कोरोना महामारी के बाद कैसे कम किया जाए ग्रामीण भारत का दर्द

राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान और महामारी के बाद, ग्रामीण संकट के स्रोतों को समझते हुए, ग्रामीण नागरिकों की पीड़ा को कम करने वाले उपायों की आवश्यकता है

आशा करता हूँ कि कोई भी ऐसा नहीं सोचेगा कि यह लेख समय-पूर्व है। यह कि इस महामारी का समाप्त हो जाना निश्चित है; मुझे पूरी उम्मीद है कि हम जल्दी ही, या ज्यादा से ज्यादा मई के मध्य तक, इस महामारी और इसके कारण पैदा होने वाली अप्रिय बाधाओं का अंत देख पाएंगे।

अभी तक हर कोई इस महामारी को नियंत्रित करने और इसके दौरान जीवन के नुकसान को कम करने के तरीकों के बारे में सोचने में व्यस्त है। परिणामस्वरूप, ऐसा हो सकता है कि महामारी ख़त्म होने के एकदम बाद आत्म-अभिनन्दन और अलसपूर्ण लापरवाही देखने को मिले।

लोगों के जीवन में लॉकडाउन और दूसरी समस्याओं से उपजे दर्द को कम करने की आवश्यकता होगी। इस दर्द को कम करने के लिए क्या करने की जरूरत होगी, मौजूदा हालात में जितना संभव है, मैं उसके प्रारूप के लिए एक प्रयास करता हूं।

आशा करता हूँ, कि बीमारी का प्रसार बहुत सीमित होगा और COVID-19 वर्तमान संवेदनशील स्थानों (हॉटस्पॉट) तक सिमटा रहेगा, जिनमें केरल का कासरगोड, महाराष्ट्र का इस्लामपुर, और राजस्थान का भीलवाड़ा शामिल हैं।

इन हॉटस्पॉट क्षेत्रों में जीवन पटरी पर आने में काफ़ी कष्ट और बाधाएं आएंगी। मेरा लेख उन बहुत से ग्रामीण स्थानों के बारे में है, जो स्वास्थ्य पर प्रभावों के मामले में संक्रमण से बचे रहेंगे, लेकिन लॉकडाउन के कारण होने वाली आर्थिक पीड़ा को झेलेंगे।

विपत्ति के श्रोत

महामारी के कारण ग्रामीण भारत के लिए कष्ट के, मुझे चार स्पष्ट स्रोत दिखाई देते हैं। संकट का पहला और सबसे अधिक चर्चित स्रोत, दिल्ली, मुंबई, पुणे और बेंगलूरू में प्रवास पर जाने वाले मजदूरों के रोजगार और वेतन के नुकसान से होने वाले प्रभाव का है।

समस्या का दूसरा स्रोत, कृषि और पशु-उत्पादों की खरीद-फरोख़्त के असंभव या बेहद कठिन हो जाने से होने वाला आय का नुकसान है। संकट का तीसरा स्रोत ग्रामीण क्षेत्रों में सरकार और लोकहित संस्थाओं से आने वाले धन का प्रवाह बंद होना है।

समस्या का अंतिम स्रोत, अगली फसल के लिए आवश्यक कृषि-वस्तुओं के मिलने और परिवहन-बंदिशों से होने वाली रूकावट के साथ-साथ, किसानों को बैंक ऋण की उपलब्धता में बाधा का होना है।

प्रवासी मजदूरों की आय का नुकसान

प्रवासियों को वापिस घर जाने का मौका दिए बिना, जिस तरह ताबड़तोड़ लॉकडाउन की घोषणा की गई, उससे प्रवासियों की होने वाली दुर्दशा को बेतहाशा जनता के ध्यान में लाया गया है।

प्रवासी मजदूर ग्रामीण इलाकों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में कहीं अधिक दैनिक मजदूरी पाते हैं, लेकिन उन्हें शहरी केंद्रों में जीवन-यापन पर भी कहीं अधिक खर्च करना पड़ता है। इस कारण, वे अपनी कमाई का छोटा सा हिस्सा ही घर ले जा पाते हैं।

हालांकि आय का नुकसान वास्तविक है, लेकिन ग्रामीण घरेलू अर्थव्यवस्था पर असल प्रभाव कम है। इस प्रभाव को ग्रामीण परिवारों को मुफ्त भोजन की आपूर्ति और मनरेगा के बढ़े हुए भुगतान के द्वारा कम किए जाने की सम्भावना है, जैसा कि उत्तर प्रदेश (यूपी) जैसे राज्यों में पहले ही शुरू कर दिया गया है। इस प्रकार आय पर तत्काल होने वाले प्रभाव को एक हद तक झेल लिया है।

इस बात की पूरी सम्भावना है, कि जब तक प्रमुख शहरी केंद्रों में हालात सामान्य होते हैं, खरीफ का मौसम शुरू होने वाला होगा और अधिकांश भारतीय राज्यों में सामान्य प्रवास का मौसम समाप्त हो चुका होगा।

बिहार और यूपी से प्रवास पर पंजाब जाने वाले मजदूर शायद जीवन पटरी पर लाने के लिए दोबारा उस यात्रा पर निकल सकेंगे। बाकी लोगों के लिए, कमाई का एक पूरा सीजन निकल गया है और इसके साथ ही परिवार के ऋणों के भुगतान या कृषि और घरेलू उद्यमों में निवेश के लिए किसी भी नकद राशि के बचे होने की उम्मीद ख़त्म हो गई है। दक्षिण राजस्थान, पश्चिम मध्य प्रदेश, मराठवाड़ा, बुंदेलखंड और कई अन्य क्षेत्रों की ग्रामीण घरेलू अर्थव्यवस्था पर यह बड़ी चोट होगी।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाने में सहयोग के लिए, मौजूदा आर्थिक पैकेजों के अलावा, गरीबों के हित के लिए सरकार कोई और योजना ला पाती है या नहीं, यह देखना होगा। एक सकारात्मक नतीजा यह संभव है कि प्रवासी मजदूर भेजने वाले परिवारों का एक वर्ग, स्थानीय स्तर पर ही अपनी आय बढ़ाने के तरीके अपना ले और प्रवास में देरी से या टाल कर अपनी जीवनशैली में ही बदलाव कर ले।

इस आश्वासन के बावजूद, कि कृषि मार्केटिंग के चैनल खुले रहेंगे, इस नुकसान को अब बहुत महसूस किया गया है। एक व्यवधान तो है। उदाहरण के लिए, मुंबई के आसपास के मछुआरों ने लॉकडाउन के कारण अपनी आजीविका खोई है, क्योंकि कई तट संवेदनशील क्षेत्र (हॉटस्पॉट) बन गए हैं और उनकी पहुंच से बाहर हो गए हैं।

पहले चिकन (मुर्गी-मांस) और अंडे के संबंध में गैर-जिम्मेदार अफवाहों के कारण, और अब इन व्यवधानों के चलते, मुर्गी-पालकों को भारी नुकसान हुआ है। यह संभव है, कि शाकाहारी भोजन पर निर्भरता बढ़ने के कारण, मुर्गी-पालन और आमतौर पर पशुपालन पर दीर्घकालिक नहीं तो कम से कम मध्यमकालिक बुरा प्रभाव पड़े। इस बढ़ोतरी की एक सम्भावना है, जो इस बात पर निर्भर करेगी कि रमादान के महीने में पशु-उत्पादों का बाजार कितनी जल्दी बहाल हो पाता है।

बागवानी उत्पादकों को भी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा है। यह उत्सुकता से प्रतीक्षित, अल्फांसो (हाफूस) आम के बाज़ार में आने का मौसम होना चाहिए था, लेकिन किसी को भी यह कहीं दिखाई नहीं दे रहा। वैश्विक व्यापार कमोबेश थम गया है और इसलिए अंगूर, अनार और आम का निर्यात बाजार पूरी तरह गायब लगता है।

ऐसी काफी झलकियां मीडिया में प्रकाशित हुई हैं, जिनके अनुसार बाजार तक न ले जा पाने के कारण किसानों के द्वारा कृषि उत्पादों को जानवरों को खिलाया जा रहा है। यह साफ़ नहीं है कि ये सब जल्द ही कभी ठीक हो जाएंगे। हालाँकि वायरस ने 800 जिलों में से केवल 274 में स्वास्थ्य सम्बन्धी प्रभाव दिखाया है, लेकिन इसके कारण बागवानी उत्पादों के साथ तबाही मच गई है।

यह तर्क पेश किया जा सकता है कि सब्जियां उगाने वाले छोटे उत्पादक जल्दी उबर जाएंगे और कि नुकसान का बोझ मुख्य रूप से बड़े बागान मालिकों पर पड़ेगा, फिर भी यह प्रभाव बेहद नकारात्मक है। इसमें यह भी शामिल किया जा सकता है कि ऐसे लोगों की आजीविका के नुकसान से, जो विवाह-भोज जैसे समारोहों में सेवाएं प्रदान करते हैं, इस तरह के सामाजिक खर्च में भारी कमी आएगी।

ग्रामीण क्षेत्र के लिए धन प्रवाह का अभाव

ग्रामीण परिवारों के लिए घोषित 1.7 लाख करोड़ रुपये का आर्थिक पैकेज गुजारे में सहयोग के लिए है। पीएम केयर्स (PM CARES) फंड और प्रत्यक्ष हस्तक्षेपों के माध्यम से, बहुत सा मानवीय सहयोग के लिए प्राप्त धन स्वास्थ्य और COVID -19 के उपचार संबंधी पहलुओं के साथ-साथ, दिहाड़ीदार मजदूरों की सहायता के लिए भी जा रहा है। इसका एक बड़ा हिस्सा अनाज या मुफ्त गैस सिलेंडर आदि के रूप में है।

हालांकि यह निश्चित रूप से सहायक है, लेकिन यह बड़ी संख्या में परिवारों में फैलने वाला है। इसके अलावा, किसी भी परिवार के लिए, निर्वाह-मात्र के लिए मिला सहयोग उनकी आय का केवल एक छोटा सा हिस्सा है और उपरोक्त दो स्रोतों से होने वाले आय के नुकसान की पूरी तरह से भरपाई नहीं कर सकता है। वैसे भी, इससे स्वतः उत्पादन गतिविधियों को संचालित नहीं करता।

वास्तविक त्रासदी यह है कि इस खर्च से सरकारी खजाने पर ऐसा दबाव पड़ेगा, कि भूमि सुधार, वाटरशेड डेवलपमेंट, तालाबों और नालों की सफाई, जल-संचय के ढांचों का निर्माण, नए पौधरोपण, सिंचाई उपकरण, आदि योजनाओं के लिए धनराशि, जो उत्पादन में वृद्धि के लिए उपयोग होती है, प्रभावित होगी।

COVID-19 सम्बन्धी कार्यों के लिए धन दे चुके, निजी जनहित-संस्थाओं/लोगों भी धन संकट का सामना करना पड़ेगा| यह किस हद तक और किन क्षेत्रों में होगा, यह राज्यों की राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर निर्भर करेगा। हमेशा की तरह, गरीब, शुष्क भूमि वाले किसानों को इसका कम ही लाभ मिलेगा, जबकि प्रभावशाली मध्यम जातियां और भू-स्वामी वर्ग बड़े हिस्से पर दावा करेंगे और लाभ ले जाएंगे।

कृषि-सामान की उपलब्धता में व्यवधान

बीज, फ़र्टिलाइज़र और फसल की सुरक्षा सम्बन्धी सामग्री और कृषि उपकरण की मार्केटिंग किस हद तक प्रभावित होगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि लॉकडाउन और व्यवधान कितना समय चलते हैं| और अधिक नहीं तो उतना ही मानसून के आने के समय और विश्वसनीयता पर निर्भर करेगा। अभी इसका अंदाज़ा लगाना शायद जल्दबाज़ी हो।

सारांश यह कि हम, प्रवास के मौसम के पूरी तरह फेल होने, ताज़ा बागवानी एवं पशु-उत्पादों की बिक्री में व्यवधान और किसानों की आय वृद्धि की योजनाओं के लिए धन उपलब्धता में कमी के कारण, ग्रामीण परिवारों पर बेहद नकारात्मक आर्थिक प्रभाव की अपेक्षा करते हैं।

संजीव फंसालकर “ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन” के साथ निकटता से जुड़े हैं। वह पहले ग्रामीण प्रबंधन संस्थान आणंद (IRMA) में प्रोफेसर थे। फंसालकर भारतीय प्रबंधन संस्थान (IIM) अहमदाबाद से एक फेलो हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।