व्यंजन-सूची में मछली: उलटे प्रवास, कुपोषण और ओडिशा के आदिवासियों की कहानी

मल्कानगिरी, ओडिशा

ओडिशा में मल्कानगिरि के युवा आदिवासियों ने घर पर ही लाभदायक आजीविका मिलने से, काम की तलाश में होने वाले प्रवास को छोड़ दिया, जिससे मछली उत्पादन को बढ़ावा देने और कुपोषण से लड़ने में मदद मिली है।

वर्षों से हर सुबह सूरज की सुनहरी किरणें, मल्कानगिरि की पहाड़ियों की लगभग खाली पड़ी आदिवासी बस्तियों पर पड़ती थी।

सूर्योदय हमेशा की तरह जादुई थे, लेकिन अजीब तरह से शांत और एकाकी थे।

इस दक्षिणी ओडिशा जिले के गरीबी प्रभावित गांवों से युवाओं का एक बड़ा समूह पड़ोसी राज्य आंध्र प्रदेश के शहरों में बहुत कम या बिना वेतन के मामूली श्रम करने के लिए गया था। मछली के कांटे की बैरल की तरह मुड़े हुए लोगों ने प्रवासी मजदूरों के रूप में अपने कठिन जीवन को निर्धारित किया।

चित्रकोंडा ब्लॉक के सिंधिगुगा गाँव के श्यामानंद कुआसी यह सब अच्छी तरह से जानते हैं।

लेकिन उनकी और बहुत से आदिवासी पुरुषों की कठोर पृष्ठभूमि की कहानी, जो शहर में मजदूरों के रूप में कड़ी मेहनत के लिए अपने गाँव छोड़ते थे, यहीं समाप्त होती है।

एक समय पर परखी भोजन-परम्परा, मछली के प्रति ओडिया प्रेम की बदौलत, एक नई, खूबसूरत कहानी शुरू होती है।

कुआसी जैसे युवा अब काम के लिए पलायन नहीं करते, क्योंकि वे मछली का चारा बना कर अच्छा पैसा कमाने में सक्षम हैं (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

हर अवसर के लिए मछली उपलब्ध है – नियमित, घरों में पकाई जाने वाली तरकारी ‘माछ तरकारी’, शादियों के लिए सरसों का ‘माछ बेसरा’ ग्रेवी, समुद्र तट की झोंपड़ियों में परोसा जाने वाला कुरकुरा डीप-फ्राइड ‘माछा भाजा’ या मछली के सिर और सब्जियों के साथ परोसा गया ‘माछ छींछड़ा’।

जैसे मछली के लिए जल

यह कहा जा सकता है कि मछली ने कुआसी जैसे लोगों को आधुनिक गुलामी के दलदल से बाहर निकालने में अपनी भूमिका निभाई है।

मछली उत्पादन को बढ़ावा देने से कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में क्रांतिकारी बदलाव आएगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।

वह और उनकी पत्नी अब मछली का चारा तैयार करते हैं और इसे उचित मूल्य पर किसानों को बेच रहे हैं।

यह बदलाव 2020 में हुआ, जो महामारी के कारण लगाए गए लॉकडाउन का साल था, जब दुनिया कोविड-19 तूफान से बाहर निकलने की तैयारी कर रही थी।

नौकरियाँ ख़त्म हो गईं और कुआसी को राज्य की राजधानी भुवनेश्वर से 650 किलोमीटर से ज्यादा दूरी पर दक्षिण-पश्चिम के अपने गाँव में रहना पड़ा।

सौभाग्य से सरकार ने हस्तक्षेप किया और कुआसी ने उस साल मल्कानगिरि में आयोजित एक आवासीय प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लिया ।

इसका आयोजन जिला मत्स्य विभाग द्वारा ग्रामीण समुदायों के लिए आजीविका के विकल्प खोलने और मजबूरी के प्रवास को रोकने के लिए किया गया था।

कुआसी कहते हैं – “इससे मुझे आशा मिली। मुझे मछली चारा उत्पादन इकाई स्थापित करने के लिए 138,300 रुपये मिले।”

फिर वह धन और मूंगफली और सरसों की भूसी की खली, सोयाबीन, चावल की भूसी, बाजरा, मक्का, खाद्य तेल और एक खनिज मिश्रण जैसे कच्चे माल की आपूर्ति से लैस होकर युद्ध के लिए निकल पड़े।

उन्हें तिरपाल, कंटेनर और बैग के साथ-साथ एक ऐसी मशीन भी मिली, जो एक घंटे में 35 किलोग्राम चारा तैयार कर सकती थी।

कड़ी मेहनत और लगन से परिणाम यह निकला कि कुआसी और उनकी पत्नी सैबाती ने पिछले छह महीनों में मछली का चारा बेचकर लगभग 50,000 रुपये कमाए।

सरकार से मिली आर्थिक सहायता से, आदिवासी युवाओं ने मछली चारे का उत्पादन करने के लिए इकाइयां स्थापित की हैं (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

आंध्र प्रदेश में एक प्रवासी मजदूर के रूप में, वह अपनी मामूली कमाई से कुछ भी बचाने में असमर्थ थे और “अक्सर घरेलू खर्च चलाने में विफल रहते थे।”

वे दिन अब एक दूर पीछे रह चुका दुःस्वप्न बन गये थे।

वह कहते हैं – ”मुझे दोबारा आंध्र प्रदेश जाने की जरूरत नहीं है।”

मछली पकड़ना सिखाओ

मछली के साथ ओडिशा के प्रेम संबंध को जानने के लिए, समय में पीछे मुड़कर देखें।

यह एक समुद्र तटीय राज्य है और अनगिनत वर्षों से मछुआरे समुद्र में मछली पकड़ते आ रहे हैं – उगते सूरज के साथ निकलना और सूर्यास्त से पहले अपनी ताजा मछली पकड़कर लौट आना।

साथ ही, नदियों, झरनों और तालाबों की प्रचुरता ने मीठे पानी की मछली की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित की।

चारों ओर से जमीन से घिरा और समुद्र से दूर, मल्कानगिरी का यह गांव ‘जल बिन मछली’ जैसा लग सकता है। लेकिन असल में ऐसा नहीं है। 

मल्कानगिरी जिले में जल निकाय इस भीतरी इलाके में मछली पालन के लिए एक बड़ी गुंजाइश प्रदान करते हैं (फोटो – कान्हू बेहेरा, ‘अनप्लैश’ से साभार)

इसकी पहाड़ियों और मैदानों से हो कर कई नदियां गुजरती हैं, और छोटे-बड़े, प्राकृतिक-मानव निर्मित तालाबों की एक श्रृंखला भूदृश्य बनाते हैं।

जिला मत्स्य अधिकारी, नरसिंह मुंड का कहना है कि मल्कानगिरी में मछली पालन की बहुत बड़ी संभावना है।

लेकिन एक अड़चन है। 

पात्रा कहते हैं – “छोटे किसान महंगा चारा नहीं खरीद सकते।” इसके फलस्वरूप उत्पादन कम होता है। 

इस चुनौती से निपटने के लिए मत्स्य विभाग ने मछली चारा उत्पादन कार्यक्रम शुरू किया।

मल्कानगिरी के सहायक मत्स्य अधिकारी, मुकेश माझी कहते हैं – “किफायती मछली फ़ीड बनाने पर फील्ड प्रदर्शन आयोजित किए गए।”

सफल उद्यमियों को विभिन्न फ़ीड प्रोसेसिंग मशीनरी के सुचारू संचालन और प्रबंधन के लिए मत्स्य पालन और तकनीकी विशेषज्ञों के साथ बातचीत करने के लिए भी प्रोत्साहित किया गया।

कृषि एवं किसान सशक्तिकरण विभाग द्वारा शुरू किए गए एक प्रमुख कार्यक्रम, ‘एकीकृत खेती को बढ़ावा देने के लिए विशेष कार्यक्रम’ में इंजीनियर, सौम्य रंजन माझी कहते हैं – “हमने सहकर्मी-शिक्षण के तरीके को बढ़ावा दिया।”

इस प्रयास में स्वैच्छिक संगठन भी शामिल हो गए, जो अक्सर नौसिखिये लोगों की मदद करते थे। उन्हें असेंबली लाइन के हर चरण – उत्पादन, पैकेजिंग और मार्केटिंग आदि – के बारे में सिखाया जाता है।

मछली चारे के स्थानीय उत्पादन ने इसे मछली पालन में रुचि रखने वाले किसानों की पहुँच में ला दिया है (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

कुआसी दंपत्ति ने 2021 में इकाई स्थापित करने के बाद से, 30 क्विंटल से ज्यादा मछली चारे का उत्पादन किया है। शुरू में, उन्होंने अपने उत्पाद की कीमत 35 रुपये प्रति किलो रखी।

सैबाती कहती हैं – “अब हम एक किलोग्राम 40 रुपये में बेचते हैं। लोग हमारी गुणवत्ता की सराहना करते हैं।”

आसपास की पंचायतों के मछली पालक, दूर मल्कानगिरी जिला मुख्यालय तक जाने की बजाय, कुआसी से मछली चारा खरीद रहे हैं।

कोरकुंडा के ‘चासी भाई’ किसान उत्पादक संगठन के मुख्य कार्यकारी अधिकारी, संजय मोहराणा कहते हैं – “हमने 4,000 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से 20 क्विंटल का ऑर्डर दिया है।”

बड़ी मछली पकड़ो

उच्च गुणवत्ता, लेकिन किफायती चारा कई प्राथमिकताओं से जुड़ा है: मछली पालन से आय अर्जित करना, स्थानीय कार्यबल के पलायन को रोकना और कुपोषण कम करना।

खैरपुट ब्लॉक की एक मछली पालक, सीबा डोरा कहती हैं – “जब से हमने अपनी मछलियों को पर्याप्त मात्रा में भोजन देना शुरू किया है, तब से उत्पादन बढ़ गया है। हम ज्यादा कमा रहे हैं।”

कनिष्ठ मत्स्य तकनीकी सहायक, कैलाश चंद्र पात्रा के अनुसार, व्यवसाय लागत का 60 प्रतिशत चारे पर होती है। तेज बढ़ोत्तरी के लिए अनुपूरक आहार महत्वपूर्ण है, जो तालाब के सीमित प्राकृतिक पोषक तत्वों से नहीं मिल सकता है।

स्थानीय मछली चारा उत्पादन न केवल पलायन पर अंकुश लगाता है, बल्कि आदिवासी लोगों को स्थानीय रूप से पैदा मछली के उपभोग में भी मदद करता है (छायाकार – अभिजीत मोहंती)

मछली फार्मों और संबद्ध व्यवसायों से बढ़ती आय ने मजदूरों के पलायन को उलट दिया है।

पार्कंडमाला पंचायत के वार्ड सदस्य, अर्जुन टाटू कहते हैं – “पर्याप्त, किफायती और गुणवत्तापूर्ण मछली चारे की उपलब्धता ने युवाओं को व्यावसायिक मछलीपालन से अपनी आजीविका कमाने के लिए प्रेरित किया है।”

मछली-युक्त पौष्टिक आहार

लोगों को ज्यादा मछली खाने के लिए भी प्रोत्साहित किया जाता है।

थाली में ‘माछ’ अल्पपोषण को दूर रखता है। मल्कानगिरी के लिए मंत्र प्रतीत होता है, जहां पांचवे ‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’, 2019-20 के अनुसार, पांच साल से कम उम्र के लगभग 44 प्रतिशत बच्चे अविकसित हैं, 41 प्रतिशत कम वजन वाले हैं और 19 प्रतिशत कमजोर हैं। इसी तरह 71 प्रतिशत महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं।

उच्च गुणवत्ता वाले प्रोटीन, ओमेगा-3 फैटी एसिड, विटामिन, कैल्शियम, फॉस्फोरस और कई प्रकार के खनिजों से भरपूर मछली, एक अद्भुत भोजन है।

जिला कलेक्टर विशाल सिंह कहते हैं – “घरेलू उपभोग और स्थानीय बाजारों के लिए मछली उत्पादन को बढ़ावा देने से कुपोषण के खिलाफ लड़ाई में क्रांतिकारी बदलाव आएगा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी।”

मुख्य फोटो में मछली के पकवान की एक प्लेट दिखाई गई है, जिसके प्यार ने ओडिशा के आदिवासी युवाओं के पलायन को रोक दिया है (फोटो – अभिक पॉल, ‘अनस्प्लैश’ से साभार)

अभिजीत मोहंती भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं।