लैंगिक समानता सुनिश्चित करने के लिए सहायक नीतियों का होना आवश्यक है

महामारी ने महिलाओं के सामने आने वाली बहुत सी बाधाओं को और भी बढ़ा दिया है। लैंगिक समावेश सुनिश्चित करने के लिए, जेंडर-विशिष्ट नीतियों और कार्यान्वयन में जवाबदेही की आवश्यकता है

अदृश्य महिलाएं कभी भी किसी सरकारी नीति का हिस्सा नहीं होती हैं। भारत के लैंगिक-समानता ग्राफ में सुधार के लिए, यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं की भागीदारी हो और लैंगिक मुद्दों को सही नजरिए से देखा जाए। सुधारों को लागू करने और समाधान प्रदान करने के लिए, एक मजबूत और प्रतिबद्ध राजनीतिक सोच होनी चाहिए। इससे महिलाओं के लिए प्रभावी नीतियाँ तैयार करने और लैंगिक समानता सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

यह विचार स्वतंत्र जेंडर सलाहकार और हिमाचल प्रदेश सरकार की पूर्व अतिरिक्त मुख्य सचिव, सरोजनी गंजू ठाकुर द्वारा ‘भारत ग्रामीण संवाद’ के दौरान व्यक्त किए गए। ऑनलाइन कार्यक्रम, ‘संवाद’ ट्रांसफॉर्मिंग रूरल इंडिया फाउंडेशन (TRIF) द्वारा आयोजित किया गया था, जो जमीनी स्तर पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को सहयोग, और समाधान प्रदान करता है।

मौजूद असमानता

ठाकुर का कहना था कि हालाँकि आजादी के बाद से पिछले 70 वर्षों में भारत में बहुत कुछ बदला है, लेकिन लैंगिक समानता पर बहुत कम काम हुआ है। इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण हमारा गिरता हुआ लिंगानुपात है। उन्होंने यह भी कहा कि सार्वजनिक परिवहन से लेकर पार्क और मॉल तक हर जगह लैंगिक समानता की जरूरत है। ठाकुर कहती हैं – “हमें जेंडर-उदासीन नहीं होना चाहिए और अपने सुरक्षित शहरों के कार्यक्रम पर काम करते रहना चाहिए।”

पूर्व नौकरशाह ने कहा कि सभी स्तरों पर महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए जेंडर-बजटिंग महत्वपूर्ण है। उनका सुझाव था कि बेहतर परिणामों के लिए पहले कुछ क्षेत्रों से शुरुआत करना समझदारी होगी। लैंगिक-समानता सम्बन्धी नीतियों के लिए जवाबदेही तय करने से, उनका कार्यान्वयन सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी।

महिलाओं के लिए प्रचलित चिरस्थायी छवि के सामान्यकरण को लेकर ठाकुर आलोचक थी। उदाहरण के लिए, सरकार की उज्ज्वला योजना, जिसमें गरीब परिवारों की महिलाओं को सरकार द्वारा गैस सिलेंडर और खाना पकाने के चूल्हे मुफ्त दिए गए थे, यह माना जाता था कि खाना पकाने का काम केवल महिलाओं द्वारा किया जाता है।

उन्होंने अवैतनिक कार्यों के बारे में भी बात की और कहा कि यह महिलाओं को उत्पादक कार्य करने से रोकता है, जिससे वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र बन सकती हैं। उन्होंने कहा कि लैंगिक संबंधों को बढ़ाने पर काम करना, स्वयं सहायता समूहों का पवित्र कर्तव्य होना चाहिए।

संसाधनों की जरूरत 

स्वतंत्र जेंडर सलाहकार, और महिला सशक्तिकरण की दिशा में काम करने वाली एक संस्था, ‘जागोरी’ की पूर्व सीईओ, सुनीता धर ने अपनी बातचीत को स्पष्ट करने के लिए, विकास क्षेत्र में अपने लम्बे अनुभव का उपयोग किया। उन्होंने अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करने के लिए, लैंगिक समानता पर बीजिंग के सम्मेलन को चुना।

महिलाओं पर सामान्य महासभा (जनरल असेंबली ऑन वीमेन) – 2000 का 23वां विशेष सत्र: इक्कीसवीं सदी के लिए लैंगिक समानता, विकास और शांति पर जून, 2000 में न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र मुख्यालय में आयोजित किया गया। इसमें एक राजनीतिक घोषणा और परिणाम दस्तावेज को अपनाया गया, जिसका शीर्षक था ‘आगे कार्रवाई के लिए बीजिंग घोषणा को लागू करने के लिए अगले कदम एवं पहल और कार्रवाई का मंच’।

धर ने कहा कि हो सकता है इस तरह के सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली महिलाएं संख्या में कम हों, लेकिन वे देश की सभी महिलाओं की शक्ति और आवाज की वाहक हैं। इस ओर ध्यान दिलाया गया कि लैंगिक समानता के लिए कानूनी व्यवस्था में बदलाव जरूरी है, लेकिन संसाधन अपर्याप्त हैं।

उक्त सम्मेलन के परिणाम की सराहना करते हुए, धर ने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों की बात की, जिन्हें फोरम में संबोधित नहीं किया गया। उन्होंने विकलांग महिलाओं, ट्रांसजेंडर, जलवायु परिवर्तन के मुद्दों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा जैसे कुछ मुद्दों को सूचीबद्ध किया, जिन पर ध्यान केंद्रित नहीं किया गया था।

उन्होंने इस तथ्य की आलोचना की कि लैंगिक मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं थे। उन्होंने कहा – “एक प्रतिबद्धता जरूर है, लेकिन इस प्रतिबद्धता को पूरा करने के लिए कोई संसाधन नहीं हैं। यहां तक ​​कि महिलाओं के लिए हमारा राष्ट्रीय बजट भी बहुत कम है।”

उन्होंने लैंगिक समानता का समर्थन करने वाले सभी लोगों से यह सुनिश्चित करने की अपील की, कि जहां तक ​​संसाधनों का सवाल है, सरकार और दूसरी दान देने वाली संस्थाएं अपने कहे अनुसार काम करें। धर का कहना था कि बहुत कुछ करने की जरूरत है, और इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि जिनके विचार मिलते हैं वे गठबंधन बनाएं, लैंगिक मुद्दों के बारे में आंकड़े इकठ्ठा करें और सही नेताओं का सहयोग करें।

महिलाओं के अनुकूल स्थान

जमीनी स्तर पर काम कर चुकी व्यक्ति के रूप में, धर अवैतनिक कार्यों की बड़ी आलोचक थी, जिनके लिए कोई मान्यता या सराहना प्राप्त नहीं होती। यह बात घरेलू नौकरों के काम पर लागू होती है, जिसके मूल्य को बेहद कम आँका जाता है। उन्होंने COVID-19 लॉकडाउन के दौरान घरेलू हिंसा और महिलाओं के खिलाफ अपराध में वृद्धि की बात कही।

उन्होंने कहा – “घर अब सुरक्षित नहीं रहे। हमें हिंसा के डर को सम्बोधित करना चाहिए, जो महिलाओं के विकल्पों को बाधित करता है और दोष एवं शर्मिंदगी से बचने के लिए, उन्हें स्वयं पर सेंसरशिप लागू करने के लिए मजबूर करता है। सार्वजनिक स्थानों में बदलाव और उन्हें महिलाओं के लिए सुरक्षित बनाना बहुत महत्वपूर्ण है।”

उन्होंने रोकथाम में निवेश पर जोर दिया, क्योंकि यह महिलाओं के लिए आत्मविश्वास बढ़ाने वाला होगा। उन्होंने जोर दिया कि महिलाओं से संबंधित कानूनों पर फिर से विचार करना महत्वपूर्ण है, और न्याय तक पहुंच पर निरंतर नजर रखना भी महत्वपूर्ण है।

उन्होंने गवाहों की सुरक्षा के लिए कड़े कानून की मांग की, क्योंकि इससे पीड़िता को न्याय दिलाने में मदद मिलेगी। उन्होंने जोर देकर कहा कि संसाधन महत्वपूर्ण हैं और कि उनका लैंगिक समानता के हित में सही इस्तेमाल होना चाहिए।

आर्थिक विकास संस्थान (Institute of Economic Growth) में समाजशास्त्र के प्रोफेसर और पैनल के अकेले पुरुष वक्ता, संजय श्रीवास्तव ने समावेशी शहरों को लेकर कहा कि जेंडर को एक अलग न देख कर एक रिश्ते के रूप में देखा जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि अदृश्य महिलाओं को पहले एक चेहरा दिया जाना चाहिए और फिर आंकड़ों के माध्यम से उनकी जरूरतों की पहचान की जानी चाहिए और उसके अनुसार नीतियां तैयार की जानी चाहिए।

उन्होंने कहा – “महिलाओं को स्वयं दृढ़तापूर्वक पेश आना चाहिए, यह ध्यान में रखते हुए पुरुषों से अपने स्थान को फिर से हासिल करना चाहिए, कि इतने लंबे समय तक सत्ता का आनंद लेने वाले आसानी से हार नहीं मानेंगे।” इस बात पर जोर देते हुए कि लिंग एक बहुत ही जटिल शब्द है, उन्होंने कहा कि लैंगिक समानता के स्तर को ऊपर उठाने के लिए, जेंडर के सम्बन्ध में पूर्ण बदलाव की जरूरत है।

सार्वजनिक स्थान सभी के लिए होने चाहियें, चाहे वे किसी भी लिंग के हों। श्रीवास्तव ने कहा कि स्मार्ट शहरों के लिए योजनाएं इस तरह से डिजाइन की जानी चाहिए, कि उनमें जेंडर सम्बन्धी प्रत्येक वर्ग का समावेश हो। उन्होंने कहा कि बुनियादी ढांचा महिलाओं के अनुकूल होना चाहिए। सीसीटीवी कैमरों का इस्तेमाल निगरानी के लिए नहीं, बल्कि सुरक्षा के लिए होना चाहिए।

बाधाओं पर नियंत्रण

पैनल सदस्यों ने लैंगिक समानता के संदर्भ में चुनौतियों, समाधानों पर चर्चा की और 10 साल बाद के ग्रामीण भारत की कल्पना की। वे सभी इस बात पर सहमत थे कि परिवर्तन लाने के लिए, सबसे पहले यह महत्वपूर्ण है कि महिलाओं को शामिल किया जाए और वे अदृश्य व्यक्ति नहीं बनी रहें।

गेट्स फाउंडेशन की उप निदेशक, मधु कृष्णा ने सत्र का संचालन किया। उन्होंने कहा – “लैंगिक समानता को पहले स्थापित किए बिना, कुछ भी संभव नहीं है, और जितनी जल्दी इसे समझ लिया जाए और इस पर काम करना शुरू किया जाए, बड़े पैमाने पर मानवता के लिए उतना ही बेहतर होगा।”

अपनी बात को स्पष्ट करने और इस क्षेत्र में काम शुरू करने के तकाज़े को सही ठहराने के लिए, कृष्णा ने आंकड़ों का इस्तेमाल किया। लैंगिक असमानता पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि भारत लैंगिक समानता के मानदंडों पर नीचे है। उन्होंने कहा कि लैंगिक समानता बुनियादी ढांचे की सभी योजनाओं के केंद्र में होनी चाहिए।

उनका कहना था कि लैंगिक समानता वह आधार है, जिस पर, यदि हम प्रगति चाहते हैं, तो हमें सबसे पहले अपने पाँव जमाने होंगे। हमें लैंगिक समानता के रास्ते में आने वाली एक नहीं, बल्कि कई बाधाओं से निपटना होगा। कृष्णा ने कहा कि महामारी ने सभी असमानताओं को और अधिक तेजी से सामने रख दिया है।

ये संवाद न केवल ग्रामीण भारत के लिए मायने रखता है, बल्कि पूरे देश से सम्बंधित है। यदि इन सुझावों को सरकारी नीतियों के माध्यम से लागू किया जाता है, तो वे निश्चित रूप से भारत के ग्रामीण परिदृश्य में एक सराहनीय परिवर्तन की शुरुआत करेंगे।

कुलसुम मुस्तफा एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। मूल लेख, जो पहली बार द न्यूज एजेंसी में छपा था|