आदिवासी माताओं के काम में सहायक शिशुगृह

कंधमाल और रायगढ़, ओडिशा

आदिवासी बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार लाने और महिलाओं को अपने छोटे बच्चों की चिंता किए बिना वनोपज इकट्ठा करने में मदद करने के लिए, ओडिशा सरकार ने बच्चों के लिए शिशुगृह (क्रेश) शुरू किए हैं।

हर रोज सुबह 7:30 बजे, एक 40-वर्षीय आदिवासी महिला माजेवारी वडाका अपने पति के साथ जंगल में फलों की तलाश में जाने से पहले, अपनी सबसे छोटी बेटी को शिशुगृह में छोड़ती हैं। उनकी तीन साल की बेटी, गुड्डी, जो पहले उनका साथ छोड़ने से इनकार कर देती थी, ने अब हाल ही में गाँव में शुरू हुए इस डेकेयर सेंटर में अन्य आदिवासी बच्चों से दोस्ती कर ली है।

जिन चीजों ने गुड्डी का ध्यान खींचा है, वह हैं चमकीले रंगों से रंगी हुई दीवारें, एक टेलीविजन सेट, एक झूला और एक स्लाइड, एक गद्दा, कंबल और उसकी पसंदीदा रागी का डोसा। लेकिन शिशुगृह में जाने का सबसे रोमांचक हिस्सा अन्य आदिवासी बच्चों के साथ खेलना है।

डोंगरिया कोंध जनजाति की सदस्य के रूप में, वडाका राज्य सरकार द्वारा वर्गीकृत विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूह (पीवीटीजी) से संबंधित हैं।

ओडिशा की कुल आबादी में जनजातियाँ 24% हैं और उनमें पीवीटीजी सबसे कमजोर और हाशिए पर हैं। ओडिशा में पीवीटीजी की संख्या 13 है, जो भारत में सबसे ज्यादा है।

मच्छर के काटने या मौसम के कारण, अधिकांश समय उसे तेज़ बुखार रहता था। हालांकि हमने उसे आश्रय देने के लिए जगह बना दी थी, फिर भी हम लगातार उसके बारे में चिंतित रहते थे।

उरीटा माझी

पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर 17 जगह 61 शिशुगृह शुरू किए गए हैं, जबकि 45 अन्य पाइपलाइन में हैं।

शिशुगृह – आदिवासी माताओं के लिए एक वरदान

रायगड़ा जिले के नियामगिरि हिल्स के खंबेसी गांव की मूल निवासी, चार बच्चों की मां, वडाका दिन के ज्यादातर समय अपने घर से दूर रहती हैं। वह या तो लघु वनोपज इकठ्ठा करती है या खेत में मजदूरी का काम कर रही होती हैं।

शिशुगृह आदिवासी बच्चों के लिए हैं, जिससे माता -पिता को अपने बच्चों की चिंता किए बिना उपज इकट्ठा करने के लिए जंगल में जाने में मदद करते हैं (छायाकार – ऐश्वर्या मोहंती)

वडाका ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “मैं अपने बच्चों को, जो अब 12, 10 और पाँच साल के हैं, अपने साथ जंगल में ले जाती थी, क्योंकि घर पर उनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। सांप या कीड़े के काटने का लगातार डर बना रहता था।”

क्योंकि जंगल तक पैदल जाने और वापस आने में लगभग तीन घंटे लगते हैं, इसलिए वह आमतौर पर शाम 4 बजे तक घर लौटती हैं। ऐसे में शिशुगृह उनके लिए वरदान बनकर आया है। जब वह अपनी बेटी गुड्डी को वहां छोड़ती है, तो वह जानती है कि वह लगातार चिंता किए बिना अपना काम कर सकती हैं।

ऐसी ही भावनाएँ लगभग 100 किमी दूर कंधमाल जिले के बेलघर ब्लॉक के देवगड़ा गाँव में गूंजती हैं। देवगड़ा के शिशुगृह में उर्बिता माझी की बेटी सहित 17 आदिवासी बच्चे हैं।

23-वर्षीय माझी कहती हैं – “मैं आमतौर पर अपनी दो साल की बेटी को अपने साथ जंगल में ले जाती थी। मच्छर के काटने या मौसम के कारण ज्यादातर समय उसे तेज़ बुखार रहता था। हालांकि हमने उसे आश्रय देने के लिए जगह बना दी थी, फिर भी हम लगातार उसके बारे में चिंतित रहते थे।”

जब बच्चों को ले जाना सुरक्षित नहीं था और उन्हें घर पर अकेले नहीं छोड़ा जा सकता था, तो माता-पिता में से एक को बच्चों के साथ घर पर रहना पड़ता था।

खम्बेसी शिशुगृह की कार्यवाहक, बिनती टेकरी बच्चों को नाश्ते में रागी का डोसा परोसती है (छायाकार – ऐश्वर्या मोहंती)

माझी ने कहा – “स्वाभाविक है कि ऐसे में हम काफी उपज इकठ्ठा नहीं कर सके। लेकिन जब वह शिशुगृह में होती है, तो हमें सुबह उसे वहां छोड़ने और दिन ख़त्म होने पर लेने जाने के अलावा कोई चिंता नहीं होती। वह अब उतनी बीमार नहीं पड़ती।”

आदिवासी बच्चों के लिए बेहतर पोषण

सुबह जब माता-पिता बच्चों को शिशुगृह में छोड़ते हैं, तो कुछ रोना लाजिमी है, लेकिन ज्यादातर चेहरे खुश होते हैं। दिन की शुरुआत में बच्चों को रागी खिलाई जाती है। नाश्ते के बाद खेल, टीवी पर कविताएँ देखना, दोपहर का भोजन और झपकी का समय होता है।

बच्चों को तीन बार भोजन दिया जाता है – एक पूरा भोजन और दो बार नाश्ता – जिसमें खजूर, सत्तू, रागी, खिचड़ी, चावल और दाल, पत्तेदार और हरी सब्जियाँ शामिल होती हैं।

ताज़ा भोजन तैयार किया जाता है और गर्म परोसा जाता है। भोजन से उन्हें विकास के लिए आहार की विविधता मिलता है। सप्ताह में पाँच दिन, भोजन में अंडे शामिल होते हैं।

आदिवासी बच्चों को जरूरी पोषण प्रदान करने के उद्देश्य से भोजन की योजना बनाई जाती है (छायाकार – ऐश्वर्या मोहंती)

बेलघर की पोषण प्रबंधक, जशोदा बदनायले ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “उचित पोषण सुनिश्चित करने के लिए बच्चों के लिए भोजन विशेष रूप से तैयार किया जाता है। मौके पर ही भोजन कराने से यह सुनिश्चित होता है कि बच्चे सही मात्रा में भोजन करें और उनका आहार बना रहे।”

बदनायले कहती हैं – “इनमें से कई केंद्रों में सब्जियों की खेती के लिए पोषण उद्यान बनाए गए हैं।”

कुपोषित बच्चों पर विशेष ध्यान

ओडिशा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अनुसंधान और प्रशिक्षण संस्थान (SCSTRTI) द्वारा 2015 में किए गए अध्ययन के अनुसार, पांच साल से कम उम्र के बच्चों में 32% गंभीर कम-विकसित बच्चों की श्रेणी में थे, 35% गंभीर रूप से कम वजन वाले और 18% गंभीर रूप से कमज़ोर थे।

“इनमें से कई केंद्रों में सब्जियों की खेती के लिए पोषण उद्यान बनाए गए हैं”

जशोदा बदनायले

जहां राज्य के पीवीटीजी समूहों के विकास परिणामों और स्वास्थ्य स्तर पर आंकड़ों का पूरा अभाव है, हाल ही के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) से पता चलता है कि अनुसूचित जनजातियों में 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर, 2015-16 (NFHS-4) में 1,000 जीवित जन्म में 65.6 से बढ़ कर, 2021 (NFHS-5) में 1,000 जीवित जन्म में 66.2 हो गई है।

बच्चों के विकास की निगरानी के लिए उनकी बांह की मध्य-ऊपरी परिधि और वजन को मापा जाता है (छायाकार – ऐश्वर्या मोहंती)

हालात बदलने के लिए, चयनित गांवों के बच्चों की कुपोषण के लिए जाँच की जाती है और गंभीर कुपोषण से पीड़ित बच्चों का इलाज किया जाता है।

बच्चों की पोषण स्थिति का मूल्यांकन और आंकलन करने के लिए, एक मासिक लॉगबुक और वृद्धि चार्ट रखा जाता है। हर महीने बच्चों की मध्य-ऊपरी बांह की परिधि और वजन को मापना और हर चार महीने में ऊंचाई को मापना विकास की निगरानी करने में मदद करता है।

माझी कहते हैं – “शिशुगृह ने मेरे बच्चे के लिए बेहतर स्वास्थ्य और मेरे लिए बेहतर उत्पादकता सुनिश्चित की है।”

समुदाय-आधारित दृष्टिकोण

शिशुगृह को बच्चों के अनुकूल बनाने के लिए, समुदाय आधारित दृष्टिकोण अपनाया गया है।

देखभाल करने वालों को गांव की महिलाओं द्वारा नामित किया जाता है, जो ज्यादातर स्वयं सहायता समूहों की सदस्य होती हैं।

शिशुगृह विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों के बच्चों के पोषण में मदद करते हैं और जब उनके माता-पिता काम पर जाते हैं तो उन्हें व्यस्त रखते हैं (छायाकार – ऐश्वर्या मोहंती)

बदनायले कहती हैं – “ यदि जरूरी हो, तो मुद्दों पर चर्चा करने के लिए वे हर महीने एक सामुदायिक बैठक आयोजित करते हैं। समुदाय अपनी सुविधानुसार अपने घर से फल और सब्जियां दे कर भी भाग लेता है।”

शिशुगृह की स्थापना के लिए कार्यक्रम के अंतर्गत, छह महीने से तीन साल की उम्र के 10 से 15 बच्चों वाले गांवों का चयन किया गया है।

ओडिशा पीवीटीजी सशक्तिकरण और आजीविका सुधार कार्यक्रम (OPELIP) की एक पहल, शिशुगृह आंगनवाड़ियों की कमी को दूर करने का प्रयास करते हैं।

OPELIP के कार्यक्रम निदेशक, पी. अर्थनारी ने विलेज स्क्वेयर को बताया – “पीवीटीजी की स्थिर या घटती आबादी और पोषण की कमी को लेकर लगातार चिंताएं रही हैं। शिशुगृह उस दिशा में कमियों को दूर करने की एक पहल है।”

उन्होंने कहा – “हमने उल्लेखनीय बदलाव देखे हैं और इस सुविधा को और ज्यादा स्थानों पर शुरू करने की योजना बना रहे हैं। यह सुनिश्चित करने के लिए कि दूसरी मौजूदा पहलों के साथ कोई दोहराव न हो, हम एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) और महिला एवं बाल विकास विभाग के समन्वय से ऐसा कर रहे हैं।”

मुख्य फोटो में ओडिशा के आदिवासी बच्चों के लिए चलाए जाने वाले शिशुगृह को दिखाया गया है, जो उनके स्वास्थ्य में सुधार करता है और उनकी माताओं को बच्चों की चिंता किए बिना काम करने में मदद करता है (छायाकार – ऐश्वर्या मोहंती)

ऐश्वर्या मोहंती ओडिशा स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। वह जेंडर, सामाजिक न्याय, ग्रामीण मुद्दों और पर्यावरण के अंतर्संबंध पर लिखती हैं। वह विलेज स्क्वेयर मीडिया फेलो भी हैं।