पर्यटकों को मंत्रमुग्ध करता राजस्थान का ग्रामीण जीवन संग्रहालय

जोधपुर, राजस्थान

विभिन्न प्रकार की झाड़ू प्रदर्शित करता, "झाड़ू संग्रहालय" के उपनाम से प्रसिद्ध, राजस्थान का ‘अरना झरना संग्रहालय’ दर्शाता है कि रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल होने वाली बुनियादी वस्तुओं के माध्यम से संस्कृति और भोजन कैसे जुड़ते हैं।

राजस्थान में पर्यटन का जिक्र आते ही भव्य महलों, नक्काशीदार दरवाजों और सोना जड़ित सिंहासनों, कीमती जरी के आभूषणों और चांदी की गाड़ियों वाले सुन्दर संग्रहालयों की तस्वीर सामने आती है।

पश्चिमी राजस्थान की छवि क्षितिज तक फैले सुनहरे रंग के रेत के टीलों की है।

जोधपुर से 15 कि.मी. जीवंत रेगिस्तान की परिधि पर स्थित, ‘अरणा झरणा: थार मरुस्थल संग्रहालय’ एक, अलग लेकिन टिकाऊ तीसरी छवि बनाने की उम्मीद प्रदान करता है। (अरणा मतलब जंगल)

दिवंगत लोकगीतकार कोमल कोठारी (राजस्थान के लोगों के लिए कोमल दा) की परिकल्पना, यह संग्रहालय रेगिस्तान की पारम्परिक ज्ञान व्यवस्थाओं और अप्रशंसित ग्रामीणों के जीवन का उत्सव है।

जीवन के नजदीकी अध्ययन पर आधारित इस संग्रहालय की सबसे अनूठी, राजस्थान में इस्तेमाल की जाने वाली विभिन्न प्रकार की झाडूओं और उनका ग्रामीण लोगों के जीवन से संबंध की प्रस्तुति है। प्रदर्शनी में राजस्थान के 29,000 गांवों से इकठ्ठा की गई 180 से ज्यादा किस्मों की झाड़ू हैं।

हैरानी की बात नहीं कि यह स्थानीय लोगों में ‘झाड़ू संग्रहालय’ के नाम से मशहूर है।

प्रकृति के साथ

किसी आम संग्रहालय से अलग, आपको यहां तैयार लॉन नहीं मिलते हैं, बल्कि इसके चट्टानी परिदृश्य में विभिन्न प्रकार के स्थानीय पौधे फैले हुए हैं। एक पहाड़ी पर स्थित, यह आसपास की चट्टानों और मानव निर्मित वर्षा-झील के साथ दर्रों का भव्य दृश्य पेश करता है।

विविध प्रकार की झाड़ुओं के प्रदर्शन के कारण ‘अरणा झरणा’ का नाम ‘झाडू संग्रहालय’ पड़ा है (फोटो – रूपायन संस्थान के सौजन्य से)

सहजता से परिवेश के साथ घुलने-मिलने और पारिस्थितिक रूप से अपनी जैव विविधता का संरक्षण करने से, ‘अरणा झरणा’ एक आदर्श ‘जीवित’ संग्रहालय बन पाया है, जिसकी कल्पना की गई थी।

इस 10 एकड़ की जायदाद में मोर बहुतायत में हैं। कबूतर, तीतर और 45 अन्य प्रकार के पक्षी यहाँ फलते-फूलते हैं, क्योंकि संग्रहालय उन्हें हर दिन खाना खिलाता है।

गाँव की झोंपड़ी के डिज़ाइन और स्थानीय निर्माण सामग्री से बने, प्रदर्शित वस्तुओं के भवन, प्रदर्शित वस्तुओं की तरह ही जमीनी हैं।

अरणा झरणा में छह खण्ड हैं, प्रत्येक का आकार लगभग 7,000 वर्ग फुट है। यहां वनस्पतियों और जीवों के साथ-साथ, प्राचीन नक्काशी वाले पत्थर भी देखे जा सकते हैं। झील और खेजड़ी (Prosopis cineraria) के पेड़ों पर संग्रहालय में प्रदर्शित वस्तुओं जितना ही ध्यान दिया जाता है।

कोमल कोठारी के पुत्र और रूपायन संस्थान के सचिव और संग्रहालय के संचालक, कुलदीप कोठारी का कहना था कि जब उन्हें 2003 में जमीन मिली थी, तो कैर जैसे केवल 60 या 70 देशी फलदार पौधे थे।

वह कहते हैं – “लेकिन अब, 2,000 से ज्यादा देशी पौधे हैं। आप प्रकृति के साथ कैसे संवाद करते हैं, यह संग्रहालय के लोकाचार का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।”

संस्कृति-भोजन का संबंध 

लेकिन अरणा झरणा सिर्फ प्रकृति ही प्रस्तुत नहीं करता है। 

हम संस्कृति को अक्सर अपनी प्रशासनिक सीमाओं के माध्यम से परिभाषित करते हैं। लेकिन हमारा मानना है कि संस्कृति उस भोजन पर निर्भर करती है, जो किसी विशेष क्षेत्र में उगाया और खाया जाता है।

स्थानीय लोगों की संस्कृति जीवंत संग्रहालय का एक बड़ा हिस्सा है, जो सादा झाड़ू के माध्यम से प्रकृति और संस्कृति के बीच सह-अस्तित्व को प्रदर्शित करने की कोशिश करती है।

कोठारी कहते हैं – “कोमल दा हमेशा कहते थे कि संग्रहालय में बाहरी कुछ भी प्रदर्शित नहीं किया जाएगा। कांच के डिब्बों में संरक्षित ‘स्पर्श न करें’ वाली वस्तुओं वाले आम संग्रहालयों से अलग, हम आगंतुकों को प्रदर्शित वस्तुओं को उठाने, छूने, महसूस करने और अनुभव करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।”

अपने चट्टानी परिदृश्य और देशी पौधों के साथ, ‘अरणा झरणा’ एक अलग तरह का संग्रहालय है (फोटो – रूपायन संस्थान के सौजन्य से)

प्रदर्शित वस्तुओं की तरह ही विषयगत प्रस्तुति भी अनोखी है।

एक प्रसिद्ध लोक कथाकार, लेखक और रूपायन के सह-संस्थापक विजयदान देथा के साथ कोमल कोठारी ने संस्कृति का दस्तावेजीकरण करने के लिए एक पद्धति बनाई।

भोजन का प्रदर्शन भी संग्रहालय का एक बड़ा हिस्सा है।

राजस्थान में तीन प्रमुख खाद्य क्षेत्र हैं – राजस्थान के दो-तिहाई हिस्से में बाजरा उगाया जाता है, उसके बाद मक्का उगाया जाता है। ज्वार पूर्वी राजस्थान के कुछ भागों में उगाया जाता है। संग्रहालय के प्रत्येक खंड में इन खाद्य क्षेत्रों के आधार पर तीन भाग हैं।

प्रदर्शित झाड़ू इन खाद्य क्षेत्रों में उगने वाली घास से बनाई गई हैं, इसलिए प्रत्येक का उस क्षेत्र के मूल बनावट, डिजाइन और शैली अद्वितीय हैं।

कोठारी ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “हम अक्सर संस्कृति को अपनी प्रशासनिक सीमाओं के माध्यम से परिभाषित करते हैं। लेकिन संग्रहालय के संस्थापकों का मानना था कि संस्कृति उस भोजन पर निर्भर करती है, जो किसी विशेष क्षेत्र में उगाया और खाया जाता है। जरा सोचिए, हमारे सभी मेले, त्योहार और उत्सव फसल और भोजन से जुड़े हुए हैं।”

बुनियादी, बाहरी नहीं

ग्रामीण घरों के बाहर लकड़ी की बाड़ में झाड़ू किस तरह फिट बैठती है, यह देखा जा सकता है। एक खंड घरों के बाहरी हिस्से में उपयोग होने वाली ‘नर’ झाड़ू (बंगरा और हवार्नो) के लिए है, और एक ‘मादा’ झाड़ू (बुहारी और हवारनी) के लिए है, जो सिर्फ घरों के अंदर उपयोग की जाती है।

उनकी बनावट, आकार और प्रयोग घास उपयोग के अनुसार अलग-अलग होते हैं। ‘नर’ झाड़ू बाहर की सख्त सतहों के लिए बनाई जाती हैं और ‘मादा’ झाड़ू अंदर की नरम, बनावट वाली और विस्तृत सतहों के लिए बनाई जाती हैं। घास की किस्म सतह से तय होती है।

प्रदर्शित वस्तुओं के लिए खण्ड ग्रामीण घरों की तरह डिजाइन किए गए हैं (फोटो – रूपायन संस्थान के सौजन्य से)

कुछ खास तरह की झाड़ू बनाने में उपयोग की जाने वाली कला भी सामने आती है। तीसरे खण्ड में एक ‘कावड़’ (स्थानीय देवताओं की दृश्य कथाओं का बयान करता लकड़ी का बना पोर्टेबल उपकरण) झाड़ू की सामग्री के रूप में उपयोग की जाने वाली सभी घासों को प्रदर्शित करता है।  

झाड़ू के माध्यम से जीवनशैली को समझना

झाड़ू के इर्द-गिर्द एक पूरी जीवनशैली का पता चलता है।

डिज़ाइन के एक उत्साही के रूप में मैं झाड़ू की बारीकियों से मंत्रमुग्ध हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक साधारण सी झाड़ू के पीछे इतना कुछ हो सकता है।

जलवायु के हालात स्वरूप को प्रभावित करते हैं। तीन खाद्य क्षेत्रों, जैव विविधता और मानव उपयोग के दृष्टिकोण से किसी वस्तु को समझने से कहानियाँ और मान्यताएँ समझ में आती हैं।

संग्रहालय के कार्यवाहक और मार्गदर्शक नरपत सिंह राठौड़ कहते हैं – “यह सिर्फ झाड़ू नहीं है। इसके माध्यम से, इसका उपयोग करने वाली महिला को देखा जा सकता है, उसके जीवन को समझा और देखा जा सकता है।”

सड़क के किनारे बांस की झाडू लगाई जाती है। जयपुर की झाड़ू स्थानीय घास ‘बन्नी’ की टहनियों से बनती है, और ताड़ से बनी झाड़ू मेवाड़ से आती है।

संग्रहालय देखने आए एक युवा पेशेवर, सुदर्शन भाटी ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “डिज़ाइन के एक उत्साही के रूप में मैं झाड़ू की बारीकियों से मंत्रमुग्ध हूँ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि एक साधारण सी झाड़ू के पीछे इतना कुछ हो सकता है। आप कुछ ऐसे मंदिरों के बारे में जानते हैं, जहां त्वचा रोगों को ठीक करने के लिए झाड़ू चढ़ाई जाती है, लेकिन यहां एक ग्रामीण की दिनचर्या की प्रमुख गतिविधियों से इसके संबंध का पता चलता है।” 

बच्चों के लिए मिट्टी के बर्तन, कठपुतली और कार्यशालाएँ

संग्रहालय में प्रदर्शित अन्य वस्तुएं भी ग्रामीण जीवन की बुनियादी बातों से संबंधित हैं:मिट्टी के बर्तनों की परम्परा, पश्चिमी राजस्थान के मूल दुर्लभ संगीत वाद्ययंत्रों का संग्रह और कहानी कहने में उपयोग की जाने वाली विभिन्न प्रकार की कठपुतलियाँ। आयोजनों में संगीतकार और स्थानीय लोग शामिल होते हैं।

आने वाले लोगों के अनुसार संग्रहालय का अलग-अलग निर्धारण भी किया जाता है।

कोठारी कहते हैं – “जब वनस्पति विज्ञान के छात्र आते हैं, तो हम खास घास और झाड़ू के रेशे को तैयार करने के बारे में बात करते हैं। माध्यमिक विद्यालय के छात्रों के लिए हम मंडला कार्यशालाएं आयोजित करते हैं। छोटे बच्चे आकर चक्की का इस्तेमाल करते हैं। आईआईटी-जोधपुर के साथ मिलकर हमने अपने मिट्टी के प्रदर्शित बर्तनों के पारम्परिक ज्ञान के आधार पर, एक जल शुद्धिकरण प्रणाली बनाई।”

लेकिन संग्रहालय विशेष रूप से बच्चों के लिए तैयार किया गया है।

संग्रहालय के कार्यक्रमों की समन्वयक, अनीता कोठारी कहती हैं – “यदि उन्हें बचपन में इन विचारों से अवगत कराया जाए, तो वे जीवन भर इस परम्परा को आगे बढ़ाएंगे। हम एक ऐसा ज्ञान साझा करना चाहते हैं, जो हम तक ही सीमित नहीं है, यह लोगों का है।”

लेख की मुख्य फ़ोटो में ‘अरणा झरणा’ संग्रहालय का विहंगम दृश्य दिखाया गया है (फोटो – रूपायन संस्थान के सौजन्य से)

शेफाली मार्टिंस अजमेर, राजस्थान में स्थित एक स्वतंत्र लेखिका हैं। चरखा फीचर्स के माध्यम से प्रकाशित। अपना फीडबैक features@charkha.org पर साझा करें।