डिजिटल दुनिया में महात्मा का सपना

क्या गांधी का आत्मनिर्भर गांवों का विचार आज काम कर सकता है? ग्रामवासी प्रौद्योगिकी का उपयोग करके अपने प्राकृतिक घरेलू उत्पादों के लिए बाजार खोज सकते हैं

महात्मा गांधी ने यह  कहते हुए  कि भारत अपने  गांवों में रहता है, ग्राम स्वराज के विचार का प्रचार किया था । उनके लिए इसका मतलब था कि जहां तक दैनिक जरूरतों का सवाल है, गांव लगभग पूरी तरह से आत्मनिर्भर होगा। ग्राम स्वराज में एक जीवंत और संवेदनशील स्वशासन तंत्र भी निहित होगा , जो पूरे गांव के लिए समान विकास को सुनिश्चित करेगा।

हम इस पहले लक्ष्य से काफी दूर जा चुके हैं।

14वें वित्त आयोग की रिपोर्ट जारी होने के बाद से पंचायती राज संस्थानों (पीआरआई) पर अधिक ध्यान देने के साथ, दूसरे लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए गंभीर प्रयास किए गए हैं, जिसका परिणाम कुछ क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है। लेकिन क्या ये अवधारणाएं हमारे डिजिटल दुनिया के नए युग में संभव हो सकती हैं?

क्या गाँव की आत्मनिर्भरता आज भी लागू होती है?

आर्थिक आत्मनिर्भरता मूल रूप से उन  गांवों में लागू की गई थी जो खराब भौतिक संपर्क से पीड़ित थे और  साथ ही वहां  सूचनाएं भी नहीँ पहुँच पाती थी, एक तरह का  ब्लैक-आउट था। हालांकि बड़ी संख्या में गांवों के लिए ये समस्याएं आज के समय में पहले की तुलना में कम दमनकारी हैं।

आत्मनिर्भर गाँव के पक्ष में मुख्य तर्क यह था कि जब स्थानीय माँग को स्थानीय आपूर्ति से पूरा किया जाता था, तब आय और धन गाँव में रहता था और अधिक लोगों को रोजगार मिलता था। इसके विपरीत मुख्य आर्थिक तर्क यह था कि यह प्रौद्योगिकी के उपयोग में एक ठहराव पैदा करेगा और इससे उपभोक्ता की वरीयता पर अंकुश लगेगा।

क्या आज की अत्यधिक कनेक्टेड डिजिटल दुनिया में उपभोक्ता की पसंद पर अंकुश लगाए बिना न्यूनतम धन की कमी और उच्च स्तर के ग्रामीण रोजगार को प्राप्त करना संभव है? अगर यह हासिल किया जा सकता है, तो यह गांधी के आत्मनिर्भर गांवों के सपने को और अधिक संभव बनाने में मदद कर सकता है।

गांव शहरी बाजारों का  भरण कर सकते है

मेरा मानना ​​​​है कि गांधीवादी लक्ष्य की पूर्ति सूचित आर्थिक आदान-प्रदान को प्रोत्साहित करके संभव है, जिसमें गांव डिजिटल प्लेटफॉर्म एवं  व्यापक भारत के साथ बेहतर कनेक्टिविटी का उपयोग करके गांव के बाहर मौजूदा बाजार की मांगों को पूरा कर सकता है | इसके बदले में बिना उपभोक्ता की पसंद पर  अत्यधिक अंकुश लगाये, गाँव उन चीजों को प्राप्त कर सकता है जिसकी उसे आवश्यकता होती है। यह इसलिए संभव है क्योंकि  बड़े पैमाने पर विस्तारित घरेलू बाजार में, ऐसे बड़े खंड हैं जो सरल, प्राकृतिक, “घर का बना” उत्पाद चाहते हैं। इस बाजार की एकमात्र उम्मीद अच्छी स्वच्छता और अच्छे दिखने वाले उत्पाद है|

ऐसे कई उदाहरण बाजार में उपलब्ध हैं – सबसे हाल ही में कई गांवों में स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) द्वारा निर्मित आकर्षक रूप से पैक और ब्रांडेड एन 95 मास्क हैं। ऐसे अवसरों का दोहन करने के लिए कल्पनाशील सामाजिक उद्यमों द्वारा मध्यस्थता आवश्यक होगी लेकिन हमारे पास पूरे देश में रचनात्मक और डिजिटल रूप से जानकार युवाओं की एक बड़ी संख्या है जो इस कार्य में मददगार हो सकते है |

देश में बड़ी संख्या में महिला स्वयं सहायता समूहों और उनसे जुड़े संघीय संगठनों की स्थापना की गयी है जिसकी वज़ह से ऐसे कार्यो को करने के लिए सामाजिक आधारभूत संरचना बन गई है|  इन महिला समूहों को इसमें सक्रिय रुचि लेने और स्थानीय प्रशासन को अधिक उत्तरदायी और उपयोगी बनाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं।

तालमेल बना सकता है गांवों को आत्मनिर्भर

14वें और 15वें वित्त आयोगों ने यह सुनिश्चित किया है कि ग्राम पंचायत के पास ग्राम विकास को बढ़ावा देने के लिए धन की उपलबध्ता होगी किन्तु प्रशासनिक अडचनों के कारण यह धन ग्राम सभा तक नहीं पहुँच पता है| इसके लिए ऐसे प्रयासों की जरुरत है जो इसका समाधान कर सके और धन के प्रवाह में कोई बाधा न आये| राज्य एवं ग्राम स्तर के कर्मियों की क्षमता विकास करने की भी आवश्यकता है जो उपलब्ध संसाधनों को वास्तव में स्थानीय लोगों की सेवा के लिए उपयोग करने में मदद करे|

इन कार्यो को करने के लिए संरचना और नीतियां मौजूद हैं। गाँव के भौगोलिक क्षेत्रों में संसाधनों, जैसे वनों और खनिजों को लेकर सबसे बड़ा संघर्ष होता है। राज्य सरकार ऐसे संसाधनों का उपयुक्त उपयोग करना चाहते है। मेंधा लेखा – अपने आसपास के जंगल पर अपना अधिकार स्थापित करने के लिए जाना जाने वाला गाँव – इसका समाधान प्रदान करता है, लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह दूसरे चरण में आ सकता है।

हालांकि, राज्य की नौकरशाही के निचले और मध्य स्तर के सत्ता अभिविन्यास को छोड़कर, वास्तविक स्थानीय विकास के लिए  पंचायत के धन का उपयोग करने के लिए वास्तव में कोई उचित और तार्किक विरोध नहीं है। यदि महिला समूहों, पंचायती राज संस्थाओं और स्थानीय प्रशासन के पारस्परिक रूप से सहायक त्रय को स्थापित करने के लिए लगातार प्रयास किए जाते हैं, तो इस आयाम पर भी ध्यान दिया जा सकता है ।

इसलिए, जब हम पाते हैं कि ग्राम स्वराज की शाब्दिक व्याख्या वर्तमान संदर्भ में लोकप्रिय नहीं हो सकती है, किन्तु  ग्राम स्वराज की भावना वांछित और व्यवहार्य दोनों है।

और विलेज स्क्वायर इसी दिशा में काम कर रहा है।