं। व्यक्तिगत दर्शकों को शो देखने के लिए भुगतान करना पड़ता है।”

उन्होंने कहा – “दूसरी ओर जात्रा दल एक छोटी मंडली होती है। हम स्थानीय बंदोबस्त और प्रदर्शन के लिए मंच के लिए मेजबानों पर निर्भर रहते हैं। हम बस शाम 4 या 5 बजे तक गाँव पहुँच जाते हैं, मंच पर अपने सेट लगाते हैं और शाम 7.30 या 8 बजे तक प्रदर्शन शुरू कर देते हैं। रात 11 बजे तक अपना काम ख़त्म करके हम सामान समेटते हैं और वापिस आ जाते हैं।”

मुख्य अभिनेताओं को पूरे साल के लिए अनुबंधित किया जाता है और उन्हें 80,000 रुपये से 1 लाख रुपये तक भुगतान किया जाता है। उन्हें कुछ अग्रिम भुगतान भी करना पड़ता है। थोड़े समय के लिए शामिल अभिनेताओं और संगीतकारों को प्रदर्शनों के आधार पर भुगतान किया जाता है और वे 400 रुपये से 800 रुपये प्रति शो के बीच कमा सकते हैं।

कामरूप जिले के दक्षिणी हिस्से में ऐसी करीब 20 मंडलियां हैं। जात्रा दल विशेष रूप से निचले असम में पाए जाते हैं और दर्शक भी ज्यादातर यहीं हैं। गोलपाड़ा, धुबरी, बारपेटा, कोकराझार, ग्रामीण कामरूप और नलबाड़ी जिलों में ऐसी 60 से ज्यादा मंडलियां हैं।

प्रदर्शनों की एक लम्बी सूची

दास कहते हैं – “हम पौराणिक नाटकों के साथ-साथ, अधिक समकालीन सामाजिक विषयों पर भी नाटक करते हैं। हम अगस्त-सितंबर में तीन या चार नाटक तैयार करते हैं और दर्शकों की मांग के अनुसार उनका मंचन करते हैं।”

मंडलियों ने अपने नाटकों में समकालीन सामाजिक विषयों को भी शामिल कर लिया है (छायाकार - बिपुल दास)
मंडलियों ने अपने नाटकों में समकालीन सामाजिक विषयों को भी शामिल कर लिया है (छायाकार – बिपुल दास)

उनके अनुभव के अनुसार, बंगाली भाषी बहुल गांवों के दर्शक, मूल बंगाली से अनुवादित पौराणिक कहानियों को पसंद करते हैं, जिनमें पुरानी बंगाली धुनों पर गाने तैयार किए गए हों। यहां तक ​​कि आदिवासी गांव भी इन पौराणिक विषयों को चुनते हैं। अन्य जगहों पर लोग सामाजिक विषयों को पसंद करते हैं। 

हमने कुछ वर्षों में ‘हेमलेट’ के साथ-साथ ‘ओडिपस रेक्स’ भी किए हैं, इसलिए असल में हम सिर्फ हिंदू पौराणिक कथाओं तक ही सीमित नहीं हैं।”

ग्रामीण संरक्षण

बड़े परिवारों के गाँव के बुजुर्ग शो को प्रायोजित करना गर्व की बात मानते हैं। कुछ परिवार मिलकर दास और उनकी मंडली को खुद भुगतान करते हैं, और शो के बाद उनका रात का खाना भी देते हैं।

हाल के दिनों में व्यावसायिक इकाइयों ने शो में अपने बैनर लगाने के लिए कुछ पैसा देना शुरू कर दिया है।

कलाकारों को कभी-कभी आलोचनात्मक प्रशंसा मिलती है और उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, जिससे उन्हें टेलीविजन धारावाहिकों में भूमिकाएं मिल जाती हैं। लेकिन यह चलते-फिरते रंगमंचों में ज्यादा आम है, जहां संपर्क, दृश्यता और खर्च करने की शक्ति ज्यादा होती है।

महामारी संकट

लेकिन COVID-19 ने उन्हें बड़ी चोट पहुंचाई।

दास का कहना था कि मार्च 2020 में जब लॉकडाउन लागू हुआ, तब तक लगभग आधा सीजन खत्म हो चुका था। उनका बाकी आधा सीजन खराब हो गया और वे नए नाटकों का पूर्वाभ्यास भी नहीं कर सकते थे, क्योंकि उस साल काफी समय इकट्ठे होने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

महामारी से ग्रामीण रंगमंच मंडल बुरी तरह प्रभावित हुए हैं (छायाकार - बिपुल दास)
महामारी से ग्रामीण रंगमंच मंडल बुरी तरह प्रभावित हुए हैं (छायाकार – बिपुल दास)

वह कहते हैं – “नवंबर 2020 के बाद के तीन या चार महीने बहुत अच्छे रहे और हमने पिछले वर्षों की तुलना में ज्यादा शो किए। इसका कारण यह था कि हमारी उन कुछ मंडलियों में से एक थी, जो उन महीनों में प्रदर्शन करने के लिए खुद को तैयार कर चुकी थीं। लेकिन मार्च 2021 में दूसरी लहर शुरू होने के बाद से, 2021 खराब रहा है। सभाओं पर प्रतिबंध अभी भी लागू है और कोई प्रदर्शन नहीं हो पा रहे हैं।”

इन नाटकीय कार्यक्रमों का प्रदर्शन करने वाली ऐसी मंडलियां, असमिया जीवन का एक विशेष पहलू हैं। और यह सिर्फ संभ्रांत लोगों की कला नहीं, बल्कि आम जन के लिए है।

हालांकि दास को इस बात का अफ़सोस है कि उनके पास व्यापक सहयोग के लिए प्रायोजक नहीं हैं।

उन्होंने कहा – “हालांकि हमारे पास ग्रामीण संभ्रांत वर्ग के प्रायोजक हैं, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि आम तौर पर लोग उदारतापूर्वक हमें आर्थिक सहयोग दे रहे हैं या यहां तक ​​कि कलाकारों के रूप में हमें सम्मान भी दे रहे हैं।”

साधारण सहयोग से ज्यादा प्रयोजन की जरूरत

क्या राज्य सरकार इन मंडलियों को जीवित रहने में मदद करती है?

वह कहते हैं – “हमारा संगठन मुख्यमंत्री और संस्कृति मंत्री से मिलने गुवाहाटी गया था। उन सभी ने हमारी पीठ थपथपाई और कहा कि हम बहुत अच्छा काम कर रहे हैं और वे देखेंगे कि वे क्या कर सकते हैं। लेकिन सरकार से कुछ भी नहीं मिला है।”

ऐसा प्रतीत होता है कि स्थानीय राजनीतिक नेताओं या विधायकों द्वारा गरीब कलाकारों को छिटपुट सहयोग मिला है, लेकिन सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिली है।

यह ऐसा है जैसे सरकार कहे: ‘मुझे पता है कि आप मेरी प्रिय संस्कृति के एक हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं। लगे रहो, संस्कृति को जीवित रखो’, लेकिन असली मदद नहीं करना चाहता।

शरतचंद्र दास एक गैर-लाभकारी संगठन, ‘ग्रामीण सहारा’ के कार्यकारी निदेशक हैं।