“भारत बाघ संरक्षण का गुरु है”

हाल के वर्षों में राष्ट्रीय पशु, बाघों को बचाने के भारत के प्रयासों को जबरदस्त सफलता मिली है। इस समय भारत में बाघ आबादी 3,000 है। यह उपलब्धि कैसे हासिल की गई और भारत की अन्य संकटग्रस्त वन्यजीव प्रजातियों के लिए इसका क्या मतलब है, इसे समझने के लिए हमने ‘वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया’ के मुख्य परिस्थिति वैज्ञानिक, डॉ. समीर कुमार सिन्हा से बात की।

विलेज स्क्वेयर: विश्व बाघ दिवस के रूप में 29 जुलाई का क्या महत्व है? भारत के लिए इसका क्या अर्थ है?

समीर कुमार सिन्हा: दुनिया भर में बाघों की विलुप्ति के खतरे के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए ‘विश्व बाघ दिवस’ मनाया जाता है। वर्ष 2010 में सेंट पीटर्सबर्ग में ‘विश्व बाघ शिखर सम्मेलन’ में जागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से इस दिवस को हर साल मनाने का निर्णय लिया गया था।

हमारे लिए इसका महत्व ज्यादा है, क्योंकि भारत में दुनिया की बाघों की आबादी का 70% हिस्सा है। इसलिए भारत दुनिया में बाघों का मुख्य संरक्षक है। दुनिया के बाघों की 6 उप-प्रजातियों में से, भारत में रॉयल बंगाल टाइगर है। दूसरे, जनसंख्या का ज्यादा घनत्व वाला एक विशाल देश होने के कारण संसाधनों पर अधिक दबाव है और इसलिए वन्यजीव संरक्षण के संदर्भ में बड़ी चुनौतियां हैं, और बाघ संरक्षण के बारे में जागरूकता की ज्यादा जरूरत है।

इसके अलावा इस क्षेत्र में नए मुद्दे उभर रहे हैं। जैसे-जैसे उनकी आबादी बढ़ती है, बाघ मानव आबादी के इलाकों में फैल जाते हैं, जिससे मानव-बाघ टकराव बढ़ जाता है। लेकिन मैं कहूंगा कि बाघों के प्रबंधन और संरक्षण के मामले में भारत गुरु है।

ईंधन की लकड़ी के लिए वाल्मीकि टाइगर रिजर्व पर निर्भरता कम करने के लिए, महिला एसएचजी सदस्यों ने बेहतर चूल्हों का उत्पादन किया (फोटो – WTI के सौजन्य से)

मैं जो कह रहा हूँ इसका सबसे अच्छा उदाहरण मध्य प्रदेश का पन्ना है। पहले पन्ना और सरिस्का, दोनों जगह बहुत बुरी स्थिति थी, जहाँ अवैध शिकार के कारण बाघों की आबादी में भारी कमी आई थी। वहां स्थानीय रूप से बाघ विलुप्त हो गए थे। लेकिन सावधानीपूर्वक योजना के साथ, बाघों को धीरे-धीरे पन्ना वापिस लाया गया, और यह आज बाघों का एक बहुत अच्छा आवास है। अब यहां से बाघ देश के अन्य हिस्सों में भेजे जा रहे हैं। इसलिए 12-15 वर्षों के भीतर, पन्ना बाघ की विलुप्ति से स्रोत-आबादी बनने तक चला गया है। जिस तरह से यह किया गया है वह भारत के लिए गर्व की बात है।

विलेज स्क्वेयर: इस सफलता के प्रमुख कारक कौन से हैं?

समीर कुमार सिन्हा: हमने सबसे महत्वपूर्ण चीजों में से एक जो की, वह थी ‘राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण’ (NTCA) की स्थापना। यह एक वैधानिक निकाय है, जिसके पास नियमों को लागू करने और कार्रवाई की कानूनी शक्ति है। NTCA बाघों के प्रबंधन, उनके आवास और सभी संबद्ध गतिविधियों की देखरेख करता है। इसलिए भारत में यह एक बहुत अच्छा संस्थागत ढांचा है। यह राज्य सरकारों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, दोनों के साथ काम करता है।

दूसरा महत्वपूर्ण कदम बाघों की आबादी की निगरानी के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाना था। पहले इनकी संख्या की निगरानी राज्य के विभागों द्वारा की जाती थी। अब यह चार चरणों में किया जाता है। इसमें सभी टाइगर रिजर्व, अपने क्षेत्र के अंतर्गत बाघों की संख्या की निगरानी में शामिल होते हैं, इसे चरण-IV बाघ प्रबंधन कहा जाता है। चरण-IV का मतलब है कि सभी टाइगर रिजर्व बाघों की निगरानी पूरा साल करेंगे। और इसके लिए उन्हें कुछ उपकरण भी प्रदान किए जाते हैं, जैसे कि वन और संरक्षित क्षेत्र के कर्मचारियों द्वारा बाघों की आबादी, उनके आवास की स्थिति आदि की निगरानी के लिए उपयोग किया जाने वाला एप्लिकेशन (एप्प)।

विलेज स्क्वेयर: आपने पहले उल्लेख किया कि बाघों की आबादी में वृद्धि से मानव-बाघ संघर्ष बढ़ जाता है। इस मुद्दे से निपटने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं?

समीर कुमार सिन्हा: हर घटना के दो पहलू होते हैं। पहले जब बाघों की आबादी कम थी, तो कुदरती फैलाव की प्रक्रिया में मानव बस्तियों के पास बाघों के आने की घटनाएं कम होती थी। बाघ एक क्षेत्रीय जानवर है। इसलिए जब उनकी आबादी बढ़ती है, तो वे अपने लिए नया क्षेत्र खोजने के लिए मूल क्षेत्र से बाहर निकलते हैं।  ऐसा करते हुए कभी-कभी वे मानव आबादी के निकट आ जाते हैं। कभी-कभी वयस्क नर बाघों से छोटे और बूढ़े बाघों को उनके आवास की परिधि पर धकेल दिया जाता है, जहां आमतौर पर संसाधन कम होते हैं। ऐसे हालात में, एक बूढ़ा बाघ किसी ‘आसान शिकार’ की तलाश करेगा, जैसे पड़ोसी गांवों के पशु। साथ ही, यह सिर्फ जनसंख्या में वृद्धि और फैलाव का मामला नहीं है, बल्कि उनके आवास क्षेत्र के सिकुड़ने का मामला भी है। अक्सर इन आवास क्षेत्रों में इंसान द्वारा बुनियादी ढाँचा बनाया जाता है, जो गड़बड़ी का कारण बनता है। इस प्रकार इस घटना के पीछे कई कारक हैं।

संघर्ष के मामले में, लोग प्रतिक्रिया की रणनीति पर भरोसा करते हैं। किसी घटना के होने पर लोग बाघ को पकड़ने और उसे दूसरे क्षेत्र में स्थानांतरित करने का प्रयास करते हैं। इसलिए, WTI लगभग 13 वर्षों से उत्तर प्रदेश में लैंडस्केपिंग कर रहा है। दुधवा और पीलीभीत में संघर्ष के मामले बहुत ज्यादा हैं। और ये सभी क्षेत्र यूपी में गन्ने की खेती के क्षेत्र में आते हैं। बाघों के लिए गन्ने के खेत घास के मैदान की तरह होते हैं, जहाँ वे अच्छी तरह से छिप सकते हैं। यह शिकार के लिए एक अच्छा स्थान भी है, क्योंकि इन इलाकों में हिरण जैसे छोटे जानवर पाए जाते हैं। इसलिए बाघों को गन्ने के इन खेतों में भोजन और आश्रय मिलता है, और वे वहाँ रहना शुरू कर देते हैं, क्योंकि यह माहौल बहुत अनुकूल है। कटाई के समय बाघ इंसानों पर हमला कर देते हैं।

दुधवा टाइगर रिजर्व लैंडस्केप में, मानव-बाघ संघर्ष उन्मूलन पर बनी एनिमेटेड फिल्म ‘किनारा’ देखते हुए गांव के बच्चे (फोटो – WTI के सौजन्य से)

शुरू में रणनीति बाघ को पकड़ने और उपयुक्त हालात होने पर उसे जंगल में छोड़ने की थी। यदि ऐसा न हो सके, तो जीवन भर देखभाल के लिए इसे चिड़ियाघर जैसी सुविधा में भेजा जा सके। फिर WTI ने लोगों के साथ काम करना शुरू किया। इसलिए हमारे प्राथमिक प्रतिक्रिया दल (PRT) के रूप में जमीनी स्तर के स्वयंसेवकों का एक समूह है। इनका काम इंसानों और बाघों के बीच मुठभेड़ को कम करना है। यदि इंसान बाघों के नजदीक नहीं जाएंगे, तो बाघ हमला नहीं करेंगे। PRT का काम ग्रामीणों को सावधान करना और WTI और वन विभाग को अपडेट करना है, ताकि यदि जरूरी हो, तो एक विशेषज्ञ बाघ को दूर ले जाने और सुरक्षित मार्ग प्रदान करने या उसे पकड़ने के लिए उपलब्ध हो सके।

पहले मानव क्षेत्रों में आ जाने वाले बाघ या तेंदुए को सुरक्षित रास्ता प्रदान करना एक लोकप्रिय रणनीति नहीं थी। लेकिन हमने पाया कि लगभग 50% मामलों में, जानवर को सुरक्षित रास्ता देकर उसे अकेला छोड़ देना एक समाधान हो सकता है। PRT के बेहतर प्रबंधन के लिए, हमने पिछली जानकारी के आधार पर बाघों के सक्रीय स्थानों की पहचान की और इन क्षेत्रों में PRT में शामिल होने के लिए हम स्थानीय स्वयंसेवकों को ढूंढते हैं। ये लोग पूरी तरह स्वैच्छिक आधार पर काम करते हैं। आखिर ग्रामीणों को ही इस समस्या का सामना करना पड़ रहा है, न कि वन विभाग या एनजीओ को। तो यह उनकी समस्या है और उन्हें समाधान के लिए तैयार रहना चाहिए।

विलेज स्क्वेयर: खतरे के बारे में समुदाय की समझ क्या है, और बाघों से संबंधित संरक्षण और टकराव के बारे में उनके विचार क्या हैं?

सुनील कुमार सिन्हा: देखिए, टकराव कोई नई बात नहीं है। जब खुली भूमि के विशाल विस्तार होते थे, तब भी संघर्ष होता था। यह बात स्थानीय ग्रामीण जानते हैं। वे इसे दैवीय घटनाएं मानते थे। यह बदलता तब होता है, जब कोई बाहरी व्यक्ति कार्यभार संभालता है। इसलिए अब जब वन विभाग उन्हें बाघों को नहीं मारने के लिए कहता है, या उन्हें एक निश्चित तरीके से काम करने का निर्देश देता है, तो उन्हें लगता है कि इस संघर्ष के लिए वन विभाग जिम्मेदार है, न कि वे स्वयं। इसके अलावा, किसी भी तरह की चोट या संपत्ति के नुकसान के मामले में, वन विभाग प्रभावित ग्रामीणों को मुआवजा प्रदान करता है। इसलिए वे वन विभाग और जानवरों के बीच एक नजदीकी संबंध बनाते हैं, कि यदि जानवर कोई नुकसान पहुंचाता है, तो इसके लिए विभाग जिम्मेदारी ले। इसलिए वे अपनी भूमि एवं संसाधनों और वन्य जीवन के प्रबंधन से खुद को दूर कर लेते हैं। यह एक जारी भावना है, जिसे प्रभावी संरक्षण के लिए बदलने की जरूरत है।

विलेज स्क्वेयर: भारत की बाघ संरक्षण से सम्बंधित सफलता को देखते हुए, भारत के बाघ संरक्षण मॉडल से वन्यजीव संरक्षण के अन्य प्रयास क्या सबक ले सकते हैं?

समीर कुमार सिन्हा: बाघ एक करिश्माई प्रजाति है। इसलिए इसमें इसके संरक्षण की परियोजनाओं के लिए धन जुटाने की क्षमता है। ज्यादातर अन्य वन्यजीव प्रजातियों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। दूसरी प्रजातियों के संरक्षण प्रयासों के लिए उस तरह का ध्यान आकर्षित करना मुश्किल है। इसलिए बाघों के अलावा अन्य प्रजातियों के प्रबंधन, जनबल आदि पर निवेश चिंताजनक है। यहां तक कि हाथी जैसी शानदार प्रजाति को भी प्रबंधन के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं मिलते। यही बात बाघ संरक्षण को अन्य वन्यजीव संरक्षण परियोजनाओं से अलग करती है।

पीलीभीत के सदिया गांव में महिला स्वयं सहायता समूह के साथ मानव-बाघ संघर्ष के बारे में जागरूकता बैठक (फोटो – WTI से साभार)

इसके अलावा बाघ के एक व्यापक क्षेत्र वाला जानवर होने के कारण, उनके आवास के संरक्षण से हाथी जैसे दूसरे व्यापक क्षेत्र वाले जानवरों को लाभ होता है। इसलिए हमें संरक्षण के लिए लैंडस्केप तरीके को अपनाने की जरूरत है, जो भारत में पहले से ही हो रहा है। लोग बाघ गलियारों के बारे में बात कर रहे हैं, लेकिन अन्य जानवरों के प्रति यह ध्यान आकर्षित करना मुश्किल है।

विलेज स्क्वेयर: तो बाघ संरक्षण की दिशा में हुए प्रयासों से क्या अन्य वन्यजीव प्रजातियों को भी लाभ हुआ है?

समीर कुमार सिन्हा: हां, निश्चित रूप से इससे कई प्रजातियों को फायदा हुआ है। लेकिन यह कहना भी सही नहीं होगा कि बाघ संरक्षण के प्रयासों से सभी प्रजातियों को लाभ हुआ है। क्योंकि बहुत सी प्रजातियाँ विशिष्ट प्रजातियाँ हैं, जिन्हें एक विशिष्ट निवास स्थान की जरूरत होती है। इसलिए हम कहते हैं कि जब वन्यजीव संरक्षण की बात होती है तो बाघ एक ‘छत्र जानवर’ है, लेकिन हमारा एकमात्र ध्यान बाघों की आबादी बढ़ाने और उनके शिकार के आधार को बढ़ाने पर है।

विलेज स्क्वेयर: अगले दशक में भारत में वन्यजीव संरक्षण से सम्बंधित मुख्य चुनौतियाँ क्या हैं?

समीर कुमार सिन्हा: मुख्य चुनौती निश्चित रूप से आवास है। प्राकृतिक खुले क्षेत्रों को आमतौर पर बंजर भूमि माना जाता है, लेकिन उससे कई प्रकार की प्रजातियों को सहयोग मिलता है। यही बात आर्द्रभूमि और घास के मैदानों पर भी लागू होती है। इसलिए सभी प्रकार के आवासों का संरक्षण करना महत्वपूर्ण है। और हमें इन प्रयासों के बारे में सभी हितधारकों को संवेदनशील बनाने की जरूरत है। भारत में, जब संरक्षण की बात आती है, तो यह आमतौर पर वन विभाग और संबंधित गैर सरकारी संगठनों पर रुक जाती है। इसलिए संरक्षण की जिम्मेदारी इन सभी हितधारकों द्वारा ली जानी चाहिए, न कि सिर्फ वन विभाग और चंद गैर सरकारी संगठनों द्वारा। इस समय ज्यादातर हितधारक बिना विशेष संसाधनों का निवेश किए, केवल सीमित संबंध चाहते हैं। यहां तक कि सरकारी एजेंसियों का भी यही दृष्टिकोण है।

विलेज स्क्वेयर: क्या आप इस विषय पर हमसे कुछ और साझा करना चाहेंगे?

समीर कुमार सिन्हा: मैं संक्षेप में जमीनी स्तर पर काम करने वाले वन अधिकारियों के बारे में बात करना चाहूँगा। वे असली हीरो और भारतीय वन्यजीव जलवायु के असली रक्षक हैं। लेकिन आपको उनके जीवन की गुणवत्ता को देखना चाहिए। जिस तरह से उनके प्रयासों का प्रतिफल मिल रहा है, उसे देखकर बहुत निराशा होती है।

दुधवा लैंडस्केप में मानव-बाघ संघर्ष प्रबंधन के दौरान भीड़ नियंत्रण (फोटो – WTI साभार)

दूसरे, भले ही सामुदायिक भागीदारी वन्यजीव संरक्षण का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा है, फिर भी कई क्षेत्रों में मौजूदा रणनीतियों में स्थानीय समुदायों को बहुत सीमित रूप से शामिल किया जाता है। उन्हें भी शामिल होना चाहिए और संरक्षण के प्रयासों का लाभ उठाने में सक्षम होना चाहिए।

संरक्षण की दिशा में सतत प्रयास एक और महत्वपूर्ण पहलू है। ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की शुरुआत 1973 में हुई थी। हमें ऐसे ही निरंतर प्रयास करने की जरूरत है। कोई महत्वपूर्ण प्रभाव डालने के लिए, कम से कम 10-15 वर्षों के लिए एक संरक्षण परियोजना चलनी चाहिए। अन्यथा यह संसाधनों की बर्बादी होगी। हमें प्रयास समय के साथ होने वाले बदलावों के अनुसार संशोधित करना चाहिए। तो ये कुछ महत्वपूर्ण बातें हैं, जो मैं वन्य जीवन और बाघ संरक्षण के संबंध में साझा करना चाहता था।

इस लेख के शीर्ष पर मुख्य फोटो में भारत के बाघ अभयारण्यों में से एक में एक बाघ और उसके शावकों को दिखाया गया है (फोटो – अनुराधा मारवाह, ‘शटरस्टॉक’ के सौजन्य से)