चकला गाँव के आदर्श मिश्रण – चाय और ‘बंधु’

उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल

चकला गांव के लोग अब्दुल नज़र से तब तक किनारा करते रहे, जब तक उन्हें यह एहसास नहीं हो गया कि नज़र की चाय की दुकान उनके गाँव के विकास को ऊँची छलांग दे सकती थी।

चाय भारत का सबसे लोकप्रिय सदाबहार पेय है। लेकिन एक सामाजिक कार्यकर्ता चाय को एक अलग ही स्तर पर ले गए।

एक सामाजिक कार्यकर्ता, अब्दुल नज़र पश्चिम बंगाल के चकला गाँव की अपनी दुकान में, पैसे कमाने के लिए नहीं, बल्कि दोस्त बनाने के लिए चाय बनाते हैं।

उनकी चाय की दुकान का नाम ‘बंधु’ उचित ही है, जिसका बंगाली में अर्थ दोस्त है।

लेकिन जब उन्होंने शुरू में अपनी चाय दुकान खोली, तो चकला के लोगों ने उन्हें दोस्त के रूप में नहीं देखा। 

बल्कि उन्होंने उसे शक की निगाह से देखा। तो आखिर वह गाँव के सबसे लोकप्रिय लोगों में से एक कैसे बन गए?

मुफ्त की चाय लेने वाला कोई नहीं

अब्दुल नज़र ने अपनी चाय की दुकान शुरू की, यह जानते हुए कि किसी समुदाय में, विशेष रूप से भारत के गांवों में, चाय की दुकानें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

इसलिए उन्होंने चाय मुफ्त पिलानी शुरू की। लेकिन उनकी चाय कोई पीने वाला नहीं था।

शहरों और कस्बों की दुकानों में मुफ्त की चीजें भीड़ खींचती हैं। लेकिन चकला गांव में ऐसा नहीं था।

अपनी चाय की दुकान पर आगंतुकों के साथ नज़र, जो उनकी ग्रामीण बंगाल की ‘बंगाल यात्रा’ के लिए आए थे (फोटो – ‘जीरो फाउंडेशन’ से साभार)

नज़र जानते थे कि गांव में कोई बाहरी इंसान शायद ही आता है और किराए के कमरे में रहता है, उस पर ग्रामीण उनकी मुस्लिम पहचान के प्रति शंकालु थे। लोग गांव में आते जरूर थे, लेकिन वे कभी रुकते नहीं।

उस पर, वह केरल से थे, जहां के बारे में ग्रामीण सोचते थे कि वहां के सभी लोग माओवादी गतिविधियों से जुड़े हुए हैं।

कुछ लोग इतने खिलाफ थे कि एक बार उनकी चाय की दुकान पर हमला भी हुआ था और गाँव के कुछ बुजुर्गों ने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी।

एक बाहरी व्यक्ति बना दोस्त

जब पुलिस को चिंता का कोई कारण नहीं मिला, तो धीरे-धीरे गाँव के कुछ लोग नज़र से दोस्ती करने लगे, उन्हें एक कप चाय, एक मुट्ठी मुरमुरे, खीरे के टुकड़े, पके हुए या भिगोए हुए मटर, चावल -दाल-मछली, जो भी उनके पास होता, देते थे।

वह उसके स्वाद या बनाने में स्वच्छता की परवाह किए बिना, उसे एक मुस्कान के साथ स्वीकार करते थे, क्योंकि वह चकला ग्रामवासियों के जीवन को बेहतर बनाने के एक मिशन पर थे।

सेवा के लिए खानाबदोश जीवन

नज़र केरल के एर्नाकुलम जिले के एक दूरदराज गाँव पेजाकप्पल्ली से हैं। उनके गांव में छोटे-छोटे व्यापार या खाड़ी देशों में नौकरी का चलन था। इसलिए जब उन्होंने सोशल वर्क में स्नातकोत्तर डिग्री के लिए दाखिला लिया, तो लोगों को समझ नहीं आया।

चकला गांव के लोगों द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए नज़र को समय और धैर्य लगा ( छायाकार – चित्रा अजित)

अपना कोर्स पूरा करने के बाद नज़र ने देश भर में यात्रा की और जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ताओं और जमीनी संगठनों के साथ काम किया।

नज़र याद करते हुए कहते हैं – “मेरे माता-पिता कभी भी मेरे सपनों के खिलाफ खड़े नहीं हुए, हालांकि वे खुश नहीं थे।”

दलाई लामा द्वारा स्थापित ‘फाउंडेशन फॉर यूनिवर्सल रेस्पोन्सिबिलिटी’ से मिले फ़ेलोशिप के कारण वह 2009 में हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला आ गए। फेलोशिप के बाद नज़र वहीं रुक गए और पहाड़ से कूड़ा साफ़ करने और तिब्बती राजनीतिक कैदियों के बीच काम करने लगे।

एक जमीनी संगठन की शुरुआत

आखिरकार उनका सामाजिक कार्य उन्हें पश्चिम बंगाल ले गया, जहां उन्होंने 2015 में कुछ समान विचारधारा वाले दोस्तों के साथ एक ग्रामीण विकास संगठन शुरू किया।

धर्मशाला में अपने प्रवास के दौरान बौद्ध धर्म से प्रभावित होने के कारण, उन्होंने इसका नाम ‘जीरो फाउंडेशन’ रखा, क्योंकि बौद्ध मान्यता के अनुसार जीरो यानि शून्य पूर्णता का प्रतीक होता है।

‘बंधु’ नज़र ने गाँव के बच्चों के साथ काम करना शुरू किया, ताकि उनकी स्कूल में उपस्थिति सुनिश्चित की जा सके (छायाकार – चित्रा अजित)

उन्होंने भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, माइक्रो-फाइनेंस और आश्रय पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला लिया। उनके दोस्त धीरे-धीरे छोड़ गए, लेकिन वह चकला गांव में ही बने रहे।

बच्चों के साथ काम

जब बड़े खेत में या पशु चराने चले जाते थे, तो बच्चे सड़कों पर घूमते और खेलते थे। उन्हें स्कूल में मुख्य रूप से सिर्फ अपना मिड-डे भोजन के लिए स्कूल में दाखिल कराया जाता था।

खेल और कहानियों से नज़र ने उनका मन मोह लिया। उन्होंने उन्हें वर्णमाला सिखाई, लिखना, गाना और चित्र बनाना सिखाया।

मौजूदा शिक्षा व्यवस्था के साथ काम करने का फैसला लेने के बाद, उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि बच्चे नियमित रूप से स्कूल जाएं। उन्होंने स्कूल छोड़ने वालों को वापिस स्कूल जाने के लिए राजी किया।

दोस्तों द्वारा प्रायोजित एक शॉपिंग यात्रा पर नज़र और चकला के बच्चे (छायाकार – हसीब)

छात्रों से मामूली शुल्क लेकर और कुछ प्रायोजकों की मदद से, उन्होंने गाँव के बच्चों के लिए एक अध्ययन केंद्र स्थापित किया। उनके दोस्त किताबें और अध्ययन सामग्री उपलब्ध करा कर मदद करते हैं। उनके उपयोग से नज़र ने दो घंटे के ट्यूशन सत्र को सुखद गतिविधि बनाते हुए, बच्चों को प्रशिक्षित किया।

अब उनके साथ नौ वैतनिक शिक्षक हैं, जिनमें से कई पूर्व छात्र हैं, जो कॉलेज में पढ़े हैं या पढ़ रहे हैं।

जीरो फाउंडेशन छात्रों को उच्च शिक्षा के लिए दाखिले और अपना करियर चुनने में भी मदद करता है।

वह आधारभूत ढांचे की कमी वाले ग्रामीण सरकारी स्कूलों को बुनियादी सुविधाएं भी प्रदान करते हैं। 

स्वास्थ्य और स्वच्छता

हालांकि चकला गांव राजधानी कोलकाता से केवल 50 कि.मी. दूर है, सबसे नजदीकी सरकारी अस्पताल 30 कि.मी. दूर है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ठीक से काम नहीं करता। इलाज के लिए दवाइयों की दुकानें और लगभग 150 झोलाछाप डॉक्टर ही सहारा रहे हैं।

गाँव की महिलाएं कपड़े में लाल मिट्टी लपेट कर सैनिटरी पैड के रूप में प्रयोग करती थी और इसके कारण वे योनि सम्बन्धी कई समस्याओं से पीड़ित होती थी।

ग्रामीण जीवन का अनुभव करने के लिए नज़र की बंगाल यात्रा का हिस्सा बनने के लिए केरल से आए शाजुद्दीन, केरल लौटने के बाद नज़र के साथ अपनी फोन कॉल के बारे में याद करते हैं।

शाजुद्दीन कहते हैं – “मैंने उनसे उनकी कमीज़ का नाप पूछा, क्योंकि मैंने देखा था कि उनकी कमीज़ का रंग फीका पड़ गया था और कॉलर घिस गया था। लेकिन नज़र ने कहा कि उनकी कमीज़ ठीक हैं और इसकी बजाय गांव की महिलाओं के लिए सैनिटरी नैपकिन की मांग की।”

इस तरह के सहयोग के माध्यम से ही जीरो फाउंडेशन पिछले चार वर्षों से सैनिटरी पैड वितरित कर रहा है, और साथ ही चिकित्सा शिविरों का आयोजन और महिलाओं से जुड़ी स्वच्छता के बारे में जागरूकता फैलाने का काम कर रहा है।

नज़र से मिले थोड़े से सहयोग से, चकला की महिलाएं बेहतर स्वच्छता अपना रही हैं और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो गई हैं (छायाकार – हसीब)

एक महिला, पिंगला ने कहा – “नैपकिन के इस्तेमाल से मूत्र-संक्रमण जैसी स्वास्थ्य समस्याएं कम हुई हैं।”

ग्राम विकास की ओर

नज़र दान स्वीकार करते हैं, लेकिन अनुदान के लिए कभी आवेदन नहीं करते।

चाहे सर्दी में कंबल वितरण हो या बाढ़ राहत या ग्रामीणों के प्राकृतिक आपदाओं में नष्ट हुए घर बनाना हो, जिन्हें सरकारी मुआवजा नहीं मिला, या महिलाओं की आर्थिक स्वतंत्रता में मदद करना हो, नज़र यह सब चकला गाँव के लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार के लिए करते हैं।

पिंगला जैसी महिलाएं अपनी उपलब्धियों का सम्बन्ध, नज़र की मदद से शुरू हुई एसएचजी से देखती हैं, कि कैसे उन्होंने अपने बच्चों को पढ़ाया या अपने बच्चों की शादी की या घर का सामान खरीदा या वे हर महीने पैसा कमाती हैं। 

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नज़र का मानना है कि भारत के गाँव प्रगति करेंगे, उन्हें बस सहयोग की ज़रूरत है।

चकला में अपने काम का खुलासा करते हुए नज़र कहते हैं – “बदलाव आएगा। चाहे हम इसके लिए काम करें या न करें, यह आएगा। हम उन बदलावों को तेज करने के लिए उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकते हैं।”

शीर्ष के फोटो में चाय की केतली दर्शाई गई है, जिसमें से भाप निकल रही है (छायाकार – राहुल रमन)

चित्रा अजीत केरल के कोझिकोड में स्थित एक पत्रकार हैं।