मराठवाड़ा किसानों ने जलधाराओं का जल एकत्र कर प्राप्त की भरपूर पैदावार

जालना, महाराष्ट्र

महाराष्ट्र के सूखा संभावित मराठवाड़ा क्षेत्र के किसानों ने, बारिश के जल को जलधाराओं की तालाब जैसे खंडों में जल संग्रहित करके कृषि को लाभकारी बनाया है, जिससे भूजल पुनर्भरण भी हो रहा है।

वर्षा छाया क्षेत्र में स्थित होने के कारण, महाराष्ट्र के मराठवाड़ा क्षेत्र का जालना जिला अक्सर सूखे की चपेट में रहता है। जालना के गांवों में वार्षिक वर्षा 600 मि.मी. से 700 मि.मी. के बीच होती है। ग्रामीण साल में खरीफ़ और रबी की दो फ़सलें उगाते हैं।

जालना के जाफराबाद प्रशासनिक ब्लॉक के पापल गांव में लगभग 250 परिवार हैं और आबादी लगभग 1,500 है। कुछ दशक पहले, सरकार ने किसानों को फ्लैट दर पर बिजली की आपूर्ति शुरू की थी। इससे मौजूदा खुले कुओं से खेतों की सिंचाई संभव हो गई, जिससे बहुत से ग्रामीण कुएं खोदने के लिए प्रेरित हुए।

कुओं के बावजूद, अपर्याप्त बारिश के कारण ग्रामीणों के लिए खेती करना मुश्किल था। उन्होंने दोहा मॉडल के माध्यम से, जो भी बारिश होती थी, उसे जल धाराओं में इकठ्ठा करते थे, जिससे भूजल रिचार्ज होता और खेती आर्थिक रूप से टिकाऊ बन गई। 

घाटे की खेती

बिजली कनेक्शन के बावजूद, अघोषित बिजली कटौती के कारण किसानों को सिंचाई में दिक्कत होती थी। अकोला देव गांव के भौरव अटापले ने villagesquare.in को बताया – “इससे पहले से ही नियमित सूखे से जूझ रहे किसानों पर अनावश्यक दबाव पड़ता था।”

इस बस्ती के लगभग 80% किसानों के खेतों में खुले कुएँ थे। हालांकि कम वर्षा के कारण कुओं में पानी ज्यादा समय तक नहीं रह पाता था। वर्ष 2012 जैसे सूखे ने हालात और खराब कर दिए।

पर्मेश्वर बोबडे ख़रीफ़ सीज़न में कपास और अरहर की खेती को याद करते हैं। बोबडे ने villagesquare.in को बताया – “सिंचाई केवल जुलाई से नवंबर तक ही संभव थी।” अपने खेत में 60 फीट गहरा कुआं होने के बावजूद, वह रबी सीज़न में जो भी फसल उगाने का फैसला करते थे, वह बारिश की दया पर होती थी। खेती से उनका शुद्ध लाभ 25,000 रुपये सालाना से ज्यादा नहीं था।

वर्षा जल संचयन

चार साल पहले, पानी उपलब्ध करके किसानों की आजीविका सुनिश्चित करने के लिए काम करने वाले एक गैर-लाभकारी संगठन, ‘दिलासा संस्था’ ने ‘दोहा’ जल संचयन अवधारणा को पापल गांव में लागू किया। इस हस्तक्षेप में जलधाराओं के बीच तालाब जैसी जगहें बनाने के लिए जलधाराओं में खुदाई शामिल थी।

‘दोहा’ न केवल जलधाराओं में बड़ी मात्रा में वर्षा जल के भंडारण में मदद करता है, बल्कि भूजल को रिचार्ज करने में भी सहायता करता है। दोहा ने पापल के किसानों को खेती से बेहतर लाभ प्राप्त करने में मदद की है।

जलधाराओं में तालाब जैसी जगहें खोदने से मराठवाड़ा के किसानों को वर्षा जल संचय में मदद मिली है, जिससे भूजल रिचार्ज हो रहा है (छायाकार – शशांक देवड़ा)

दोहा के कार्यान्वयन के बाद, जिनके खेत में कुएँ जलधाराओं के पास हैं, उन्होंने अपने कुओं के जल स्तर में वृद्धि की जानकारी दी। अब कुओं में पानी का स्तर फरवरी तक सिंचाई के लिए काफी है, जबकि पहले नवंबर या दिसंबर में कुएं सूख जाते थे।

जालना जिले के तीन अन्य गांवों के किसानों, जहां दोहा मॉडल लागू किया गया था, ने रबी मौसम में अपनी फसलों की सिंचाई के लिए अपने कुओं में पानी की मात्रा में वृद्धि की जानकारी दी।

दोहा वाली जलधाराओं के आसपास के ग्रामीणों ने खुलासा किया कि इससे पेय जल लाने वाले टैंकरों की संख्या में कमी आई है, क्योंकि अब उनके कुओं में पानी होता है। पानी की सुनिश्चित उपलब्धता ने उन्हें चारे का उत्पादन बढ़ाने में मदद की है, जिससे उनके पशुधन में वृद्धि हुई है।

कृषि आय में सुधार

पर्मेश्वर बोबडे ने अपनी फसलों में बदलाव किया है। पिछले साल, उन्होंने अपनी ज़मीन का केवल एक हिस्सा उन फसलों के लिए उपयोग किया, जिन पर वह पहले खेती करते थे। कपास को छोड़कर, अब सभी फसलें मुख्य रूप से घरेलू उपभोग के लिए हैं। हालांकि पिछले दो वर्षों में, उन्होंने व्यावसायिक रूप से बीज उत्पादन के लिए फसलें उगाने में विविधता ला दी है।

उन्होंने रेशम उत्पादन के लिए शहतूत के पौधे भी लगाए हैं। अब वह रेशम उत्पादन और बीज के व्यवसायिक उत्पादन सहित कृषि से लगभग 350,000 रुपये की वार्षिक शुद्ध आय अर्जित करने का दावा करते हैं। चारे की निश्चित उपलब्धता होने से, उन्होंने और उनकी पत्नी विमल ने कुछ बकरियाँ खरीदी हैं।

पर्मेश्वर बोबडे अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा अपने बच्चों की शिक्षा में निवेश करते हैं। वह कहते हैं – “मेरी बेटी सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रही है और मैं चाहता हूँ कि मेरा बेटा फार्मेसी की पढ़ाई करे, ताकि वह हमारे इलाके में एक दवाइयों की दुकान खोल सके।”

अपनी अलग-अलग महत्वाकांक्षाओं के बावजूद, जलधाराओं के पास खेतों वाले सभी किसानों ने कहा कि दोहा से उन्हें फायदा हुआ है।

‘दोहा’ हस्तक्षेप से पानी की उपलब्धता में सुधार हुआ है, जिससे बैलगाड़ियों द्वारा दूर के स्रोतों से पानी लाना कम हो गया है (छायाकार – शशांक देवड़ा)

अंकुश बोबडे का कहना था कि कृषि से उनकी वार्षिक आय दोगुनी से ज्यादा हो गई है और अब वह लगभग 3,50,000 रुपये कमाते हैं। किसान दगडुभाऊ शिवसागर ने villagesquare.in को बताया – “मेरी वार्षिक आय लगभग 20,000 रुपये हुआ करती थी। अब मैं लगभग 110,000 रुपये कमाता हूँ।” अन्य किसानों ने भी खेती से आय बढ़ने का दावा किया। 

चुनौतियाँ

इस हस्तक्षेप से जुड़ी कुछ चुनौतियाँ हैं। एक महत्वपूर्ण चुनौती सिंचाई के पानी के वितरण में समानता की कमी है। इस हस्तक्षेप से उन किसानों को मदद मिलती है, जिनके खेत जलधारा के पास है। जलधारा से दूर के किसान इसका लाभ नहीं उठा पाते, यदि उनके कुएँ नजदीक नहीं हैं।

उक्त कारण से, उन किसानों को सिंचाई में लाभ नहीं मिल पाता, जिनके खेत तो जलधाराओं के पास हैं, लेकिन उनके कुएँ नहीं हैं। इसके अलावा, जिन किसानों के खेत जलधाराओं के ऊपरी भाग में हैं, उन्हें अधिक लाभ नहीं मिलता। यह जलधारा के नजदीक निचले क्षेत्र के किसान हैं, जिनके पास मानसून के बाद पानी बरकरार रहता है और उन्हें अधिकतम लाभ होता है।

आगे का रास्ता

लाभ की भागीदारी में समानता प्राप्त करने की महत्वपूर्ण चुनौती को पानी के उपयोग पर कुछ नियम बनाकर और जलधारा से दूर लोगों को रियायत दे कर दूर किया जा सकता है। लेकिन ऐसे किसी भी प्रावधान को कार्यान्वित करने के लिए सबसे पहली जरूरत ग्रामीण समुदाय के बीच समझ की है।

समुदाय को यह समझना होगा कि भूजल के रिचार्ज होने से एक सामुदायिक संपत्ति बनती है न कि कई व्यक्तिगत संपत्तियां, और इसलिए उन्हें इसका सामूहिक रूप से प्रबंधन करना चाहिए। किसानों के एक समूह के माध्यम से भागीदारी सिंचाई प्रबंधन एक समाधान हो सकता है, जो कुओं से पानी का विवेकपूर्ण उपयोग सुनिश्चित कर सकता है और जलधारा से दूर किसानों तक पानी पहुंचाने के लिए कुछ साधन बना सकता है।

ऊपरी हिस्सों के किसानों तक पानी पहुँचाने के लिए ज्यादा प्रयासों की जरूरत हो सकती है। जिन जलधाराओं के मूल में जल संचयन की कोई संरचना होती है, वे ऐसी बिना संरचना वाली जलधाराओं की तुलना में जल संचयन और पुनर्भरण में ज्यादा कुशल होती हैं।

एक उथला तालाब सबसे आम संचयन संरचना थी। इस तरह की संरचना से नदी के ऊपरी हिस्से के किसानों को भी सिंचाई का लाभ मिल सकेगा। डिज़ाइन में ऐसी संरचनाओं को शामिल करने का प्रस्ताव में वाटरशेड दृष्टिकोण की वकालत है, यानि अलग-अलग जल संचयन संरचनाओं को अलग-अलग लागू करने के बजाय, चोटी से घाटी तक जहां पानी गिरता है, उसे वहीं एकत्र करना।

जलधाराओं के माध्यम से जल संचयन किफायती है, जो बड़ी जल संचयन संरचनाओं का एक स्थानीय विकल्प है। सुझाए गए उपायों को लागू करने से, बिना किसी गड़बड़ी के, सभी को सिंचाई लाभ सुनिश्चित होगा।

शशांक देवड़ा पुणे में विकासअण्वेष फाउंडेशन में शोधकर्ता हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।