महिला नेताओं को ‘महिला सरपंच’ कहना अच्छा या बुरा?

कच्छ, गुजरात

महिला नेताओं को लैंगिक आधार पर पहचानना, जैसे 'महिला सरपंच' एक प्रतिगामी कदम लगता है, लेकिन एक विकास-कार्यकर्ता इसे महिलाओं द्वारा नेता बनने में आने वाली चुनौतियों को स्वीकार करने के रूप में देखता है।

कच्छ जिले में बैठकों, प्रशिक्षण सत्रों में भाग लेने और स्थानीय सरकारी प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करते समय, मैं सोच में पड़ गई… महिलाएँ कहाँ हैं?

बेशक लम्बे समय से ‘सरपंच पति’ या ‘ग्राम प्रधान पति’ हैं, जहां एक चुनी हुई महिला प्रतिनिधि का पति ही उसके सारे कामकाज करता है। यह इतना आम है कि इस नाम को छोटा करके SP कर दिया गया है।

लेकिन मैं अभी भी यह समझने की कोशिश कर रही थी कि अपने विचारों, सामाजिक संरचनाओं और पद-क्रम में यह व्यवस्था कैसे काम करती है।

महिलाएं कहां हैं, यह सवाल पूरी तरह से उचित नहीं है, क्योंकि शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में कई महिलाएं अनुकरणीय नेतृत्व कर रही हैं।

लेकिन मेरा सवाल यह था कि उन्हें ‘महिला सरपंच’ कहा जाता है।

क्यों?

हमें उसके व्यवसाय को लैंगिकता से क्यों जोड़ना चाहिए?

हम एक पुरुष प्रतिनिधि को तो ‘पुरुष सरपंच’ नहीं कहते। तो क्यों न सिर्फ यह कहा जाए – ” वडासर ग्राम पंचायत की सरपंच अनुकरणीय है।”

मुझे अहसास होने लगा कि शायद किसी महिला की विपरीत परिस्थितियों पर जीत को स्वीकार करना एक महत्वपूर्ण पहला कदम है?

यह मुझे समानता के लिए लंबे संघर्ष में एक कदम पीछे हटने जैसा लगा, ताकि महिलाओं को, अधिक नहीं तो पुरुषों के समान ही सक्षम माना जा सके।

लैंगिक असमानताओं से निपटना

लेकिन फिर मुझे यह एहसास होना शुरू हुआ कि शायद एक महिला की उनके सामने आने वाली बाधाओं पर जीत को स्वीकार करना एक महत्वपूर्ण पहला कदम है?

शायद महिला सरपंच के रूप में पहचान, पुरुष-उच्च वर्ग के वर्चस्व वाले स्थान में अपने लिए जगह बनाने के उनके संघर्ष की पुनर्प्राप्ति का एक तरीका है?

मोती नागलपुर की सरपंच, रमीला बेन एक महिला सभा बैठक के बाद विधवा पेंशन जैसी महिलाओं की समस्याओं को संबोधित करते हुए (छायाकार – शेफाली गुप्ता)

लेकिन जो उभर कर आता है, वही है जिसकी हम भेदभाव के अपने पदानुक्रम में सबसे महत्वपूर्ण के रूप में व्याख्या करते हैं।

मेरे लिए यह लैंगिकता है। 

वर्ग, जाति-आधारित या सांप्रदायिक भेदभाव का सामना करने वाले लोग इसे सबसे बुरे के रूप में देख सकते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई दूसरे से नीचे या ऊपर है, बल्कि यह विभिन्न दृष्टिकोणों को स्वीकार करने का मामला है।

प्रेरक महिला नेताओं की तलाश

तो मैं जानना चाहती थी कि क्या पुरुष और महिला वार्ड सदस्यों की संख्या बराबर है? क्या काफी महिलाओं के बारे में लिखा जा रहा है? जिस पंचायत के बारे में मैं लिख रही हूँ, क्या वह महिला सभा संचालित करती है – जैसा कि गुजरात सरकार द्वारा 2021 अनिवार्य किया गया था – ताकि महिलाएं उन मुद्दों पर चर्चा कर सकें, जिन्हें वे शायद ग्राम सभा में नहीं उठा सकती?

(पढ़ें: स्थानीय शासन में महिलाएं कहां हैं?)

इन प्रश्नों की तलाश में, मैं प्रेरक महिलाओं और युवा लड़कियों से मिलने चली गई।

एक सरपंच, जिसने यह सुनिश्चित किया कि कोविड लॉकडाउन के समय प्रत्येक प्रवासी कोलकाता में अपने घर पहुंच जाए, से दूसरी सरपंच तक, जिसने अपना घर मास्क सिलाई के लिए कार्यशाला के रूप में इस्तेमाल करने के लिए दे दिया – ऐसी अनगिनत कहानियां हैं, जहां महिलाएं उन गुणों का प्रदर्शन करती हैं, जिन्हें कोई नेताओं में देखना चाहता है।

स्थानीय शासन में महिलाओं की अनुपस्थिति

फिर भी, ऐसे उदाहरण हैं, जहां एक भी महिला अनिवार्य सामाजिक न्याय समिति की बैठक या प्रशिक्षण में भाग नहीं ले रही थी, जिसका उद्देश्य समाज के सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों को शामिल करना सुनिश्चित करना है। इसमें एससी/एसटी समुदाय की एक महिला सदस्य को 3-5 सदस्यीय समिति का हिस्सा होना अनिवार्य है।

अंजार में, पीआरआई फैसिलिटेटर एवं कच्छ महिला विकास संगठन की सदस्य, लता सचदेवा ने बदलाव लाने के लिए किशोरियों और उनकी माताओं के साथ एक बैठक आयोजित की (फोटो – लता सचदेवा साभार)

हालांकि महिलाओं की भागीदारी एक जरूरत की तरह लग सकता है, जिसका सामाजिक न्याय के रूप में वर्णन किया गया है। लेकिन कच्छ के इलाके की अनूठी सामाजिक परम्पराओं और संस्कृतियों के साथ तालमेल रखते हुए, यह शायद ही कभी किया जाता है।

हालांकि कागज पर शासनादेश होते हैं, लेकिन उन्हें शायद ही कभी अमल में लाया जाता है।

इसका कारण जागरूकता पैदा करने के माध्यम, स्थानीय लोगों की भागीदारी और सामुदायिक संबंधों पर निर्भर करता है।

अपवाद, जो साबित करते हैं कि समानता काम कर सकती है

जो संगठन समुदाय के साथ सम्मानपूर्वक और दृढ़ संकल्प के साथ काम करते हैं और इस तथ्य को समझते हैं कि प्रक्रियाओं में समय लगता है, वे कुछ बड़े बदलाव लाए हैं।

यह स्वीकार करने की जरूरत है कि महिला नेता कई चुनौतियों पर काबू पा रही हैं (छायाकार – शेफाली गुप्ता)

महिला सभा में आमंत्रित करना तो दूर, महिलाओं से बात तक करने के लिए बहुत विश्वास बनाने की जरूरत होती है। 

परिवारों को ऐसी समावेशी बैठकों के बारे में समझाने में वर्षों लग जाते हैं, जिनमें युवा लड़कियाँ और लड़के दोनों होते हैं, जिसे बुजुर्गों ने अनुभव नहीं किया होता या पूरी तरह से नहीं समझा होता।

लेकिन जब ऐसे प्रयास किए जाते हैं तो आप आशा कर सकते हैं कि एक युवा महिला भुज की नगर पालिका का चुनाव लड़ेगी, या किशोरियों की सभा की एक लड़की यह कहेगी कि वह दसवीं कक्षा की बोर्ड परीक्षा फिर से देना चाहती है और अंततः सिविल सेवाओं में जाना चाहती है।

प्रगति की धीमी गति

शायद ये छोटे बदलाव जो मैंने देखे और साझा किए हैं, वे पहले कदम हैं, जिन्हें स्वीकार किया जाना चाहिए।

क्योंकि बदलाव में समय लगता है। 

पहले से हासिल किए गए हर छोटे कदम को हो चुका और एक आधार रेखा मान लिया जाता है और अगले मील के पत्थर को हासिल करने के लिए उस पर काम किया जाता है।

आप यह उम्मीद नहीं कर सकते कि हर बैठक में बराबर प्रतिनिधित्व होगा या हर दूसरा या तीसरा सरपंच एक महिला होगी।

हो सकता है ‘हस्तक्षेप’ और ‘क्षमता निर्माण’ जैसे भारी शब्द शुरू में ज्यादा मायने ना रखें, लेकिन कुछ वर्षों में इनका प्रभाव पड़ेगा।

जब मेरे जैसा कोई बाहरी व्यक्ति, एक से अधिक महिलाओं को प्रशिक्षण सत्र में भाग लेते देखता है, तो उन्हें हैरानी हो सकती है कि महिलाएं समिति की अध्यक्षता क्यों नहीं कर रही हैं।

हालाँकि, विचार यही है।

यह कि पहले से हासिल किए गए हर छोटे कदम को हो चुका और एक आधार रेखा मान लिया जाता है और अगले मील के पत्थर को हासिल करने के लिए उस पर काम किया जाता है।

क्योंकि आख़िरकार, दृष्टिकोण, लक्ष्य और यहां तक कि नीतियां (महिला सभा के विचार की तरह), समय-समय पर खुद को फिर से संगठित करती हैं, विशेषकर जब लैंगिकता और स्थानीय शासन की बात आती है।

मुख्य फोटो में दिखाया गया है कि संगठन स्थानीय महिलाओं का विश्वास जीतने के लिए कैसे काम करते हैं, अक्सर वर्षों तक, उन्हें स्थानीय प्रशासन में ज्यादा सक्रिय होने के लिए प्रोत्साहित करते हैं (फोटो – टीम सेतु अभियान के सौजन्य से)

शेफाली गुप्ता एक इंडिया फेलो (2020) हैं, जिन्होंने स्थानीय शासन के भीतर पैरवी को बढ़ावा देने के लिए सर्वोत्तम पद्धतियों के दस्तावेजीकरण और जमीनी अनुसंधान को क्रियान्वित किया। वह अब ओडिशा के कारीगरों के साथ अपने स्वयं के सामाजिक उद्यम ‘निजस्व’ का नेतृत्व करती हैं।