ऑनलाइन कक्षाएं, ग्रामीण लड़कियों की शिक्षा का अंत है

श्रावस्ती, उत्तर प्रदेश

घर में एकमात्र मल्टीमीडिया फोन के इस्तेमाल के लिए लड़कों को वरीयता मिलने के कारण, गरीब ग्रामीण परिवारों की लड़कियों ने पढ़ाई छोड़ दी, और खुद को जल्द शादी की स्थिति के हवाले कर दिया

14 वर्षीय कीर्ति यादव कहती हैं – “मुझे कोई भी किताब पढ़े छह महीने हो चुके हैं। मेरा स्कूल मार्च में बंद हो गया था और मैं तब से मैं पढ़ाई नहीं कर पाई हूँ।” जून के आखिरी हफ्ते में, वह अपनी माँ के साथ आम के बागों में आम तोड़ने गई थी।

वह बताती हैं – “मेरी माँ उस समय काम नहीं कर रही थी। अब वह फिर एक घरेलू सहायिका के रूप में काम करने लगी है और मैं घर के काम करती हूं।” परिवार के पास केवल एक मल्टीमीडिया फोन है और उसका भाई अपनी ऑनलाइन कक्षाओं के लिए इसका इस्तेमाल करता है।

जब से उत्तर प्रदेश में अनलॉक की घोषणा हुई, 14-वर्षीय कीर्ति यादव ने कृषि कार्यों में मदद के लिए, अपनी माँ के साथ खेतों में जाना शुरू कर दिया। कीर्ति यादव उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले की निवासी हैं। कीर्ति ने मार्च में, COVID-19 का प्रसार रोकने के लिए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद होने से पहले, कक्षा आठवीं की परीक्षा दी थी।

श्रावस्ती जिले के ग्रामीण इलाकों में, कीर्ति यादव जैसी लड़कियों को ऑनलाइन कक्षाएं छोड़नी पड़ी, क्योंकि घर में मोबाइल फोन का इस्तेमाल लड़के करते हैं। इससे महिला साक्षरता की खाई और चौड़ी हो रही है।

लड़कों के लिए शिक्षा

भानु यादव की उसके गांव में चाय-नाश्ते की एक छोटी सी दुकान है, जिसे उन्होंने 1,000 रुपये महीना किराए पर लिया है। इसके अलावा, परिवार की कुछ जमीन है, जिसमें वे कुछ दाल और सब्जियाँ उगाते हैं। वह कहते हैं – “गांव में हमारे घर के बगल में, हमारी लगभग 500 वर्गफुट जमीन है। लेकिन, हमें मुश्किल से ही बेचने लायक कोई अतिरिक्त सब्जियां मिलती हैं। इससे सिर्फ हम चार का ही काम चलता है।”

कीर्ति के पिता, भानु यादव ने VillageSquare.in को बताया – “हमारी दो बेटियां और एक बेटा है। सबसे बड़ी बेटी शादीशुदा है और बनारस में रहती है। हमारे छोटे बच्चे कीर्ति और रोहित हमारे साथ रहते हैं।” रोहित उनके बच्चों में सबसे छोटा है।

भानु यादव ने बताया – “लॉकडाउन से पहले वे दोनों निजी स्कूलों में दाखिल थे। लेकिन अब हालात और हमारी स्थिति, हमें उन दोनों को पढ़ाने की इजाज़त नहीं देती। मैं अपने रिश्तेदार से कर्ज लेकर केवल अपने बेटे का दाखिला करा सका|”

शिक्षा का अंतर

COVID-19 के प्रसार को रोकने के लिए, शैक्षणिक संस्थानों को बंद रखने के केंद्र सरकार के आदेश के बाद, स्कूलों और कॉलेजों ने स्मार्ट फोन और कंप्यूटर की मदद से ऑनलाइन कक्षाएं आयोजित करना शुरू कर दिया। हालांकि, उन छात्रों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था के लिए कोई उपाय नहीं किया गया, जिनकी इन तक पहुँच नहीं है| इसका परिणाम यह हुआ कि लड़कियों के बीच, खासतौर पर ग्रामीण क्षेत्रों में, शिक्षा में अंतर हो गया है।

जेंडर और टेक्नोलॉजी तक पहुँच सम्बन्धी एक अध्ययन के अनुसार, दुनिया भर में महिलाओं की तुलना में 20 करोड़ अधिक पुरुषों की इंटरनेट तक पहुंच है, और महिलाओं के पास मोबाइल होने की संभावना 21% कम है।

वैष्णवी यादव जैसी किशोरियों के माता-पिता ने उनकी पढ़ाई पर रोक लगा दी है। उनके जैसी लड़कियों के लिए स्कूलों के बंद होने का मतलब है, जल्दी शादी (छायाकार – जिज्ञासा मिश्रा)

महिलाओं और पुरुषों के बीच का ऐसा अंतर, सिर्फ इंटरनेट के इस्तेमाल में नहीं है। यह साक्षरता दर में भी स्पष्ट है। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, उत्तर प्रदेश में महिला साक्षरता दर 59.26% है, जबकि पुरुष साक्षरता दर 79.24% है।

उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्रों में, कक्षा I से XII तक की 84, 25,790 लड़कियों के दाखिले हैं, जो कि राज्य के ग्रामीण क्षेत्रों की कुल छात्रों का 46.6% है। देश भर के ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों के दाखिलों की संख्या 6,30,57,935 है, जो ग्रामीण क्षेत्रों के कुल दाखिला-प्राप्त छात्रों का लगभग 45% है।

जल्दी शादी

लड़कियों के लिए स्थिति और अधिक चिंताजनक है, क्योंकि यह स्कूल छोड़ने के मामलों में वृद्धि और जल्दी शादी की ओर इशारा करती है। जनगणना 2011 के अनुसार, उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले का सबसे कम महिला साक्षरता दर के मामले भारत में छठा स्थान है, जबकि 10-17 वर्ष की 25.5% लड़कियों की शादी हो चुकी है।

वैष्णवी यादव ने अपने परिवार के सुझाव के अनुसार, पढ़ाई छोड़ देने का फैसला किया है। उन्होंने VillageSquare.in को बताया – “मैंने इस मार्च में अपना हाई स्कूल पूरा किया। मैंने यह गवर्नमेंट गर्ल्स कॉलेज से किया था और ग्यारहवीं कक्षा में दाखिला लेना था।”

वैष्णवी के माता-पिता दर्जी हैं। 16-वर्षीय वैष्णवी अपनी दो छोटी बहनों और एक भाई के बीच सबसे बड़ी हैं। उनका कहना है – “लेकिन अब हमने फैसला किया है कि मैं पढ़ाई छोड़ दूँगी। वैसे भी, मेरे माता-पिता दो साल में मेरी शादी कर देंगे।”

पौष्टिक भोजन की क्षति

स्कूल नहीं जा पाने के कारण, पढ़ाई छूट जाने के अलावा, लड़कियों के लिए एक और समस्या खड़ी हो गई है। स्कूलों के बंद होने से, मध्यान्ह भोजन (मिड-डे मील) की सुविधा रुक जाने के कारण, छात्रों को पौष्टिक भोजन नहीं मिलता। सरकारी स्कूल के छात्र, जिन्हें स्कूलों में मिड-डे मील के रूप में दाल और सब्जी मिलती थी, अब उन्हें घर में केवल चावल या रोटी खाने को मिल रही है।

वैष्णवी की छोटी बहन गुड़िया ने बताया – “हम या तो प्याज या आलू के साथ रोटी खाते हैं, या अच्छे दिनों में दाल के साथ चावल खाते हैं। स्कूल में हमें अलग-अलग तरह की सब्जियां और खिचड़ी मिलती थी। मैं स्कूल वापस जाना चाहती हूं।” गुड़िया आठ साल की लड़की है, जो यह नहीं समझ पा रही कि उसका स्कूल इतने लंबे समय से बंद क्यों है।

यूनिसेफ द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में, दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय शिक्षा सलाहकार, जिम एकर्स के हवाले से कहा गया – “हमें चिंता है कि लंबे समय तक स्कूल बंद होने से लड़कियों और विकलांग लोगों सहित सबसे ज्यादा कमजोर लोगों को सबसे ज्यादा नुकसान होगा। लड़कियों को अक्सर घर के काम करने और भाई-बहनों की देखभाल करने के लिए बाध्य होना पड़ता है।”

जिम एकर्स ने यह भी कहा – “हम लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा की बढ़ती घटनाओं के बच्चों पर मनोवैज्ञानिक प्रभाव के बारे में भी चिंतित हैं।”

लड़कियों की शिक्षा पर प्रभाव

अंजू सोलंकी (13) अपने स्कूल से दो नोटिस मिलने के बावजूद, एक भी ऑनलाइन क्लास में शामिल नहीं हो पाई हैं। उनकी माँ, रमाबाई ने VillageSquare.in को बताया – “उसकी शिक्षक यह बताने के लिए हमारे पास आई, कि अब वे अंजू के होमवर्क फ़ोन पर भेजा करेंगे और उन्होंने हमारा फ़ोन नंबर माँगा।”

अपनी विधवा माँ रमाबाई सोलंकी के साथ यहाँ दिख रही अंजू सोलंकी और उनके भाई-बहन मल्टीमीडिया फोन न होने के कारण, ऑनलाइन पाठ नहीं ले पा रहे हैं (छायाकार – जिज्ञासा मिश्रा)

रमाबाई सोलंकी का कहना है – “हमने फोन नंबर दे दिया, लेकिन हमारे पास अपने बच्चों को देने के लिए कोई मल्टीमीडिया फोन नहीं है। हम देखेंगे कि जब स्कूल खुलेंगे तो वे पढ़ाई करें। हम गुजारा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इस हालत में, हम उसकी पढ़ाई को प्राथमिकता देकर, एक नया फोन नहीं खरीद सकते।”

रमाबाई सोलंकी (41) पास के कस्बे में सब्जी बेचती हैं। उन्होंने पांच साल पहले एक सड़क दुर्घटना में अपने पति को खो दिया था और अब वह अपने दो बच्चों और मां के साथ रहती हैं। वह अब परिवार का एकमात्र कमाऊ सदस्य है।

रमाबाई सोलंकी कहती हैं – “उनके पिता ने हमारे लिए कोई पैसा नहीं छोड़ा। मैं जानती हूं कि सरकारी स्कूल में कोई फीस नहीं लगती, लेकिन किताबों, यूनिफॉर्म और दूसरे सामान का क्या? मैं चाहती हूं कि वह पढ़ाई करे, लेकिन मैं यह ऑनलाइन क्लास और अतिरिक्त खर्चों को वहन नहीं कर सकती। सरकार हमारे जैसे गरीब बच्चों की मदद क्यों नहीं कर सकती?”

जिज्ञासा मिश्रा एक लेखिका हैं, जो राजस्थान और उत्तर प्रदेश में काम करती हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।