आदिवासी महिलाओं को घर पर सुरक्षित प्रसव का प्रशिक्षण

कालाहांडी, ओडिशा

दूरदराज के आदिवासी इलाकों में, जहां अस्पताल घंटों की दूरी पर हैं, सुरक्षित तरीके से पारम्परिक प्रसव करवाने में प्रशिक्षित सहायिकाओं की बदौलत, महिलाएं घर पर ही अपने बच्चों को सुरक्षित रूप से जन्म देती हैं।

शहरों और कस्बों की महिलाओं के लिए बच्चे के जन्म का मतलब है, कार में बैठना और अस्पताल के लिए भागना।

लेकिन बहुत से आदिवासी इलाके इतने सुदूर हैं कि सबसे नजदीकी अस्पताल मीलों और घंटों की दूरी पर है, जैसे कि वहां, जहां मैं ‘स्वास्थ्य स्वराज’ नाम के एक गैर-लाभकारी संगठन में काम करती हूँ। 

हालाँकि 100% संस्थागत प्रसव हासिल करना व्यावहारिक रूप से संभव नहीं है, हम यह सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि प्रत्येक माँ को कुशल देखभाल मिले। टीम मातृ एवं नवजात मृत्यु दर को कम करने के लिए प्रयासरत है।

वास्तव में मृत्यु दर को कम करने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य रणनीति यह सुनिश्चित करना है कि सभी जन्म स्वास्थ्य सुविधाओं में हों, ताकि जटिलताएँ पैदा होने पर उनका तुरंत इलाज किया जा सके।

पारम्परिक प्रसव सहायिका गुरुबारी दिखाती हैं कि वह घर पर होने वाले प्रसव को कैसे संभालती हैं (छायाकार – रक्षिका)

‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’ (NFHS) के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत में संस्थागत प्रसव 2004 के 43% से बढ़कर 2014 में 83% हो गया। लेकिन ज्यादातर राज्यों में ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत कम है।

दूरी, कठिन इलाका, अस्पतालों की अनुपलब्धता और धन के अभाव के कारण ओडिशा के कालाहांडी में आदिवासी लोगों के लिए संस्थागत प्रसव का लाभ उठाना मुश्किल हो जाता है।

हमारी रणनीतियों में से एक पारम्परिक प्रसव सहायिकाओं (दाइयों) के पीढ़ियों के अनुभव और पारम्परिक ज्ञान का लाभ उठाना है। समय के साथ, हम अपने कार्यक्षेत्र के सभी गांवों में दाइयों की पहचान करने में सफल हुए हैं।

दाइयों की भूमिका

दाइयां वे महिलाएं हैं, जो वर्षों से प्रसव-सहायिकाओं का काम कर रही हैं। हम उन्हें सुरक्षित और स्वच्छ प्रसव कराने और उन लक्षणों की पहचान करने में प्रशिक्षित करते हैं, जो जोखिम भरे हो सकते हैं। हम दाइयों के तरीकों को समझने के लिए उनके साथ सहयोग करते हैं और जो वे करते हैं उसे थोड़ा बेहतर तरीके से करने में उनकी मदद करते हैं।

जैसे कि हमारी रॉक स्टार्स में से एक, कालाहांडी जिले के थुआमूल रामपुर ब्लॉक के बुतरीगुड़ा गांव की गुरुबारी परभोई, जिन्होंने 50 से ज्यादा प्रसव में सहायता की है।

उन्होंने प्रदर्शित किया कि वह कैसे घर पर प्रसव में गर्भवती माताओं की सहायता करती हैं। तैयारी के हिस्से के रूप में, वह अपने नाखून काटती हैं, अपने हाथ अच्छी तरह धोती हैं और एहतियात के तौर पर दस्ताने पहनती हैं।

‘स्वास्थ्य स्वराज’ कालाहांडी में आदिवासी महिलाओं को बच्चे को जन्म देने की पूरी प्रक्रिया के बारे में शिक्षित करने के लिए, चिकित्सकों और सामाजिक वैज्ञानिकों के साथ मिलकर काम करती है (छायाकार – रक्षिका)

गुरुबारी परभोई, जिन्हें हम सब प्यार और आदर से गुरुबारी दीदी कहते हैं, माँ के जननांगो को गुनगुने पानी और स्पंज से साफ करती हैं। फिर वह माँ को अपने बच्चे को बाहर धकेलने में मदद करती हैं। वह सावधानीपूर्वक माँ के पेट की मालिश करती हैं और उन्हें शांत रखने में मदद करती हैं।

उन्हें इस बात पर गर्व है कि वह कितने आराम से और सावधानी से बच्चे को बाहर निकालती हैं।

बच्चे को बाहर निकालने के बाद वह बच्चे को एक साफ सूती कपड़े में लपेटती हैं और बच्चे को माँ की छाती पर रख देती हैं। उसके बाद वह नाल को बाहर निकालने का काम शुरू कर देती हैं, जिसमें कुछ मिनट से एक घंटे तक का समय लग सकता है।

प्लेसेंटा हटा देने के बाद गुरुबारी दीदी उसे काट देती हैं। यहां वह नाल बांधने की जटिल विधि को आसानी से प्रदर्शित करती हैं। फिर वह बच्चे की आंखें, नाक और कान साफ करती हैं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कुछ चिपका तो नहीं रह गया है। बच्चे को ध्यान से साफ करने के बाद, वह बच्चे को एक साफ कपड़े में लपेट देती हैं।

प्रसव बाद की देखभाल

अब जब बच्चे के जन्म का सक्रिय भाग पूरा हो गया है, तो गुरुबारी दीदी शिशु का जन्म के समय वजन और ऊंचाई दर्ज करने के लिए, एक ‘स्वास्थ्य साथी’ (पैरा-स्वास्थ्य कार्यकर्ता) और एक कर्मचारी की मदद लेती हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि कोई खतरे का संकेत तो नहीं है, वह एक बार फिर माँ और बच्चे को ध्यान से देखती हैं।

कई बार ऐसा होता है, जब उनके दौरे के समय कोई जटिलता सामने आने पर उन्होंने माँ और बच्चे को हमारे क्लिनिक में रेफर किया है।

गुरुबारी दीदी मुझे बताती हैं कि उनकी भूमिका यहीं ख़त्म नहीं होती। वह नवजात शिशु की देखभाल के बारे में सलाह देने के लिए, पहले कुछ हफ्तों में अक्सर नव-माता से मिलने आती हैं।

कई बार ऐसा होता है, जब उनके दौरे के समय कोई जटिलता सामने आने पर उन्होंने माँ और बच्चे को हमारे क्लिनिक में रेफर किया है।

पारम्परिक दाइयों का प्रशिक्षण और एकीकरण

अपने गांवों की दाइयों से मेरी बातचीत से मैंने समझा है कि गुरुबारी दीदी जैसी दाइयों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए। उन्हें समुदाय द्वारा स्वीकार किया जाता है, और उनके समुदायों में उनका बहुत सम्मान और आदर है।

गुड़ियों की मदद से पारम्परिक दाइयां बताती हैं कि एक बच्चे और उसकी नाल का प्रसव कैसे होता है (छायाकार – रक्षिका)

‘स्वास्थ्य स्वराज’ ने समुदायों में पैठ बनाने, और माताओं और नवजात शिशुओं के स्वास्थ्य एवं पोषण में सुधार के लिए दाइयों के साथ काम किया है।

दाइयों को अपनी स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था से जोड़ना और उन्हें जरूरी पेशेवर प्रशिक्षण और सहायता प्रदान करना पिछले सात वर्षों में बेहद फायदेमंद रहा है।

स्वास्थ्य क्षेत्र में मानव संसाधन की कमी को दूर करने और मातृ एवं शिशु मृत्यु दर को कम करने के लिए, शायद इसी तरह के मॉडल का राष्ट्रीय स्तर तक विस्तार किया जा सकता है।

दाइयों को प्रशिक्षित करना, नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र के लिए तेज रेफरल व्यवस्था स्थापित करना और उन्हें औपचारिक स्वास्थ्य देखभाल व्यवस्था में एकीकृत करना फायदेमंद होगा, विशेष रूप से दूरदराज और दुर्गम क्षेत्रों में।

मुख्य छवि में एक युवा माँ और उसके बच्चे को दिखाया गया है, जो सुरक्षित प्रसव के महत्व को दर्शाता है (फोटो – एंड्रयू खान, ‘अनस्प्लैश’ से साभार)

रक्षिका पी एक इंडिया फेलो (2021) हैं, जो जनजातीय स्वास्थ्य और पोषण कार्यक्रम में सहयोग के लिए चिकित्सकों और सामाजिक वैज्ञानिकों के साथ काम कर रही हैं।