पवन चक्की संयंत्र आमतौर पर अक्षय ऊर्जा का एक लाभकारी स्रोत होते हैं। लेकिन क्या होता है, जब वे प्राचीन आदिवासी भूमि से हो कर गुजरते हुए, आजीविका और पहचान के खो जाने का डर पैदा करते हैं? ‘इंडिया फेलो’, अनीश मोहन पता लगाते हैं।
गुजरात के कच्छ जिले की रबारी जनजाति के देहाती मालधारी समुदाय की एक महिला, जानकी दहाड़ते हुए कहती हैं – “अगर मैं आपको कहूँ कि अपना घर, पहनने वाले कपड़े, जिस परिवार से आप प्यार करते हैं और जो कुछ भी आपके आस पास है, वह छोड़ दो, क्योंकि मैं आपकी पहचान के ऊपर एक मॉल बनाना चाहती हूँ, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे। आप नहीं करेंगे। तो मुझे क्यों करना चाहिए? मैं जो हूँ, उसकी कीमत पर आपका विकास क्यों होना चाहिए?”
लगभग पांच साल पहले उनके क्षेत्र में पहली पवनचक्की लगाई गई थी।
जब अक्षय ऊर्जा परियोजना का प्रस्ताव पहली बार आया, तब कोई हल्ला नहीं हुआ था। खुद अनजान ग्रामीणों ने विकास का स्वागत किया।
लेकिन उन्हें यह समझने में देर नहीं लगी कि जिन पवन चक्कियों का उन्होंने स्वागत किया था, उन्हें जल्द ही उनका विरोध करना होगा।
विकास का काम अक्सर उन लोगों की कीमत पर होता है, जिन्हें बलपूर्वक समाज में सबसे निचले स्तर पर रखा जाता है।
भूमि में निहित एक पहचान
सदियों से रबारी जनजाति, संगनारा गांव के नजदीक उस जंगल में और आसपास रहती आई है, जिसमें भारत के कुछ सबसे विविध वनस्पति और जीव पाए जाते हैं।
मालधारी भूमि को गौचर के रूप में देखते हैं, जिसका अर्थ है कि यह चराई के लिए आरक्षित है।
ये लोग अपनी पारम्परिक औषधि, वहां उगने वाली विभिन्न जड़ी-बूटियों और झाड़ियों से प्राप्त करते हैं। उनकी आजीविका, उनके जानवर, उनके घर और पहचान की जड़ें जंगल में गहरी हैं।
कच्छ में पवन ऊर्जा का दोहन
लेकिन कुछ समय से कच्छ जिला, पवन ऊर्जा दोहन के लिए एक भव्य गलियारे का भी घर है, जो असल में एशिया का सबसे बड़ा है।
वैज्ञानिक समुदाय में आम धारणा यह है कि पवन संयंत्र आम तौर पर सुरक्षित होते हैं और इनका जलवायु पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं होता है। पशुओं को टर्बाइनों के ठीक नीचे चरते पाया गया है। हालांकि, जलवायु संबंधी तर्क अलग है।
पवन-संयत्रों की स्थापना से पहले जरूरी विचार किया जाता है, जिसमें स्थानीय घरों या पशुओं के चरागाहों को नुकसान न पहुँचाना शामिल है।
पशु भूमि में पवन टर्बाइन
लेकिन देखिये, 80 ऐसे पवन टर्बाइनों का प्रस्ताव है, जो ठीक उस हिस्से पर होंगे जो मालधारी के लिए कीमती है। इसके परिणामस्वरूप 38,000 पेड़ों की कटाई होगी, जो जंगल पर निर्भर समुदाय के लिए एक बड़ा झटका होगा।
आधे टर्बाइन पहले ही बन चुके हैं और संगनारा एवं आसपास के 15 से 20 गांवों के लोग बाकी के निर्माण को रोकने के लिए विरोध कर रहे हैं।
यहां तक कि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने भी पवन-संयंत्र के प्रस्ताव के नक़्शे में, निर्माण की अनुमति देने के लिए, भूमि की आसानी से फेरबदल बताया।
पिछले पांच सालों में, मालधारी लगातार अपनी जमीन गंवाते रहे हैं। बहुतों को डर है कि इतने सारे पेड़ों के चले जाने से, उनके पशु फल-फूल नहीं पाएंगे। हालाँकि उनके विरोध ने जोर पकड़ा है, लेकिन यह अभी भी काफी नहीं है।
पवन चक्कियों का विरोध
ऐसे ही एक विरोध में, जहां मैं शामिल हुआ, मैंने संगठनों, या स्थानीय समूहों और पंचायतों का एक साहसिक सहयोग देखा।
एक महिला, जानकी, शुरू में मुझसे बात करने में झिझक रही थी। मजे की बात यह है कि मेरी टूटी-फूटी गुजराती के कारण, उसने पहले सोचा कि मैं पवन चक्की के निर्माण का समर्थन कर रहा हूं और उसने मुझे जाने के लिए कहा। तो मैं चला आया।
जुलूस और भाषण खत्म होने के बाद, जानकी ने मुझे ढूंढा और कहा कि वह मेरे सवालों का जवाब देंगी। मैं ख़ुशी से सहमत हो गया और उन्हें आश्वस्त किया कि मेरे पास उनकी भूमि में कोई पवन चक्की लगवाने के लिए न तो अधिकृत हूँ और न ही मेरा कोई इरादा है।
उन्होंने मेरी तरफ़ बेफिक्र होकर देखा।
उन्होंने आत्मविश्वास के साथ कहा – “इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। अगर आप सही हैं, तो आप बस मुस्कुरा सकते हैं। लेकिन अगर आप बुरे हैं, तो मैं आपका मन बदल दूंगी।” यह वाकई एक तीखी प्रतिक्रिया थी।
जमीन और रोजी-रोटी खोने का डर
मैंने इंटरव्यू जैसे बुनियादी सवालों के साथ शुरुआत की। आप क्या करते हैं? आप विरोध क्यों कर रहे हैं? पवन चक्कियां बुरी क्यों हैं?
मुझे हर सवाल का दिलचस्प लेकिन उम्मीद के अनुसार जवाब मिला, लेकिन मुझे वह दूरदर्शी जवाब नहीं मिल रहा था कि पवन चक्की के निर्माण से एक महिला के रूप में उनका जीवन कैसे प्रभावित हुआ? क्योंकि मैं इन नए पवन संयंत्रों की सामाजिक चिंताओं और प्रभाव को सबसे ज्यादा समझना चाहता था।
वह कहती रही कि उन्हें चिंता है कि वह अपने उन जानवरों को खो देंगी, जिन्हें वह अपने बच्चों की तरह प्यार करती हैं।
वह कहती हैं – “यदि मेरी गायें मुझे दूध नहीं देंगी, तो मैं अपने परिवार का पेट कैसे भरूंगी?”
मेरे जीवन की दूसरी सभी बातों की तरह, मेरी दिमाग की बत्ती थोड़ी देर से जली। इसे समझना इतना भी मुश्किल नहीं था और फिर भी समझ नहीं पाया। यह इतना स्पष्ट है, फिर भी स्पष्ट नहीं दिखता।
आजीविका का नुकसान और महिलाओं पर इसका प्रभाव
क्योंकि मुझे धीरे-धीरे एहसास हुआ, कि जब परिवार में भरण पोषण महिला को ही करना होता है, उस भूमिका को छीन लेना या उसके लिए उसके परिवार का भरण-पोषण मुश्किल कर देना, निश्चित रूप से उसे चिंतित करेगा।
यदि हम पिछले दो वर्षों के ‘हैलो सखी हेल्पलाइन’ के आंकड़ों को देखें, या मेरे अपने ही अनुभवों के अनुसार, जब एक परिवार से आजीविका छीन ली जाती है (चाहे लॉकडाउन के कारण या पवन टर्बाइन के कारण), तो परिवार की शुद्ध पीड़ा, कम से कम वर्तमान प्रचलित पितृसत्तात्मक व्यवस्था में, महिला पर डाल दी जाती है।
आजीविका का नुकसान और महिलाओं पर इसका प्रभाव
क्योंकि मुझे धीरे-धीरे एहसास हुआ, कि जब परिवार में भरण पोषण महिला को ही करना होता है, उस भूमिका को छीन लेना या उसके लिए उसके परिवार का भरण-पोषण मुश्किल कर देना, निश्चित रूप से उसे चिंतित करेगा।
यदि हम पिछले दो वर्षों के ‘हैलो सखी हेल्पलाइन’ के आंकड़ों, या मेरे अपने ही अनुभवों के अनुसार, जब एक परिवार से आजीविका छीन ली जाती है, तो परिवार की शुद्ध पीड़ा महिला पर डाल दी जाती है। कम से कम वर्तमान प्रचलित पितृसत्तात्मक व्यवस्था में तो ऐसा है। आजीविका का यह नुकसान चाहे लॉकडाउन के कारण हो या पवन टर्बाइन के कारण।
जानकी की सहेली हँस पड़ी और फिर बोली – “खाना थाली में न मिलने पर मेरे पति चिड़चिड़े हो जाते हैं। कभी-कभी वह नखरे भी दिखाते हैं कि खाना उनकी पसंद का नहीं है। हफ्ते के सातों दिन पसंदीदा भोजन? मैं कोई जादूगर नहीं हूँ।”
बातचीत इन दो वाक्यों से ज्यादा लंबी थी। लेकिन बार-बार जो चलता रहा, वह थाली में भोजन के होने या न होने के बारे में एक साधारण तथ्य है। और महिलाओं के कल्याण पर उसका गहराता प्रभाव, जो टर्बाइनों के लिए रास्ता बनाने के लिए पेड़ों के काटने से शुरू होता है।
शायद यही कारण है कि इन विरोध प्रदर्शनों में महिलाएं और बच्चे सबसे आगे हैं।
वे कमजोर नहीं हैं।
वे डरे हुए नहीं हैं।
संगीतकार एरियाना ग्रांडे के प्रसिद्ध गीत “आई वांट इट, आई गॉट इट” (मुझे वह चाहिए, मैंने वो पा लिया) की तर्ज़ पर – उन्हें यह चाहिए और वे इसे पाने का प्रयास करेंगे।
इस लेख के शीर्ष पर मुख्य तस्वीर इंडिया फेलो अनीश मोहन की है।
अनीश मोहन 2020 में ‘इंडिया फेलो’ थे। उन्होंने गुजरात के कच्छ के ग्रामीण क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के साथ काम किया, और उन्हें सीधे कार्रवाई का इस्तेमाल करने और महिला सशक्तिकरण की अंतर्दृष्टि को मजबूत करने में मदद की।
अपनी जड़ों की ओर लौटते हुए, तमिलनाडु के शिक्षित युवाओं ने अपनी पैतृक भूमि का आधुनिकीकरण करके और इज़राइली कृषि तकनीक का उपयोग करके कृषि उत्पादन को कई गुना बढ़ा दिया है।
पोषण सखी या पोषण मित्र के रूप में प्रशिक्षित महिलाएं ग्रामीण महिलाओं, विशेषकर गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पौष्टिक भोजन खाने और एनीमिया और कम वजन वाले प्रसव पर काबू पाने के लिए सलाह और मदद करती हैं।
ओडिशा में, जहां बड़ी संख्या में ग्रामीण घरों में नहाने के लिए बंद जगह की कमी है, बाथरूम के निर्माण और पाइप से पानी की आपूर्ति से महिलाओं को खुले में नहाने से बचने में मदद मिलती है।