कुछ ग्रामीण महिलाएं अभी भी रसोई गैस का उपयोग नहीं करती, क्योंकि यह किफायती नहीं है। एक विकास-छात्र महसूस करता है कि कल्याणकारी योजनाओं को तैयार करने में सरकार को नीचे से ऊपर के दृष्टिकोण की जरूरत है।
सविता हर सुबह 5 बजे उठती हैं और मध्य प्रदेश में सीहोर जिले के नसरुल्लागंज ब्लॉक के अपने आदिवासी गाँव, भिलाई खारी से कुछ किलोमीटर पैदल चलकर ईंधन की कुछ लकड़ी इकट्ठा करती हैं।
वापिस आते हुए, 25-वर्षीय सविता एक हैंडपंप से पानी भरती हैं और चूल्हे पर अपने परिवार के लिए खाना बनाना शुरू कर देती हैं।
सविता अपने गांव की उन ज्यादातर महिलाओं की तरह हैं, जिनके पास एलपीजी गैस कनेक्शन नहीं है।
मैं सविता से एक ग्रामीण इमर्शन यात्रा पर मिली थी, जो मेरे विकास प्रबंधन कार्यक्रम का हिस्सा है।
समाजों और संस्थाओं की जमीनी हकीकत को समझने के लिए, हम लोगों के समूह अलग-अलग जिलों में भेजे गए थे।
मैं अपने ग्रुप के साथ दो हफ्ते के लिए सीहोर गई। ग्रामीण क्षेत्रों की यात्राओं ने मुझे मानव-प्रकृति के संबंधों को समझने में मदद की, जहां ज्यादातर ग्रामीण समुदाय अब भी आजीविका की अपनी दैनिक जरूरतों के लिए वनों जैसे अपने आसपास के वातावरण पर निर्भर हैं।
सहभागी ग्रामीण मूल्यांकन उपकरणों के द्वारा समुदाय से घनिष्ठ संपर्क ने, मुझे वंचित ग्रामीण समुदायों, विशेष रूप से महिलाओं के रोजाना के संघर्षों की पहचान करने और उनकी आजीविका के हालात का विश्लेषण करने में मदद की।
महिलाओं की रोजाना की कड़ी मेहनत
समुदाय की महिलाओं से बात करते हुए, मैंने महसूस किया कि घरेलू खपत के लिए पानी लाना एक दैनिक संघर्ष है, जिसके लिए भारी शारीरिक मेहनत करनी पड़ती है।
और उन्हें हैंडपंप से पानी लाने के लिए आमतौर पर कई बार चक्कर लगाने पड़ते हैं।
गर्मी के महीने विशेष रूप से झुलसा देने वाले होते हैं, जिनमें हैंडपंप का पानी सूख जाता है। जिसका अर्थ है कि इन महिलाओं को सबसे पास के तालाब से कम से कम तीन किलोमीटर पैदल चलकर पानी ढोना पड़ता है।
ईंधन की लकड़ी को लेकर भी सच्चाई यही है।
लकड़ी के चूल्हे का उपयोग करना
इस गांव के प्रत्येक घर में पारम्परिक चूल्हा है ।
ये महिलाएं ईंधन की लकड़ियों का जो गट्ठर ढो कर लाती हैं, उसका वजन 5 से 10 किलोग्राम तक होता है।
40 परिवारों में से 20 को तीन साल पहले एलपीजी कनेक्शन मिला था।
हमें पता चला कि यही वह समय था जब सरकार ने उज्जवला योजना की शुरुआत की थी। बाकी घरों के उनके कनेक्शन या तो गलत तरीके से दूसरे लोगों को दे दिए गए थे, या वे एलपीजी का उपयोग करने के इच्छुक नहीं थे।
उज्ज्वला योजना का उद्देश्य खाना पकाने के स्वच्छ तरीकों को अपनाकर, महिलाओं को सशक्त बनाना और कड़ी मेहनत को कम करना है। यह समय और ऊर्जा की बचत कर सकता है और ग्रामीण भारत की महिलाओं को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से बचा सकता है।
लेकिन क्या इसने अपना उद्देश्य पूरा किया?
उज्जवला योजना की खामियाँ
दुर्भाग्य से, सामर्थ्य और सेवाओं की उपलब्धता की कमी के कारण, उज्जवला योजना व्यावहारिक रूप से लाभकारी नहीं रही है।
आर्थिक बाधाओं के कारण, ग्रामीण समुदाय एलपीजी सिलेंडरों को दोबारा भरवाने का खर्च वहन नहीं कर सकते, जो कि 700 रुपये होता है। एलपीजी कनेक्शन वाले लगभग 20 परिवार पैसे की कमी के कारण, अपने सिलेंडरों को फिर से नहीं भरवा पाए हैं। वे फिर से चूल्हे का इस्तेमाल करने लगे हैं।
दूसरा कारण यह है कि घर पर डिलीवरी सीमित होने के कारण, सिलेंडर को अपने घर तक ले जाने में दिक्कत होती है।
सरकारी योजनाओं को लागू करने और उस विशेष योजना के मुख्य हितधारकों की जरूरतों के बीच, व्यापक अंतर होता है।
नसरुल्लागंज के इस छोटे से गांव का ही उदाहरण ले लीजिए। सविता जैसी बहुत सी महिलाएं, वर्तमान में मौजूद अनेक भिन्नताओं को देखते हुए, उज्ज्वला योजना का लाभ नहीं उठा पाएंगी।
इन कमियों को दूर करने और प्रभावी सामुदायिक भागीदारी से, नीचे से ऊपर की ओर निर्णय लेने की प्रक्रिया को बढ़ावा मिलना चाहिए।
योजनाओं को तैयार करने वालों को सबूत-आधारित निर्णय लेने के महत्व पर जोर देने की जरूरत है। यहां सहभागिता तरीकों के माध्यम से, सही जानकारी जुटाने पर ध्यान देना चाहिए।
मेरा यह भी मानना है कि सामाजिक सुरक्षा योजनाओं की सफलता सुनिश्चित करने के लिए, उनकी लगातार जांच और मूल्यांकन किया जाना चाहिए।
इस लेख के शीर्ष पर फोटो तेनज़िन चोर्रान की है, जो इंडियन स्कूल ऑफ़ डेवलपमेंट मैनेजमेंट में विकास प्रबंधन की छात्र हैं, और इस लेख की लेखक हैं। (फोटो – तेनजिन चोर्रान के सौजन्य से)
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और मूर्खतापूर्ण मानवीय हस्तक्षेप ने उत्तराखंड में पारंपरिक किसानों को मुश्किल में डाल दिया है, वे नई फसलें और आजीविका अपना रहे हैं।