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“जब मेरी बेटी अस्पताल में भर्ती थी, तब भी मैंने पढ़ाना जारी रखा”

परम्पराओं को नकारते हुए, लक्ष्मी बिष्ट (नी) नौरियाल शादी के बाद भी अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए अपने माता-पिता के साथ रही। पढ़ाने के लिए उनका शुरुआती जुनून जारी है, क्योंकि वह चुनौतियों के बावजूद वंचित बच्चों को पढ़ाती हैं।

मुंबई, महाराष्ट्र

आप जानते हैं कि एक छोटे से गांव में जीवन कैसा हो सकता है। हमारे गांव रामगढ़ में सुविधाओं का अभाव था।

तीन लड़कों के साथ मैं इकलौती लड़की थी। मुझे याद है कि मैं अपनी माँ को जलाऊ लकड़ी इकट्ठा करने, खाना पकाने के लिए आग जलाए रखने और घर के काम करने में मदद करती थी।

जब मैं 15 साल की थी, तो मेरी माँ ने मेरे पिता को मेरी पढ़ाई बंद करने के लिए कहा। उनका तर्क था कि मैं जितना ज्यादा पढूंगी, मेरी शादी के लिए उतने ही ज्यादा दहेज की जरूरत पड़ेगी।

मेरे पिता ने जवाब दिया – “ लक्ष्मी पढ़ाई में अच्छी है। वह जितनी चाहे पढ़ाई कर सकती है। मैं उसे नहीं रोकूंगा और उसकी जल्दी शादी नहीं करूंगा।

मुझे लगता है कि मेरे पिता, जो एक किसान हैं, पढ़ाई के प्रति मेरे लगाव और बच्चों को पढ़ाने के लिए मेरे प्यार को भी समझते थे।

आप देखिए, जब मैं स्कूल में पढ़ रही थी, तभी मैंने प्री-प्राइमरी बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया था। यह 1981 की बात है और मुझे 175 रुपये महीना मानदेय मिलता था।

मेरा स्कूल 10 किमी दूर एक गाँव में था। मेरे पिता बस में आने जाने के किराए के लिए मुझे रोज दो रुपये देते थे।

लेकिन मैं जोखिम भरी पहाड़ियों, एक नदी और एक घाटी को पार करते हुए, दोनों तरफ़ एक-एक घंटे से ज्यादा पैदल चलती थी। एक बार मेरा सामना एक भालू से भी हो गया था। मैंने ऐसा अपने बस का किराया बचाने के लिए किया, ताकि मैं अपने युवा छात्रों के लिए उपहार खरीद सकूँ।

मेरी शादी तब हुई, जब मैं 22 साल की थी। उस समय मैंने बारहवीं पास कर ली थी और बस तभी मैंने ग्रेजुएशन के लिए आवेदन पत्र भरा था।

मैंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए, अपने माता-पिता के साथ अपने गाँव में रहने का फैसला किया। एक विवाहित महिला के लिए ऐसा करना बहुत ही असामान्य बात थी। खासकर एक गांव में।

मैं चुनौतियों से घबराई नहीं। मैंने पढ़ाने का काम करते हुए ही, ग्रेजुएशन और फिर पोस्ट-ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी की।

मेरे पति तब मुंबई में काम कर रहे थे। जब भी संभव होता, मैं उनसे मिलने जाती थी। 

मेरे दो बच्चों के जन्म के बाद, मैं दृढनिश्चय कर चुकी थी कि उन्हें अच्छी शिक्षा मिलेगी। इसलिए मैंने स्थायी रूप से मुंबई जाने का फैसला किया। मैंने अपने गाँव में एक आकर्षक स्थायी नौकरी से भी इंकार कर दिया।

मुंबई में मैंने निर्माण मजदूरों, घरेलू नौकरों, आदि के बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया, ताकि उन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जुड़ने में मदद मिल सके।

मैंने अब तक ऐसे 7,500 से ज्यादा बच्चों को पढ़ाया है। हर बच्चा मेरे अपने बच्चे जैसा है।

वर्ष 2008 में मेरी 16 साल की बेटी की एक भयानक आग दुर्घटना में मृत्यु हो गई। जब वह अस्पताल में थी, तब भी मैंने पढ़ाना जारी रखा।

आज उसके दोस्त मुझसे मिलने आते हैं, अपनी नौकरी और शादी की बात करते हैं। लेकिन मेरी बेटी के बारे में कोई बात नहीं करता। मैं उनमें और हर उस बच्चे में जिसे मैं पढ़ाती हूँ, अपनी बेटी को देखती हूँ।

इतने वर्षों के बाद भी, मेरी दिनचर्या नहीं बदली है। मैं सुबह 4.30 बजे उठती हूँ, काम खत्म करती हूँ और 9 बजे तक पढ़ाने के लिए तैयार हो जाती हूँ।

मैं एक झुग्गी बस्ती में रहता हूँ, जहाँ सुरक्षा और स्वच्छता चिंता का एक बड़ा कारण हैं। महिलाओं से छेड़ छाड़ बेतहाशा थी।

जब से मैंने पढ़ाना शुरू किया है, मुझे इलाके के आवारा तत्वों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है। मुझे हर दिन नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह सब मुझे वह करने से नहीं रोक पाता है, जो करने के लिए मैं पैदा हुई थी …पढ़ाना!

इस लेख की मुख्य फोटो में लक्ष्मी बिष्ट को बच्चों को पढ़ाते दिखाया गया है (छायाकार – मनु श्रीवास्तव)

मुंबई स्थित वकील और लेखक मनु श्रीवास्तव द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट। फोटो – मनु श्रीवास्तव और लक्ष्मी बिष्ट एवं अनस्प्लैश की एस निकिता के सौजन्य से।