लॉकडाउन से, खानाबदोश (घुमन्तु) चरवाहों के रास्तों में आई, नई कठिनाइयाँ

ग्रीष्मकालीन चरागाहों की ओर प्रवास और संयोगवश पहले लॉकडाउन के उसी समय होने और आवाजाही पर भारी प्रतिबंधों के कारण, चरवाहों को भेदभाव के अलावा, चरागाहों, पानी और चारे का अभाव झेलना पड़ा

कच्छ के व्रजवाणी गाँव के, जागा वशराम रबारी हर गर्मी में, अपने पशुओं के झुंड के साथ, आठ महीने तक प्रवास करते हैं। उनके गाँव से लगभग 300 किलोमीटर दूर, पत्तन के ग्रामवासी आमतौर पर उन्हें बुलाते हैं और उनका स्वागत करते हैं| लेकिन इस बार, उन्होंने COVID-19 से जुड़े मिथकों के कारण, उन्हें गाँव में प्रवेश नहीं करने दिया।

महामारी के चलते, 25 मार्च को लागू हुए लॉकडाउन के दौरान, अचानक आए बदलाव के बारे में बताते हुए, उन्होंने कहा – “पुलिस कर्मियों की मौजूदगी ने भी हमें डरा दिया और हमारी आवाजाही गंभीर रूप से प्रतिबंधित कर दिया गया।”

पांच राज्यों के एक अध्ययन में पाया गया, कि लॉकडाउन के दौरान, रबारी जैसे लगभग 31% घुमंतू चरवाहे फंस गए थे, जबकि 51% की अंतर-राज्य आवाजाही कम हो गई  थी। गांवों के बाहर फंस गई खानाबदोश महिलाओं की मेहनत कई गुणा बढ़ गई,, क्योंकि उन्हें पानी लाने, राशन की व्यवस्था करने या दूध बेचने के लिए और ज्यादा दूरी तय करनी पड़ती थी।

लगभग 93% चरवाहों ने पशुओं के ऊपर होने वाले खर्च में बढ़ोत्तरी की जानकारी दी। उनके चारे की लागत चार से पांच गुना बढ़ गई। चारा और पानी खरीदना पड़ रहा था, जबकि अगर वे समय पर चरागाहों में पहुंच जाते, तो ये उन्हें मुफ्त में मिल जाते।

एक्शनएड के एक अध्ययन, ‘लॉकडाउन में चरवाहे का जीवन’ (Pastoralist’s Life in Lockdown) में विस्तार से लॉकडाउन के दौरान चरवाहों द्वारा झेले गए भेदभाव, सुरक्षा मुद्दों और आर्थिक और व्यवस्थाओं में आने वाली कठिनाइयों के बारे में विवरण दिया है।

प्रवास प्रतिबंध 

घुमंतू चरवाहों की आजीविका चरागाह की तलाश में पशुओं की यात्रा पर निर्भर करती है। ऐसे समुदाय हैं, जिनकी यात्रा हर साल अप्रैल-जून में राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों से शुरू होती है और विभिन्न क्षेत्रों से पारम्परिक रास्तों से गुजरती है।

वे उन निश्चित स्थानों पर रुकते हैं, जहाँ लोग उन्हें स्वीकार करते हैं और पशुओं की गोबर-खाद के लिए, उनके पशुओं को अपने खेतों पर डेरा डालने देते हैं। कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में चरवाहा समुदाय, गर्मियों में ऊपरी इलाकों में चले जाते हैं। वे पारम्परिक विश्राम-स्थलों पर रुकते हुए उन्हीं रास्तों से गुजरते हैं। लॉकडाउन ने सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया।

आवाजाही पर रोक ने इन समुदायों के लिए अपने पशुओं के लिए व्यवस्था करना मुश्किल बना दिया, क्योंकि उनके लिए चारा जुटाने का एकमात्र रास्ता, उनकी यात्रा के माध्यम से ही था। उन्हें रास्ते बदलने पड़े और जहां से वे जा सकते थे, वहां उन्हें अधिक समय और ऊर्जा खर्च करनी पड़ रही थी। खर्च बढ़ गया और दूध, ऊन या जानवरों की बिक्री से होने वाली आमदनी में भारी गिरावट आई।

सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा गाँवों में उनके परिवारों के लिए मदद पहुंची। लेकिन लगातार यात्रा में होने के कारण, चरवाहों को कोई मदद नहीं मिल सकी। स्वास्थ्य सेवाओं तक स्वयं के और अपने पशुओं के लिए, पहुँच एक खास मुद्दा था।

दुर्लभ चरागाह और पानी

लॉकडाउन ठीक चरवाहों के प्रवास के मौसम के साथ आया, जब वे अपने जानवरों के साथ गर्मियों की चरागाह की ओर जाते थे| साक्षात्कार में लगभग 32% चरवाहों ने कहा कि उन्होंने अपना प्रवास का समय कम कर दिया, जबकि 30% ने इसे देरी से शुरू किया।

लॉकडाउन के दौरान कई प्रतिबंधों के कारण, खानाबदोश चरवाहों के लिए अपने पशुओं के लिए स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना मुश्किल हो गया (छायाकार – मनु मौदगिल)

लॉकडाउन के नियमों में पहले चरण की ढील देने के बाद, कुछ चरवाहे गर्मियों की चराई के लिए निकल पड़े। बाकी 38% ने यात्रा के अपने सामान्य समय को नहीं बदला और अपने सामान्य रास्तों पर यात्रा शुरू की। हालांकि उन्हें रास्ते में बहुत सी समस्याओं का सामना करना पड़ा। अध्ययन में उत्तर देने वाले लगभग 90% चरवाहों ने चरागाहों और पानी की उपलब्धता में कमी पाई; जबकि 80% ने चारे की कमी महसूस की।

उनमें से ज्यादातर ने महसूस किया, कि भविष्य में किसी भी लॉकडाउन में उनकी आवाजाही और चरागाह तक पहुंच पर प्रतिबंध नहीं होना चाहिए, क्योंकि उनके जानवर चराई पर निर्भर हैं। लगभग 94% चरवाहों ने बताया कि उन्हें रास्ते में भोजन और राशन की चीजें प्राप्त करने में समस्याएं झेलनी पड़ी।

नयी चुनौतियाँ

कच्छ के नागजी भाई इस साल जब अपने परिवार के साथ प्रवास में मेहसाणा जिले में थे, तो रात में उनकी लगभग 40 भेड़ें चोरी हो गईं। उन्होंने इसकी सूचना पुलिस को दी, लेकिन कोई पकड़ा नहीं गया। बहुत भागदौड़ करने के बाद, उन्होंने उम्मीद छोड़ दी और मामले पर जोर देना बंद कर दिया।

जब चरवाहे हर साल उन्हीं रास्तों पर यात्रा करते हैं, तो वे अपने स्वयं के सामाजिक संपर्क और सुरक्षा व्यवस्था विकसित कर लेते हैं। यह रास्तों पर ग्रामवासियों के साथ एक पारस्परिक रूप से फायदे का काम बन जाता है। लेकिन लगभग 57% चरवाहों ने साक्षात्कार में बताया कि उन्हें लॉकडाउन के दौरान अपने रास्ते बदलने पड़े।

बदले हुए रास्तों में, मुश्किल से ही इंसानी बस्तियाँ मिलती थी और उन्हें आसानी से भोजन का सामान नहीं मिल पाता था। वे अपने मोबाइल फोन इस्तेमाल नहीं कर सके, जिनके द्वारा वे समूह के दूसरे सदस्यों और परिवार के संपर्क में रहते थे, क्योंकि कोई भी दुकान खुली नहीं मिलती थी, जहां वे अपने फोन को रिचार्ज कर सकें। और कई-कई दिनों तक कोई नेटवर्क भी उपलब्ध नहीं रहता था।

अनजान रास्तों पर चोरी बढ़ने का मतलब था, कि उन्हें दिन-रात अपने पशुओं की निगरानी करनी थी। इस तरह की समस्या उन्हें उनके नियमित रास्तों पर नहीं होती थी।

हालाँकि, लॉकडाउन का एक सकारात्मक पक्ष भी था, कि पशुओं की चोरी या चरवाहों की लूट की घटनाओं में कमी आई थी। लगभग 67% चरवाहों ने अपराध में कमी पाई, जिसके लिए बढ़ी हुई सुरक्षा और आवाजाही पर लगे प्रतिबंधों को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

आय में कमी 

पशुपालन में, दवा और चारा खरीदने के लिए धन, श्रम और संपर्कों के मामले में, बहुत अधिक निवेश चाहिए होता है। अध्ययन में पाया गया कि जहॉं पशुओं के चारे की कीमतें बढ़ीं, वहीं पशुओं की बीमारियों में भी वृद्धि हुई, जिससे स्थिति जटिल हो गई।

प्रवास में देरी या दिनों में कमी का, 62% चरवाहों की आय पर भारी प्रभाव पड़ा। क्योंकि इन परिवारों का सालाना गुजारा प्रवास पर एक चक्र के रूप में निर्भर है, इसलिए एक पूरे साल के झटके का मतलब है, कि इसका असर भविष्य में दो-एक सालों तक होगा।

साथ ही साथ, पशुओं से COVID-19 के फैलने के डर से, दूध और दूसरे डेयरी उत्पादों की कीमतें बुरी तरह गिर गई। उत्तराखंड में, वन-गुज्जरों ने अप्रैल में रोज 5,000 लीटर दूध फेंक दिया, क्योंकि उनसे कोई भी खरीदना नहीं चाहता था।

चरवाहे आमतौर पर नकदी लेकर नहीं चलते। यात्रा के समय, वे दूध, मांस, ऊन या ऊनी उत्पादों को बेचकर चीजें खरीदते हैं। इस साल उनकी आय कम हुई और पशुओं की जरूरतों को पूरा करना मुश्किल था। लगभग 80% को सभी उत्पादों से होने वाली आय में कमी का सामना करना पड़ा, जबकि 90% ने ऊन से आय में गिरावट के बारे में बताया।

भेदभाव

लगभग 84% चरवाहों को गांवों के पास शिविर लगाने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पिछले सालों में, किसान और ग्रामीण उनका स्वागत करते थे और उन्हें कटाई के बाद के अवशेष पर जानवरों को चराने के लिए आमंत्रित करते थे। लेकिन इस साल महामारी के कारण, लोग डरे हुए थे और उन्होंने चरवाहों को गांवों के पास डेरा नहीं डालने दिया।

पंजाब में मुस्लिम चरवाहों पर शारीरिक हमलों के मामले भी सामने आए। अध्ययन के लिए जिन लोगों का साक्षात्कार हुआ, उनमें से 50% ने बताया कि उन्हें ग्रामीणों की ओर से भेदभाव का सामना करना पड़ा, जबकि 30% ने स्थानीय पुलिस और सरकारी अधिकारियों द्वारा भेदभाव में वृद्धि महसूस की। कुछ मामलों में, चरवाहे भी उत्पीड़न से बचने के लिए, आबादी वाले गाँवों से बचते थे।

सरकार का सहयोग

पशु बाजार, जहां से लोग खेती में इस्तेमाल के लिए बैल खरीदते थे, बंद हो गए। बहुत से मामलों में, लोगों को गाय और बैल जैसे बड़े पशुओं को छोड़ देने के लिए मजबूर होना पड़ा, क्योंकि उनके पास उन्हें चारा लाकर खिलाने के लिए संसाधन नहीं थे। पशुओं के लिए बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता प्रभावित हुई। लगभग 89% ने लॉकडाउन के दौरान, पशुओं के लिए स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना एक बड़ी चुनौती थी।

चारे और पशु चिकित्सा की उपलब्धता सीमित थी और जो कुछ भी थी, उसकी कीमत बहुत अधिक थी। मानवरपुर गाँव के भरत गोकुल भरवाड़ कहते हैं – ‘ पैसे देने के बाद भी, चारे की कमी के कारण हमें पशुओं के लिए चारा नहीं मिल रहा था।

भरवाड़ ने बताया – “जब हम पास की चरागाह से घास लेने गए, तो पुलिस ने हमें रोक दिया। पशु चारे की कीमत में 60% से अधिक की वृद्धि हुई।” उनमें से कईयों का कहना था, कि सरकारों को ऐसे समय में, पशुओं के लिए सहायता प्रदान करनी चाहिए, जैसे उन्होंने लोगों को राशन की मदद की।

लोगों ने इस संकट के अनुभव से यह महसूस किया, कि भविष्य में ऐसे लॉकडाउन के दौरान, छूट होनी चाहिए और बिना किसी प्रतिबंध के अपने सामग्री जुटाने और अपने उत्पाद की बिक्री की गुंजाइश होनी चाहिए। यदि स्थानीय बिक्री के लिए कोई सुविधा नहीं हो, तो सरकारी खरीद की व्यवस्था की जा सकती है। इससे लोगों को अपनी आय को बचाने में मदद मिलेगी।

यह लेख पहली बार GoI Monitor में प्रकाशित हुआ था।

मनु मौदगिल चंडीगढ़ स्थित एक पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।