बहु-आयामी पद्यति से होगा खस्ताहाल ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनरुत्थान

मिट्टी और जल संरक्षण पहल के अलावा, विभिन्न उपायों के द्वारा ग्रामीण उत्पादन व्यवस्था के लचीलेपन को बढ़ाना, ग्रामीण जनता को मजबूती से पांव जमाने में सहायक होगा

एक-दूसरे की दुर्दशा से अनजान, मध्य प्रदेश के किसान तेरसिंह हाथिला, हरि सिंह मचार और भेरी मधु सोलंकी एक  जैसी समस्या से गुजर रहे थे। हाथिला अपना 4.5 टन गेहूं नहीं बेच पाया, क्योंकि उसकी उपज की ढुलाई के लिए कोई साधन नहीं मिल रहा था और स्थानीय व्यापारी बहुत कम कीमत दे रहा था।

दूसरों की भी यही कहानी थी| सोलंकी के पास 11 टन सब्जियां और मचार के पास 25 टन तरबूज थे। क्योंकि वाहनों को चलने की अनुमति नहीं थी, इस कारण न तो वे अपनी उपज को बाजार में ले जा सकते थे और न ही बाहर के व्यापारी आ कर माल खरीद सकते थे। स्थानीय स्तर पर खपत की गुंजाइश अधिक नहीं थी।

भारत में 5.4 करोड़ ( 54 मिलियन) लोग फसल उगाते हैं, और 9.3 करोड़ (93 मिलियन) लोग अस्थाई मजदूर के रूप में काम करते हैं। लगभग 30 लाख (3 मिलियन) ड्राइविंग,  सामान लादने-उतारने और दूसरी गैर-कृषि गतिविधियों में लगे हैं। इस मामले की गंभीरता रोजमर्रा या मौसमी कामों पर निर्भर लोगों की संख्या से  समझी जा सकती है।

ग्रामीण और कृषि आपूर्ति श्रृंखला व्यवस्था को बहाल करने,  आश्वासन के अनुसार कीमतों पर उपज खरीदने की प्रतिबद्धता, और मनरेगा कार्यों को गति प्रदान करने, आदि जैसे उपायों से ग्रामीण अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने में मदद मिलेगी।

खाली जेबें

विभिन्न प्रकार की गतिविधियों से एक व्यक्तिगत परिवार में, घरेलू आय का 80% खेती, मजदूरी और वेतन से आता है। कमाई का दूसरा महत्वपूर्ण क्षेत्र पशुधन है और उस पर भी लॉकडाउन के कारण बहुत बुरा प्रभाव पड़ा है।

प्रवासी मजदूरों में  बेचैनी है, पहले तो कोशिश करके घर पहुंचने की और उसके बाद आमदनी के नुकसान की। अचानक हुए महामारी के प्रकोप के कारण कई ग्रामीण आकांक्षाओं को और कई अवसरों को बाधित कर दिया है।

पारिवारिक नकद आमदनी में लगभग 40% योगदान अस्थाई काम में मजदूरी से होता है। लॉकडाउन के कारण इस आमदनी में भारी नुकसान हुआ है। क्योंकि प्रवासियों की पहली प्राथमिकता अपने गांवों में वापिस पहुँचने की थी, इस लिए वे बिना पैसे के या मामूली नगद राशि के साथ लौटे। उनका एकमात्र स्रोत और सहारा सरकार या समाज है।

घटती कमाई

जहाँ लॉकडाउन ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर कर दिया है, वहीं सीमित मात्रा में मौजूद नकद फसलों से आय प्राप्त होने की संभावना भी नहीं है। आपूर्ति श्रृंखला बाधित हो गई है और स्थानीय और क्षेत्रीय बाजारों में खपत कम है।

हालांकि मार्च और अप्रैल के महीनों को कीमती फसलों, जैसे फूल, सब्जियां, तरबूज, आम, कटहल और इमली आदि की बिक्री के लिए सर्वोत्तम सीजन माना जाता है। लेकिन ये उपज नाम मात्र की ही बाजार तक पहुंच पाई हैं|

तरबूज की ढुलाई के लिए वाहन न होनेऔर स्थानीय खपत के सीमित होने के कारण, किसान को उनकी लागत तक पाने में कठिनाई हुई (फोटो- अशोक कुमार के सौजन्य से)

इन कीमती उपजों की कीमत में काफी गिरावट आई है और इन की कोई मांग नहीं है। आमतौर पर इस्तेमाल की वस्तुओं की कीमतों में भी काफी कमी देखी गई है। झारखंड की मंडियों में हरी मिर्च 8 रुपये प्रति किलो की दर से बेची जा रही है। विशेषज्ञों का अनुमान है कि खेती से हो सकने वाली अगली कमाई कम से कम छह महीने दूर है।

निवेश सम्बन्धी बाधाएं

रबी की फसल आ चुकी है, लेकिन घटी कीमत और जरूरत के हिसाब से मजदूर न मिलने के कारण, बिक्री काफी हद तक अनिश्चित रही है। स्थानीय लोगों द्वारा अविश्वास और भय के कारण बाहर से व्यापारियों को न आने देने के कारण समस्या और गंभीर हो गई।

किसानों द्वारा अपनी उपज बेचने में आने वाली समस्याओं का प्रभाव, खरीफ फसल के लिए निवेश करने की उनकी क्षमता पर दिखाई पड़ेगा। खेत-मजदूरों की कमी जारी रहेगी, ऐसी संभावना है। क्योंकि कृषि के जरूरी वस्तुओं (बीज, खाद, आदि) की आवाजाही पर रोक है, इसलिए उन वस्तुओं की भी कमी होगी।

मध्य प्रदेश के बागलिया गाँव के सुरेश बुंदेला को अपनी 20 टन लौकी (घीया) बेचने में बहुत कठिनाई हुई। स्थानीय व्यापारी ने सब्जी की बहुत कम कीमत लगाई। इससे बीज, खाद, आदि जरूरी वस्तुएं खरीदने और गर्मियों में कपास की फसल बोने के लिए संसाधनों की कमी हो गई है।

आगे का रास्ता

बहु-आयामी रणनीति के द्वारा, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनरुद्धार संभव हो सकता है। भोजन और आश्रय से जुड़े राहत कार्य जारी रहने चाहिएं, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कोई भी भूखा न रहे।

ग्रामीण समुदायों में अभी भी महामारी के बारे में पर्याप्त जागरूकता नहीं है। COVID-19 को लेकर बहुत सारे भ्रम और भ्रांतियाँ हैं। इन समुदायों तक सही जानकारी पहुँचाने के लिए, एक गहन शैक्षिक प्रयास की आवश्यकता है।

आपूर्ति श्रृंखला को ठीक करना बहुत जरूरी है, ताकि स्थानीय उद्यमी, समुदाय में स्थानीय उपज की बिक्री करने में सक्षम हो सकें। आपूर्ति श्रृंखला के ठीक होने की स्थिति में छोटे किसानों और उद्यमियों को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है। उपज के उचित मूल्य की प्रतिबद्धता और बाजार में उनका माल उठने के साथ, उनकी बेचैनी समाप्त हो सकती है।

उत्पादकों के हाथों में नकदी सुनिश्चित करने के लिए अनुदान सहायता और आसान ऋण की सुविधा उपलब्ध  कराई जा सकती है। मनरेगा के कामों में तेजी लाने की जरूरत है। मजदूरी के दिनों और मजदूरी की दर में वृद्धि की जानी चाहिए और जल्द से जल्द जॉब-कार्ड बनाए जाने चाहिए। कौशल-आधारित मानचित्रण और गतिविधि-आधारित आर्थिक सुविधा की व्यवस्था होनी चाहिए।

मिट्टी एवं जल संरक्षण के लिए कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। व्यक्तिगत संपत्ति निर्माण के लिए सहयोग प्रदान किया जाना चाहिए। जिस प्रकार मास्क बनाकर देने के लिए हुआ, वैसे ही कृषि सम्बन्धी वस्तुओं (बीज, खाद, आदि) की आपूर्ति के लिए स्वयं सहायता समूहों से सहयोग लिया जाना चाहिए।

मध्य प्रदेश में एक किसान, जो गेहूं की फसल काटने के बाद, उसकी लदाई के लिए मजदूर और ढुलाई के लिए वाहन न मिलने के कारण, उसे बेच नहीं सका (फोटो- अशोक कुमार के सौजन्य से)

राज्यों के बीच आवागमन बंद होने और आतिथ्य क्षेत्र (होटल, पर्यटन, आदि) में, जल्दी खराब होने वाली वस्तुओं, जैसे फूलों, विदेशी उत्पाद, आदि की घटी मांग को देखते हुए किसानों को वैकल्पिक फसल उगाने की सलाह दी जा सकती है। किसानों और प्रवासियों के डिजिटल कौशल को बढ़ाया जाना चाहिए।

छोटे किसानों  के लिए पशुपालन खेती का अभिन्न अंग मान लिया जाना चाहिए। ऊर्जा की उपलब्धता और सिंचाई व्यवस्था में सुधार के साथ-साथ, फसल विविधता एवं खेत के निकट मूल्य-वृद्धि कार्य के माध्यम से स्थानीय उत्पादन व्यवस्था में लचीलेपन को बढ़ाया जाना चाहिए।

पलक गोसाई पुणे के विकास अण्वेश फाउंडेशन में एक शोधकर्ता हैं।

यह लेख ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन (TRIF) द्वारा 21 अप्रैल को “रीबूटिंग दि रूरल इकोनॉमी (ग्रामीण अर्थव्यवस्था का पुनरुत्थान) शीर्षक से आयोजित वेबिनार का एक परिणाम है। विकास अण्वेश फाउंडेशन (VAF) के संजीव फंसालकर और टीआरआईएफ के विनय कुमार ने चर्चा को एंकर किया। इसमें पैनलिस्ट थे – आशीष मंडल, एक्शन फॉर सोशल एडवांसमेंट; संजीव अस्थाना, आई-फार्म वेंचर सलाहकार; संजीव कुमार, द गोट ट्रस्ट और अशोक कुमार, टीआरआईएफ