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phetiya kanchali dress – Village Square https://www.villagesquare.in/hindi Stories and Insights from Rural India. Thu, 22 Oct 2020 11:52:21 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.5.3 लंबाणी कशीदाकारी ने बनाई, फैशन की एक पहचान https://www.villagesquare.in/hindi/2020/10/22/%e0%a4%b2%e0%a4%82%e0%a4%ac%e0%a4%be%e0%a4%a3%e0%a5%80-%e0%a4%95%e0%a4%b6%e0%a5%80%e0%a4%a6%e0%a4%be%e0%a4%95%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a5%80-%e0%a4%a8%e0%a5%87-%e0%a4%ac%e0%a4%a8%e0%a4%be%e0%a4%88/ Thu, 22 Oct 2020 07:00:43 +0000 https://www.villagesquare.in/hindi/?p=7900 शिल्प-आधारित आजीविका को बढ़ावा देने वाली गैर-लाभकारी संस्था, संदुर कुशल कला केंद्र (SKKK) की महालक्ष्मी दर्पण और कशीदाकारी ईकाई (मिरर एन्ड एम्ब्रायडरी यूनिट) में कपड़ों पर कढ़ाई करने वाली लंबाणी महिलाओं के समूह में सीता बाई सबसे बुजुर्ग हैं। पैंसठ वर्षीय सीता बाई के हाथ, सफ़ेद कपड़े के टुकड़े पर टांकने का काम सहजता से करते हैं, जबकि वह पास में खेल रहे पोते-पोतियों पर नजर भी रखती हैं।

कसुति केलसा कशीदाकारी लंबाणी समुदाय की विशिष्ट किस्म है। कर्नाटक में अनुसूचित जाति के रूप में सूचीबद्ध 11 लाख लंबाणी ज्यादातर शुष्क, उत्तरी जिलों में केंद्रित हैं।

कुछ राज्यों में बंजारों के रूप में जाने जाने वाले, अर्द्ध-घुमंतू लंबाणी जनजातियों को यूरोप के आर्य रोमा खानाबदोशों के वंशज माना जाता है, जिन्होंने राजस्थान के रेगिस्तान में पहुँचने से पहले, मध्य एशिया और अफगानिस्तान में प्रवास किया। नमक और अनाज के व्यापार से उन्हें कर्नाटक जैसे दक्षिणी राज्यों तक पहुँचने में मदद मिली।

जो पहले उनके विशेष दुल्हन के दहेज़ का हिस्सा होता था, अब चमकीले हैंडलूम कपड़ों पर जटिल टांकों, सजावटी पैच, शीशे और पैचवर्क से सजा, उनका वह कढ़ाई का काम अब आधुनिक दिनों की पोशाकों और उत्पादों का हिस्सा है। हालाँकि उनके ज्यादातर थांडा (बस्तियां) अविकसित रहे हैं, लेकिन यह उनकी उत्कृष्ट कारीगरी है, जिससे लंबाणी महिलाओं को पहचान  मिली और जीवन यापन के लिए मदद मिली।

शिल्प के माध्यम से आजीविका

यह सब 1984 में बेल्लारी जिले के संदूर में शुरू हुआ, जब एक स्थानीय स्कूल की शिक्षिका, महालक्ष्मी, जिनके नाम पर कशीदाकारी इकाई का नाम रखा जा रहा था, ने लंबाणी कढ़ाई की सूक्षमता को पहचाना और अपने घर के आंगन में महिलाओं के एक छोटे समूह के साथ काम करने लगी।

पूर्व मंत्री और संदूर के पूर्व शाही परिवार के सदस्य, एम. वाई. घोरपड़े ने पहल को सहयोग प्रदान किया और लंबाणी महिलाओं के लिए बेहतर आजीविका सुनिश्चित करने के लिए एसकेकेके की स्थापना की।

एक छोटी सी शुरुआत से, संदूर की इकाई विकसित हो गई है, जिसमें 400 से अधिक लंबाणी महिलाएं आधुनिक पोशाकों पर पारम्परिक कढ़ाई का काम करती हैं (छायाकार – अमूल्य राजप्पा)

एसकेकेके के सचिव, आर. के. वर्मा ने VillageSquare.in को बताया – “सिर्फ पांच महिलाओं की मामूली शुरुआत से, इस ईकाई ने संदूर के लगभग 15 गांवों की 400 से अधिक लंबाणी महिलाओं को रोजगार देने तक बढ़ गई है। महिलाओं को घर से काम करने की छूट है, क्योंकि हर गाँव में उनके काम की निगरानी करने के लिए सुपरवाइजर हैं।”

आधुनिक पसंद के अनुसार

लंबाणी महिलाओं के साथ 10 वर्षों से काम कर रही, सलाहकार डिजाइनर 36 वर्षीय रूही आज़म के अनुसार, शुरू में आधुनिक पोशाकों पर अपनी खास कढ़ाई करने को लेकर महिलाएं थोड़ी दुविधा में थीं। आजम कहती हैं – “अब वे मानती हैं कि समकालीन मांग को पूरा करना जरूरी है।”

चटक रंगों के साथ कढ़ाई की संदूर शैली और कौड़ी, मनके, सिक्के, दर्पण और फुन्दे जैसे सुन्दर सजावटी सामान के उपयोग को आज़म विशिष्ट मानती हैं। लैला तैयबजी और लक्ष्मी नारायण जैसे दिग्गज डिजाइनरों ने, संदूर कशीदाकारी को नए रुझानों के साथ एकीकरण में मदद की है।

गौरी बाई ने VillageSquare.in को बताया – “यह सिर्फ कपड़ों का डिज़ाइन हैं, जो समय के साथ बदलते रहते हैं, हमारी कढ़ाई के टांके वैसे ही रहते हैं।” महिलाएं कुर्ते, दुपट्टे, बैग, कुशन कवर, वॉल हैंगिंग जैसी, रु. 70 से 4,000 तक कीमत की अनेक प्रकार की वस्तुओं पर कढ़ाई करती हैं। लंबाणी कशीदाकारी वाले उत्पाद अमेरिका, नीदरलैंड और जापान जैसे देशों में निर्यात किए जाते हैं।

परम्परा में निहित

सीता बाई जैसी कई बुजुर्ग महिलाएं कशीदाकारी ईकाई के साथ, दो से तीन दशकों से जुड़ी हैं। अपने पारम्परिक फेटिया-कांचली लिबास (एक ढीला स्कर्ट और सजावटी ब्लाउज) पहने, वह मानती हैं कि वर्तमान पीढ़ी की लंबाणी महिलाएं साड़ी पहनना पसंद करती हैं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “उन्हें हमारी पारम्परिक पोशाक रोज पहनने के लिए बहुत भारी लगती है और इसे केवल उत्सव के मौकों पर ही पहनना पसंद करती हैं।”

सीता बाई की बहू लक्ष्मी बाई को शादी में अपने माता-पिता से चार जोड़ी कढ़ाई वाले कपड़े मिले। वह इस रिवाज को जारी रखना चाहती हैं, बेशक इसमें कई महीनों की कड़ी मेहनत लगती है। लक्ष्मी, जो अब अपनी बहू को ‘कसुति’ काम सिखाती हैं, बताती हैं – “हमारे समुदाय के बच्चे हमसे सीखते हैं, क्योंकि हम यह काम हर समय करते हैं।”

गौरी बाई (53), जो 12 वर्ष की उम्र से पारम्परिक लंबाणी पोशाक पहन रही हैं, उन मुट्ठी भर महिलाओं में से हैं, जो इसे रोज पहनना पसंद करती हैं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “पहले हमें दूल्हे के परिवार के सभी सदस्यों को, शादी के उपहार के रूप में कढ़ाई किए हुए वस्त्र उपहार में देने पड़ते थे। लेकिन आज, हमारे लोग इसे सिर्फ दुल्हन को देते हैं और बाकी सभी को साड़ियां दे दी जाती हैं, क्योंकि वह सस्ती पड़ती हैं।”

जारी रखने में दिक्कतें

संदूर कढ़ाई के सभी 39 टांकों की पूरी जानकारी के साथ, शांति बाई अन्य महिलाओं के काम की देखरेख और शुरू करने वाली महिलाओं को प्रशिक्षण प्रदान करती हैं। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “यह दुख की बात है कि हर कोई इस परम्परा को अगली पीढ़ी को देने के लिए उत्सुक नहीं है। दूसरे लोग दिहाड़ी मजदूरी करते हैं और मौसमी के काम के लिए पलायन करते हैं।”

कर्नाटक के संदूर की लंबाणी आदिवासी महिलाएं अपनी पारम्परिक कशीदाकारी से आजीविका कमाती हैं (छायाकार – अमूल्य राजप्पा)

ईकाई में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं सुशीलानगर की हैं, जहाँ पलायन आम है। गौरी बाई ने बताया – “इस समय हमारे गाँव के लगभग 30% पुरुष और महिलाएँ मंड्या, मैसूर और दावणगेरे में गन्ना काटने का काम कर रहे हैं।”

ईकाई में काम करने वाली ज्यादातर महिलाएं सुशीलानगर की हैं, जहाँ पलायन आम है। गौरी बाई ने बताया – “इस समय हमारे गाँव के लगभग 30% पुरुष और महिलाएँ मंड्या, मैसूर और दावणगेरे में गन्ना काटने का काम कर रहे हैं।”

सक्कू बाई (56) अपने पोते की देखभाल करती हैं, क्योंकि उनके बेटे और बहू काम के लिए प्रवास पर चले गए हैं। वह बताती हैं – “हम मुश्किल से 100-200 रुपये रोज कमाते हैं, जबकि गन्ने की कटाई से उन्हें लगभग 300-450 रुपये मिलते हैं।”

गौरी बाई कहती हैं – “कभी-कभी यह लाभदायक होता है और कभी-कभी नहीं होता, लेकिन हम इसमें लगे रहते हैं, क्योंकि इससे साल भर काम मिलता है।”

राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पहचान

हाथ से बनी पीली गांठों की एक रस्सी पर काम करते हुए गौरी बाई कहती हैं, कि उनके शिल्प की बदौलत उन्हें लंदन फैशन वीक में रैंप पर चलने, और कुछ साल पहले न्यू मैक्सिको के ‘सैंटे फे फॉक आर्ट मार्केट’ में भाग लेने का मौका मिला।

गौरी बाई याद करती हैं कि कैसे विदेशों में लोग कहते थे कि हर दिन इतने महंगे कपड़े पहनना कितना अमीर होगा। “हमें उन्हें यह समझाना पड़ता था कि हम असल में एक जनजाति हैं, जो आमतौर पर दैनिक मजदूरी पर निर्भर हैं और यह कपड़े हमारी परम्परा का हिस्सा हैं।”

शांति बाई की लंबाणी कशीदाकारी की महारत ने उन्हें दुनिया भर में घूमने का मौका दिया। शांति बाई और गौरी बाई ने अपने काम के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं। संदूर लंबाणी कशीदाकारी को 2008 में जियोग्राफिकल इंडिकेशन (GI) टैग भी प्राप्त हुआ।

जारी रहने की उम्मीद

आजम ने VillageSquare.in को बताया – ‘पहले कई महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार थीं। एक सम्मानजनक आजीविका कमाने के अवसर ने उन्हें लाभ पहुँचाया और अधिक स्वतंत्र बनाया।”

आजम को लगता है कि शिक्षा और काम के लिए पलायन के कारण, शिल्प कौशल कम हो रहा है। उनका कहना है – “लड़कियों को पर्याप्त शिक्षा के साथ-साथ, शिल्प को जीवित रखना एक चुनौती है। हमारा लक्ष्य नए बाजारों में घुसने का भी है।”

वर्मा ने कहा कि वे शिल्प को संरक्षित करने के लिए, सरकारी सहयोग से, नियमित प्रशिक्षण सत्र आयोजित करते हैं।

गौरी बाई जैसी कई महिलाओं के लिए, उनकी कशीदाकारी ने उन्हें पैसे से अधिक दिया है। वह उस समय को याद करती हैं, जब लंबाणी महिलाएं अकेले कभी पास के शहर में भी नहीं जाती थीं। गौरी बाई बताती हैं – “अपनी कशीदाकारी की बदौलत आज हम अधिक आत्म-जागरूक, आत्मविश्वासी और अच्छी यात्राएं किये हुए हैं| निश्चित रूप से मैं नहीं चाहती कि यह ख़त्म हो जाए।”

अमूल्य राजप्पा बेंगलुरु के एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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