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“मैंने मिट्टी के बर्तनों को आकर्षक बनाने का फैसला किया”

जब कश्मीरी इंजीनियर साइमा शफी मीर ने अवसाद (डिप्रेशन) से निपटने के लिए मिट्टी के बर्तन बनाना शुरू किया, तो उन्हें स्थानीय कुम्हारों की दुर्दशा के बारे में पता लगा, जो एक सदियों पुराने शिल्प बना रहे थे, जिसकी बहुत कम लोग परवाह करते हैं। इसलिए साइमा ने मिट्टी के बर्तनों को फिर से लोकप्रिय बनाने का फैसला किया। पढ़िए, उनका सफर उन्हीं के शब्दों में।

जीवन अच्छा चल रहा था। मेरे पास एक इंजीनियर की सरकारी नौकरी थी, एक सामाजिक जीवन और एक प्यारा परिवार। और फिर यह सब बदल गया।

घरेलू हिंसा, मेरी त्वचा के रंग को लेकर बॉडी शेमिंग – मैंने वह सब कुछ सहन किया। शादी की एक गांठ, जो जीवन की एक नई शुरुआत मानी जा रही थी, मुझे जीवन के अंतिम छोर पर ले गई। और फिर इसका अंत हो गया।

लेकिन एक असफल शादी और सामाजिक तानों ने मुझे बेबस कर दिया। कोई राहत नहीं थी।

एक समय था, जब गंभीर डिप्रेशन और मानसिक आघात ने मिलकर इस दुनिया को मेरे लिए एक बेहद अंधकारमय जगह बना दिया था। मैं टूटने के कगार पर थी। ऐसा लग रहा था कि जीवन मेरे लिए रुक गया है।

यदि मैं आपसे कहूँ कि एक फूलदान मुझे उस कगार से वापस लाया, तो क्या आप मेरा विश्वास करेंगे?

मैंने और मेरी माँ ने चंडीगढ़ के बाहरी इलाके के एक कुम्हार से, एक चित्रित मिट्टी का फूलदान खरीदा था।

मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक कलाकृति मेरे लिए एक बिलकुल नई दुनिया खोल देगी।

मेरे अंदर से आवाज आई – “यदि एक कुम्हार मिट्टी से इतनी सुंदर वस्तु बना सकता है, तो तुम क्यों नहीं?” उस आवाज ने मेरी आत्मा को छू लिया।

मैंने तुरंत उन जगहों की तलाश की, जहाँ मैं यह कला सीख सकती थी।

मेरी तलाश मुझे बेंगलुरु ले गई। मैंने वहां के एक प्रसिद्ध मिट्टी के बर्तनों के स्टूडियो में दाखिला लिया।

जब मैं घाटी में वापस आई, तो मैंने देखा कि हमारी मिट्टी के बर्तनों की कार्यशालाएँ पुराने ज़माने की थीं – क्योंकि वहाँ कोई उन्नत उपकरण नहीं था।

लेकिन इससे भी बड़ा मसला यह है कि मिट्टी के बर्तनों को घटिया समझा जाता है।

कुम्हारों के साथ बातचीत करके, मुझे पता चला कि उन्हें किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था।

उनके कष्ट कई हैं – मिट्टी के बर्तनों में कोई भविष्य नहीं देखने से लेकर, उनके बच्चों द्वारा अपने परिवार के पुश्तैनी शिल्प को जारी के प्रति अनिच्छा तक।

मैं सोच में पड़ गई कि उन्हें कैसे प्रेरित किया जाए।

साथ ही, मैं लोगों को यह भी बताना चाहती थी कि जब मैं कुम्हार बन सकती हूँ, तो आप भी बन सकते हो!

मैंने महसूस किया कि सदियों पुरानी परम्परा को पुनर्जीवित करने का पहला कदम, समुदाय में आशा और आत्म-सम्मान पैदा करना होगा।

इसलिए मैंने मिट्टी के बर्तनों को आकर्षक बनाने (ग्लैमराइज करने) का फैसला किया।

लेकिन ऐसा किया कैसे जाए? सोशल मीडिया का उपयोग करना सबसे अच्छा विकल्प लगा।

मैंने तय किया कि मेरा हैंडल @kralkoor होगा, जिसका स्थानीय भाषा में अर्थ है “एक कुम्हार लड़की”। मैंने अपने काम की तस्वीरें और वीडियो डालना शुरू कर दिया। मुझे लगता है कि लोग पहली बार किसी पढ़ी-लिखी जवान औरत को चाक (बर्तन बनाने का व्हील) पर काम करते देख रहे थे। 

जल्द ही मेरे हजारों फॉलोवर हो गए। इंटरनेट पर काफी गूँज थी। जो लोग वैसे अपनी पहचान छुपाना पसंद करते थे, उन्होंने भी अपनी कला को सोशल मीडिया पर साझा करना शुरू कर दिया।

घाटी के लोग अब धड़ल्ले से अपने सदियों पुराने शिल्प को गर्व के साथ अपना रहे हैं।

राज्य सरकार द्वारा मिट्टी के बर्तनों को बढ़ावा देने में मेरे सहयोग की मांग के साथ, मुझे यह कहते हुए खुशी हो रही है कि मिट्टी के बर्तन फिर से सुर्खियों में हैं।

श्रीनगर स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार, नासिर यूसुफी की रिपोर्ट। छायाकार – नासिर यूसुफी और साइमा शफी मीर। प्रतीकात्मक तस्वीर – दुओंग न्हान के सौजन्य से|