युवाओं द्वारा भारत का निर्माण – कैसे हुआ और कैसे हो रहा है

इस मिथक के विपरीत कि युवा आत्म-लीन होते हैं, कई युवा महिलाओं और पुरुषों ने न सिर्फ आजादी के लिए लड़ाई लड़ी, बल्कि उसके बाद के दशकों में भारत के विकास पर काम करने के लिए अच्छे वेतन वाली नौकरियां भी छोड़ दी, जिसे आज के युवा आगे बढ़ा रहे हैं।

आइए “बहुत साल पहले” से शुरू करें कि युवाओं ने भारत की आजादी में कैसे मदद की। कुशाल कोंवर का जन्म 1905 में असम के तत्कालीन ‘अहोम’ शाही परिवार में हुआ। उन्होंने पढ़ाई की और एक स्कूल की स्थापना की। एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने 1921 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और फिर कांग्रेस में शामिल हो गये। जब गांधीजी ने 8 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन की घोषणा की, तो कुशाल के जिले के कुछ कार्यकर्ताओं ने ‘मित्र देशों’ (अलाइड नेशंस) के सैनिकों की एक रेल गाड़ी को पटरी से उतार दिया, जिसके परिणामस्वरूप सैकड़ों लोग मारे गए। अंग्रेजों ने कुशाल को गिरफ्तार कर लिया, और उन्हें दोषी पाए जाने के कोई सबूत न मिलने के बावजूद, नवंबर 1943 में उन्हें फांसी दे दी गई। वह तब 38 वर्ष के थे।

एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी के रूप में कोंवर ने 1921 के असहयोग आंदोलन में भाग लिया और फिर कांग्रेस में शामिल हो गए

वर्ष 1909 में अरुणा गांगुली का जन्म पंजाब में रहने वाले एक बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। अच्छी शिक्षा प्राप्त करने के बाद, वह इलाहाबाद में एक युवा स्वतंत्रता सेनानी आसफ अली से मिली और भारी पारिवारिक विरोध के बावजूद उनसे शादी कर ली। उन्होंने 1931 में गांधीजी के नमक सत्याग्रह में भाग लिया और कांग्रेस में शोहरत प्राप्त की। जब 8 अगस्त 1942 की रात को अंग्रेजों ने कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सभी सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया, तो अगले दिन अरुणा आसफ अली ने सत्र की अध्यक्षता की और मुंबई के मैदान में कांग्रेस का झंडा फहराया। पुलिस द्वारा सभा पर गोलीबारी के बावजूद अरुणा ने कार्यवाही जारी रखी। वह 33 वर्ष की थीं।

अरुणा गांगुली ने 1931 में गांधीजी के नमक सत्याग्रह में भाग लिया और कांग्रेस में शोहरत प्राप्त की

श्री देव सुमन का जन्म 1916 में टिहरी राज्य में हुआ, जो अब उत्तराखंड में है। कुशाल और अरुणा की तरह, सुमन भी एक गांधीवादी स्वतंत्रता सेनानी बन गए। भारत की आजादी की मांग के अलावा, उन्होंने टिहरी में राजशाही को खत्म करने की मांग की। दिसंबर 1943 में उन्हें टिहरी राज्य पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। जेल में सुमन को बेड़ियों से बाँधा जाता था, यातनाएँ दी जाती थीं और भोजन में रेत या पत्थर मिलाकर दिया जाता था। उन्होंने भूख हड़ताल शुरू कर दी। 84 दिनों तक भूख हड़ताल पर रहने के बाद, 25 जुलाई 1944 को सुमन की मृत्यु हो गई। उनकी लाश को भिलंगना नदी में फेंक दिया गया। वह 27 वर्ष के थे।

श्री देव सुमन ने भारत की स्वतंत्रता की मांग के अलावा, टिहरी में राजशाही को समाप्त करने की भी मांग की।

ऐसे हजारों युवाओं के प्रयास से, 15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हुआ। वर्ष 1950 में संविधान लागू हुआ। युवाओं ने लोकतंत्र और कल्याणकारी सत्ता का लाभ उठाना शुरू किया। इस तरह उन्होंने राष्ट्र का निर्माण किया। 

तमिलनाडु के मदुरै जिले में 1941 में सुब्बैया लोगनाथन का जन्म हुआ। कॉलेज के दिनों में ही वे गांधीवादी सर्वोदय कार्यकर्ताओं के संपर्क में आये। 30 साल की उम्र में, 1969 में गांधी शताब्दी के दौरान, लोगनाथन ने भूमिहीन लोगों के साथ काम करना शुरू किया, जिन्हें विनोबा भावे के भूदान आंदोलन के अंतर्गत जमीन मिली थी। खेती से पहले बीज और खाद के अलावा, भूमि को समतल करने और सिंचाई के लिए कुओं की जरूरत थी। अंतर्राष्ट्रीय गांधीवादियों द्वारा जुटाए गए धन का उपयोग करते हुए, लोगनाथन ने पहला “सर्व सेवा फार्म” शुरू किया। यह अंततः एक देशव्यापी कार्यक्रम बन गया, जिसके अंतर्गत लाखों भूमिहीन लोगों को ‘भूदान’ भूमि पर बसाया गया।

एक पंजाबी परिवार में 1943 में जन्मे गुरचरण दास ने दिल्ली और वाशिंगटन डीसी में पढ़ाई की, जहां सरकारी कर्मचारी उनके पिता तैनात थे। गुरचरण को वजीफ़े के साथ हार्वर्ड विश्वविद्यालय में दाखिल कराया गया और उन्होंने जॉन रॉल्स से दर्शनशास्त्र की पढ़ाई की। उन्होंने संस्कृत का भी अध्ययन किया। वह भारत वापस आए और विक्स बनाने वाली कंपनी रिचर्डसन हिंदुस्तान लिमिटेड में शामिल हो गए और बाद में प्रॉक्टर एंड गैंबल वर्ल्डवाइड की स्ट्रैटेजिक प्लानिंग के एमडी बन गए। 50 साल की उम्र में गुरुचरण ने लेखक बनने के लिए कॉर्पोरेट सेक्टर छोड़ दिया। उनकी टेट्रालॉजी में चार पुरुषार्थ – धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष शामिल हैं। महाभारत की नैतिक दुविधाओं पर आधारित धर्म विषय को “अच्छा होने की कठिनाई (दि डिफिकल्टी ऑफ़ बीइंग गुड” कहा जाता है।

गुरचरण दास ने लेखक बनने के लिए कॉर्पोरेट क्षेत्र छोड़ दिया

आजादी से ठीक एक साल पहले एक तमिल ब्राह्मण परिवार में एक और अरुणा ने जन्म लिया, जिन्होंने दिल्ली में पढ़ाई की और 21 साल की उम्र में भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल हो गई। उन्होंने संजीत “बंकर” रॉय से शादी की, जिन्होंने राजस्थान के अजमेर जिले के तिलोनिया में ‘सोशल वर्क एंड रिसर्च सेंटर’ (जिसका नाम बाद में ‘दि बेयरफुट कॉलेज’ हुआ) की स्थापना की। अरुणा रॉय ने 1974 में तिलोनिया में काम करने के लिए आईएएस छोड़ दी, लेकिन बाद में उन्हें लगा कि उन्हें सच्चे सशक्तिकरण के लिए लोगों को संगठित करने की जरूरत है। निखिल डे और शंकर सिंह के साथ मिल कर 1 मई 1990 को अरुणा ने पूरी तरह भूमिहीन मजदूरों के साथ पहचान वाली ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ की स्थापना की। अंततः उन्होंने ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’, 2005, ‘महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम’, 2006 और ‘राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम’, 2009 को लागू कराने के लिए काम किया। अरुणा रॉय को 2010 में मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

अरुणा रॉय ने पूरी तरह भूमिहीन मजदूरों के साथ पहचान वाली ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ की स्थापना की

तेजी से 1992 तक पहुँचते हुए, जब भारत नेहरूवादी समाजवाद और इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बैंक और कोयला राष्ट्रीयकरण जैसी चरम सीमाओं से आगे और युवा राजीव गांधी के नेतृत्व में उदारवादी सुधारों के माध्यम से, एलपीजी यानि उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को अपनाने के लिए आगे बढ़ चुका था। इस युग में बढ़ते हुए, युवा लोग राष्ट्र का निर्माण कैसे कर रहे हैं, इसमें बहुत विविधता है।

उषा विश्वकर्मा उत्तर प्रदेश के लखनऊ के एक संगठन ‘रेड ब्रिगेड’ की संस्थापक हैं। उषा वर्ष 2005 में छेड़छाड़ उत्पीड़न की कोशिश का शिकार हुई और अपने आघात के बावजूद उन्होंने फैसला किया कि वह न केवल खुद आत्मरक्षा सीखेंगी, बल्कि दूसरों को भी सिखाएंगी। तब से उन्होंने व्यापक आत्म-जागरूकता और आत्मविश्वास निर्माण के अलावा, हजारों युवा लड़कियों और महिलाओं को आत्मरक्षा में प्रशिक्षित किया है। इस 15 अगस्त से, उषा महिलाओं के लिए “शांति और न्याय” के लिए 50 दिवसीय अभियान का आयोजन कर रही है, जिसमें पूरे उत्तर प्रदेश में 10,000 युवा महिलाएं शामिल होंगी।

उषा विश्वकर्मा ‘रेड ब्रिगेड’ की संस्थापक हैं

रामलाल काले महाराष्ट्र के अमरावती जिले के कोरकू जनजातियों के गांव, पेविहिर के युवाओं के नेता हैं। वन अधिकार अधिनियम लागू होने के तुरंत बाद, पंद्रह साल पहले, रामलाल और उनके दोस्तों ने आसपास की ख़राब वन भूमि को ग्राम समुदाय के नियंत्रण में लाने का फैसला किया। दस साल पहले, वे 474 एकड़ “वन” भूमि पर सामुदायिक वन अधिकार प्राप्त करने में सफल रहे। इसके बाद उन्होंने मिट्टी एवं जल संरक्षण और जंगल में फिर से पेड़ लगाने के लिए मनरेगा धन का इस्तेमाल किया। आज न सिर्फ जंगल पुनर्जीवित हो गया है, बल्कि उन ग्रामीणों को आजीविका भी प्रदान करता है, जो पहले पलायन करते थे। अकेले कस्टर्ड सेब (सीताफल) की बिक्री से उन्हें हर साल 25 लाख रुपये से ज्यादा मिलते हैं और तेंदू पत्तों की बिक्री से पेविहिर और 12 अन्य गांवों को 3 करोड़ रुपये से अधिक प्राप्त होते हैं।

केरल के मुन्नार में पली-बढ़ी गीतांजली राधाकृष्णन ने तंजावुर के ‘शास्त्र विश्वविद्यालय’ में बायोइंजीनियरिंग की पढ़ाई की। उन्होंने 2015 में ‘एडियूवो डायग्नोस्टिक्स’ की स्थापना करने से पहले, एक शोधकर्ता और सॉफ्टवेयर डेवलपर के रूप में काम किया। ‘एडियूवो’ का स्क्रीनिंग डिवाइस बिना चीर-फाड़, घावों के रोग-जनकों का पता लगाता है और वर्गीकृत करता है। सात दिन में परिणाम देने वाली कल्चर-पद्धति की तुलना में, ‘एडियूवो’ की रिपोर्ट केवल दो मिनट में तैयार हो जाती है, जिससे पीड़ा, लागत, अंग-कटने और जीवन बच जाते हैं। इसमें भारत में हर साल 70 लाख जलने के पीड़ितों की मदद करने की क्षमता है, जिनमें से 7-10% को सर्जरी के बाद संक्रमण हो जाता है।

जब भारत आजादी के 25 साल पूरे होने का जश्न मना रहा था, तब मैं 18 साल का हुआ था। राष्ट्र निर्माण के 50 वर्षों में अपने तरीके से भाग लेने के बाद, मुझे बहुत उम्मीद है कि जो 1950 में “हम भारत के लोगों ने,….खुद को दिया था”, उषा, रामलाल और गीतांजलि जैसे लोग इंडिया@100 में उस सपने को साकार करेंगे।

फोटो सौजन्य: आज़ादी का अमृत महोत्सव, उत्तराखंड मेरी जन्मभूमि, gurcharandas.org, ब्राउन यूनिवर्सिटी, उषा विश्वकर्मा (फेसबुक)।

विजय महाजन 2018 से राजीव गांधी फाउंडेशन के सीईओ हैं। उन्होंने 1982 में PRADAN और 1996 में ‘बेसिक्स सोशल एंटरप्राइज ग्रुप’ की सह-स्थापना की।